हाल ही
में ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल तक की आयु
के बच्चों के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करने पर पाबंदी लगाने की घोषणा कर दी है।
कानून के तहत सोशल मीडिया के इस्तेमाल के खिलाफ कड़े कदम उठाये गये हैं। इस कानून
में प्रावधान किया गया है कि अगर बच्चों ने सोशल मीडिया का उपयोग किया तो उनके
परिजनों पर 5 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लगाया
जाएगा। ऑस्ट्रेलिया की सरकार के इस फैसले ने पूरे विश्व में सोशल मीडिया और बच्चों
के इस्तेमाल को लेकर चिंता और विचारों की एक बहस छेड़ दी है, जिसमें बच्चों की सुरक्षा, मानसिक स्वास्थ्य, और डिजिटल
स्वतंत्रता जैसे मुद्दे शामिल हैं।कॉमन सेंस मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक,
10 साल की उम्र में आज 42 प्रतिशत बच्चों के पास स्मार्टफोन है. 12 साल की उम्र तक यह 71 प्रतिशत तक पहुंच जाता है और 14 की उम्र तक 91 प्रतिशत बच्चों
के हाथ में मोबाइल फोन होता है|इस डिजिटल
दुनिया ने हमारे युवाओं में चिंता,डिप्रेशन और
आत्महत्या जैसी विकृतियों से भर दिया है। 2000 के 2010 के दशक की
शुरुआत तक, हाई स्पीड इंटरनेट और सोशल मीडिया
ऐप्स से लैस स्मार्टफोन हर तरफ फैल गये।भारत भी इसमें अपवाद नहीं है |दुनिया में दुसरे नम्बर पर सबसे ज्यादा मोबाईल धारकों वाले देश में
बच्चे मोबाईल के साथ क्या कर रहे हैं|इसकी चिंता
किसी को नहीं है |
के ध्यान भटकाने के लिए सिर्फ फोन ही नहीं, बल्कि असली(रीयल) खेल आधारित बचपन का खत्म
हो जाना भी एक बड़ा कारण है|भारत में यह बदलाव २००० के दशक से शुरु हुआ जब अभिभावकों ने अपने
बच्चों की किडनैपिंग और अनजान खतरों से बचाने के लिए भय आधारित पैरंटिंग करना शुरू
कर दिया , जिसका परिणाम हुआ कि बच्चों के अपने खेलने का समय घटता चला गया और
उनकी गतिविधियों पर माता पिता का नियंत्रण बढ़ गया।इसका दूसरा बड़ा कारण शहरों में
खेल के मैदानों का खत्म हो जाना भी है |अनियोजित शहरीकरण ने बच्चों के खेलने की जगह
खत्म कर दी |इसका असर बच्चों के मोबाईल स्क्रीन में खो जाने में हुआ |
आज के बच्चे और उनके माता-पिता एक तरह के डिफेंस
मोड में फंसे हुए हैं, जिससे बच्चे चुनौतियों का सामना करने, जोखिम उठाने और नई चीजें एक्सप्लोर करने से
वंचित रह जाते हैं, जो उनको मानसिक रूप से मजबूत करने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी
है।यहाँ एक विरोधाभास है असल में माता-पिता को अपने बच्चों को वैसी ही
परिस्थितियाँ देनी चाहिए जैसे एक माली अपने पौधों को स्वाभाविक रूप से बढ़ने
और विकसित होने के लिए देता है| पर यहाँ अभिभावक हम अपने बच्चों को एक बढ़ई की तरह, बड़ा कर रहे हैं जो अपने सांचों को पूरी तरह से
अपने नियंत्रण में आकार देता है। असली दुनिया में हम अपने बच्चों को अधिक
सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन डिजिटल दुनिया में उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते
हैं,जो कि उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। स्मार्टफोन और अत्याधिक
