Tuesday, December 24, 2024

डिजीटल उपनिवेशवाद से मुक्ति

 

आज के इस तकनीकी युग में सोशल मीडिया ने हमारे संवाद और विचारों के आदान-प्रदान करने के तरीकों को पूरी तरह से बदल दिया है। चाहे अपने प्रियजनों से बातचीत करनी होकोई ताजा समाचार जानना हो या अपनी आवाज दुनिया तक पहुँचाना हो , हमारा हर दिन सोशल मीडिया के बिना अधूरा सा लगता है। मगर क्या आपने कभी सोचा है कि जिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का हम रोजाना इस्तेमाल करते हैं , क्या वह हमारे देश की जरूरतोंसंस्कृति और मूल्यों के अनुरूप है?  
पश्चिमी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स , जैसे फेसबुकएक्स और इंस्टाग्राम आदि न केवल हमारे डेटा का आर्थिक शोषण कर रहे हैंबल्कि भारत की चुनावी प्रणालीन्यायिक फैसलों और समाज में वैचारिक ध्रुवीकरण को भी प्रभावित कर रहे हैं। फेक न्यूजबॉट्स और प्रोपेगेंडा के इस दौर में भारत को अपने डिजिटल मंचों पर अधिक नियंत्रण और आत्मनिर्भरता की आवश्यकता बढ़ गई है।

 स्टेस्टिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 90 करोड़ के पार पहुँच गई हैऔर इस संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। वहीं सोशल मीडिया के इस्तेमाल के मामले में 47 करोड़ यूजर्स के साथ भारत , चीन के बाद विश्व में दूसरा स्थान रखता है। भारत में फेसबुकइंस्टाग्रामव्हाट्सअपएक्स और यूट्यूब जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म्स सबसे अधिक प्रचलित हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश कंपनियों का नियंत्रण पश्चिमी देशोंमुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के हाथों में है। हैरानी की बात यह है कि 140 करोड़ लोगों के इस देश में किसी भी देशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं हैजो इन विदेशी को एप्स के सामने खड़ा हो सके। भारत वैश्विक स्तर पर सबसे बड़े और तेजी से बढ़ते डिजिटल बाजारो में से एक हैंयूएस और चीन के बाद भारत डिजिटल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। तकनीकी नवाचारों के मामले में भारत की स्थिति में पिछले कुछ सालों में काफी सुधार आया है। हाल ही में आई ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 रैकिंग में 133 देशों में भारत ने 39वां स्थान हासिल किया है,जो देश की बढ़ती तकनीकी और डिजिटल क्षमता का प्रमाण हैहालांकि इसमें अभी भी काफी सुधार की आवश्यकता है।

 पिछले कुछ सालों में इन विदेशी प्लेटफॉर्म्स पर डेटा सुरक्षाफेक न्यूज और पक्षतापूर्ण प्रचार का प्रभाव  बढा है। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैयहाँ की चुनावी प्रक्रिया में भी इन कंपनियों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मेटा प्लेटफॉर्म्स पर चुनावी पेड प्रचार और शेडो विज्ञापनों के जरिये राजनीतिक पार्टियों को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे हैं। संस्था ईको की रिपोर्ट के मुताबिक इन प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे कई विज्ञापनों को प्रमोट किया जो चुनावी नियमों का उल्लंघन और भ्रामक जानकारी दे रहे थे। साल 2018 में आए कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल ने भी यह उजागर किया था कि कैसे ये विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भारतीय मतदाताओं के डेटा का दुरुपयोग कर सकते हैं। चुनावी प्रक्रिया को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की जरूरत काफी बढ़ जाती है।

 सााल 2023 में यूनेस्को इपसोस द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक , देश में शहरी क्षेत्रों के 64 प्रतिशत लोगों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को गलत सूचनाओं और फेक न्यूज का प्राथमिक स्रोत मानाइन फेक न्यूज के प्रसार में खासकर फेसबुकव्हाट्सअप और एक्स इनमें प्रमुख भूमिका निभाते नजर आये। वहीं सांप्रदायिक हिंसा और दंगों के मामले में भी सोशल मीडिया एक बड़ी वजह के रूप में सामने आया है। फेसबुक की इंटरनल रिपोर्ट कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंडिया के मुताबिक, 2020 में हुए दिल्ली दंगों में फेसबुक और व्हाट्सएप पर 22 हजार से अधिक ऐसे पोस्ट्स और ग्रुप्स पाये गयेजिनमें सांप्रदायिक नफरत फैलाई जा रही थी।  इसी तरह के मामला 2021 में ट्विटर पर भी सामने आया जब भारत सरकार ने हिंसा फैलने की आशंका में किसान आंदोलन से जुड़े कुछ अकाउंट्स और ट्ववीट्स को हटाने के निर्देश दिये थे। लेकिन तब ट्विटर ने पूरी तरह से इसके अनुपालन से इंकार कर दिया था। ट्विटर ने दलील दी कि यह उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता और एंड टू एंड एन्क्रिपशन का उल्लंघन करेगा। इसके साथ ही व्हाट्सएप जो कि मेटा स्वामित्व में है ने भी आईटी नियम 2021 के कुछ नियमों की अव्हेलना की थी।

 हाल ही में पूर्व सीजीआई डी.वाई.चंद्रचूण ने सोशल मीडिया के न्यायपालिका के बढ़ते प्रभाव पर चिंता जाहिर की है। चंद्रचूड़ ने कहा कि कुछ सोशल मीडिया समूहजनभावना के जरिये न्यायाधीशों पर  दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हाल में एक्स और मेटा प्लेटफॉर्म्स पर फैसलों की ट्रोलिंग और जनभावनाओं के जरिये अप्रत्यक्ष दबाव बनाने के मामले  काफी बढ़ गये हैं। मुश्किल बात यह है कि यह विदेशी कंपनियाँ भारत में काम करने के बावजूद पूरी तरह से भारतीय कानून के अधीन नहीं है और अक्सर अपनी वैश्विक नीतियों का हवाला देकर बच निकलती हैं। बात सिर्फ यह नहीं है कि ये विदेशी कंपनियां भारत में प्रभाव बना रही हैंबल्कि आर्थिक दृष्टि से भी यह देश को बड़ा नुकसान पहुँचा रही हैं। उदाहरण के लिएमेटा और एक्स जैसे प्लेटफार्म भारत में विज्ञापन से अरबों डॉलर कमाई करते हैंलेकिन उनका एक बड़ा हिस्सा विदेशी देशों में चला जाता है। मेटा की इंडिया यूनिट की हाल की जारी आर्थिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से मेटा जिसमें फेसबुकव्हाट्सअपइंस्टाग्राम शामिल हैंने इस साल भारत से 22 हजार करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व की कमाई की है। लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष लाभ सीधे भारतीय अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता है।

 अब समय आ गया है जब भारत को चीन और रूस जैसे देशों से सीख लेकर अपने स्वदेशी सोशल मीडिया का इकोसिस्टम बनाने की और कदम उठाना चाहिए। चीन ने अपने डिजिटल प्रबंधन के लिए स्वेदेशी प्लेटफॉर्म्स जैसे वी-चैटवीबो और डोइन जैसे एप्स को विकसित किया है। वहीं रूस ने वीकेओड्नोकलास्निकी  जैसे प्लेटफॉर्म्स विकसित किये हैं। जो इन देशों को सूचना प्रवाह पर निगरानी रखने और अमेरिकी प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर होने से बचाते हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत में पहले कभी स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बनाने की कोशिश नहीं हुईशेयरचैट और कू जैसे प्लेटफॉर्म्स ने एक समय भारतीय बाजार में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की थी मगर लोगों और सरकार के अपेक्षाकृत कम समर्थन के कारण इनका वैश्विक दिग्गजों से मुकाबला करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया।

 आज भारत में तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कई बड़े कदम उठाये जा रहे हैं। आधारयूपीआईऔर कोविन जैसे स्वदेशी प्लेटफॉर्म्स ने यह साबित कर दिखाया है कि हम तकनीकी चुनौतियों को कैसे संभाल सकते हैं। तमाम चुनौतियों के बाद भी अगर

भारत अपनी सोशल मीडिया प्रणाली विकसित करता हैजो यह देश पर थोपे जा रहे डिजिटल उपनिवेशवाद का मुकाबला करने में बड़ा कदम होगा। अगर नागरिकों और सरकार का समर्थन प्राप्त हो तो स्वदेशी मोशल मीडिया के लिए विशाल संभावनाएं हैं। जिससे भारत इस वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे आ सके और डिजिटल उपनिवेशवाद से मुकाबला कर सके ।

दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 24/12/24 को प्रकाशित 

 

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