सुरक्षात्मक पालन पोषण के इस मिश्रण ने बचपन की संरचना को बदल दिया है और नई
मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है। जिनमें जीवन के प्रति असुरक्षा , कम नींद आना और नशे की लत
शामिल हैं।
तथ्य यह भी है कि हम सभी ने बहुत लंबे समय तक
बिना फोन के और बिना माता-पिता से त्वरित संपर्क किये, ठीक ठाक जीवन जीया और काम किया है |।संयुक्त राष्ट्र की शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति एजेंसी यूनेस्को ने कहा कि
इस बात के प्रमाण मिले हैं कि मोबाइल फोन का अत्यधिक उपयोग शैक्षणिक प्रदर्शन में
कमी से जुड़ा है तथा स्क्रीन के अधिक समय का बच्चों की भावनात्मक स्थिरता पर
नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।यूनेस्को ने अपनी 2023 ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटर रिपोर्ट में कहा कि
डिजिटल तकनीक ने शिक्षा में स्वाभाविक रूप से मूल्य जोड़ा है, यह प्रदर्शित करने के लिए बहुत कम मजबूत शोध हुए
हैं। अधिकांश साक्ष्य निजी शिक्षा कंपनियों द्वारा वित्त पोषित थे जो डिजिटल
शिक्षण उत्पाद बेचने की कोशिश कर रही थीं। इसने कहा कि दुनिया भर में शिक्षा नीति
पर उनका बढ़ता प्रभाव "चिंता का कारण" है।
इस रिपोर्ट में चीन का हवाला दिया गया
है , जिसने कहा कि उसने शिक्षण उपकरण के रूप में डिजिटल उपकरणों के उपयोग के लिए
सीमाएँ निर्धारित की हैं, उन्हें कुल शिक्षण समय के 30 प्रतिशत तक सीमित कर दिया है, और छात्रों से नियमित रूप से स्क्रीन ब्रेक लेने की अपेक्षा की जाती है|फोन लोगों में सीखने की क्षमता को भी कर सकते
हैं, कई अध्ययनों में पाया गया कि स्कूल में फोन का इस्तेमाल एकाग्रता को कम
करता है, और फोन का इस्तेमाल सिर्फ उपयोगकर्ता को ही नहीं प्रभावित करता। इसके लिए
फोन फ्री स्कूल आन्दोलन की संस्थापक साबिने पोलाक ने सेकेंड
"हैंड स्मोक" टर्म इजाद किया है। जिस तरह किसी व्यक्ति के द्वारा छोड़ा
गया सिगरेट का धुआं पास खड़े व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता है, उसी तरह भले किसी छात्र के पास फोन न हो, वो फिर भी क्लास में दूसरों द्वारा फोन के
इस्तेमाल किये जाने से प्रभावित होता है। वहीं यह उपकरण शिक्षकों के लिए भी
तनावपूर्ण होते हैं|भारत में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल न होना चिना का विषय है |
इसके कई कारण भी है जिसमें तकनीक का अचानक हमारे
जीवन में आना और छा जाना भी शामिल है| जहाँ माता पिता और उनके बेटे बेटियाँ एक साथ
मोबाइल फोन चलाना सीख रहे हैं |इस समस्या से बचने के प्रमुख तरीकों कि वे अपने बच्चों को स्मार्टफोन देने
में देरी करें और स्कूल इस निर्णय में उनका समर्थन करें। अपने बच्चों पर नजर रखने
के लिए माता-पिता फ्लिप फोन, स्मार्ट वॉच, ट्रैकिंग डिवाइसेस जैसे उपकरणों की मदद ले सकते हैं। नैतिक शिक्षा जैसे
विषयों में फोन और सोशल मीडिया का इस्तेमाल ,अपनी निजता कैसे बचाएं,साइबर बुलींग जैसे विषयों को जोड़ा जाना आवश्यक है |अब बच्चों को जीवन जीने के तौर तरीके सिखाने के साथ मोबाईल मैनर भी
सिखाये जाएँ |
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