Tuesday, December 1, 2015

घरेलू हिंसा से मुक्ति के लिए

घरेलू हिंसा कानून लागू होने से पहले यह माना ही नहीं जाना जाता था कि घरों में भी हिंसा होती है और इसका सबसे ज्यादा शिकार महिलायें होती हैं वो चाहे विवाहित हों या अविवाहित |26 अक्टूबर 2006 को जब से यह कानून लागू हुआ तब से लेकर आज तक घरेलू हिंसा से होने वाले नुकसान का आंकलन विभिन्न शोधों से लगातार किया जा रहा है इन शोधों से प्राप्त आंकड़े चौंकाते हैं|एसेक्स विश्वविद्यालय की शोध छात्रा सुनीता मेनन द्वारा किये गए शोध से पता चलता है कि भारत में होने वाली कुल बाल मौतों के दसवें हिस्से का कारण घरेलू हिंसा है |इस शोध का आधार नेशनल फैमली एंड हेल्थ सर्वे 2007 का वह आंकड़ा है जिसमें सोलह से उनचास वर्ष की 124,385 महिलाओं का साक्षात्कार किया गया था|शोध में शामिल किये गए सैम्पल को अगर सिर्फ ग्रामीण जनसँख्या तक सीमित कर दिया जाये तो यह आंकड़ा दुगुना होकर हर पांच में से एक पर जा सकता है | महिलाओं को अधिकारों की सुरक्षा को अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दशक (1975-85) के दौरान एक पृथक पहचान मिली थी। सन् 1979 में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ में इसे अंतर्राष्‍ट्रीय कानून का रूप दिया गया था। विश्‍व के अधिकांश देशों में पुरूष प्रधान समाज है। पुरूष प्रधान समाज में सत्‍ता पुरूषों के हाथ में रहने के कारण सदैव ही पुरूषों ने महिलाओं को दोयम दर्जे का स्‍थान दिया है। यही कारण है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के प्रति अपराध, कम महत्‍व देने तथा उनका शोषण करने की भावना बलवती रही है।राष्ट्रीय अपराध रिकोर्ड ब्यूरो के 2014 आंकडो के अनुसार पति और सम्बन्धियों द्वारा महिलाओं के प्रति किये जाने वाली क्रूरता में साढ़े सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है |घरेलू हिंसा अधिनियम भारत का  पहला ऐसा कानून है जो भारतीय महिलाओं को उनके घर में सम्मानजनक एवं गरिमापूर्ण तरीके से रहने के अधिकार को सुनिश्चित करता है |प्रचलित अवधारणा के विपरीत समाजशास्त्रीय नजरिये से हिंसा का मतलब सिर्फ शारीरिक हिंसा नहीं है इसलिए घरेलू हिंसा अधिनियम में महिलाओं को सिर्फ शारीरिक हिंसा से बचाव का अधिकार नहीं है बल्कि इसमें  मानसिक ,आर्थिक, एवं यौन हिंसा भी शामिल हैं | पुरुष प्रधान भारतीय समाज में महिलाओं को दिवीतीय दलित की संज्ञा दी जा सकती है जो सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से शोषित की भूमिका में हैं |हिंसा कैसी भी हो वह महिलाओं के मनोविज्ञान को प्रभावित करती है |घरेलू हिंसा अपने आप में एक ऐसी हिंसा जिनसे व्यवहारिक दृष्टि से सामाजिक रूप से मान्यता मिली हुई है यानि घर में हुई हिंसा को हिंसा की श्रेणी में नहीं माना जाता है ऐसी स्थिति में घर की लड़कियां ,महिलाएं उसे अपनी नियति मान लेती हैं |महिलाओं के नजरिये से उनके प्रति हुई हिंसा इसलिए ज्यादा गंभीर हैं क्योंकि वे जननी होती हैं ,देश का भविष्य उनके गर्भ में ही पलता है |गर्भवस्था के दौरान हुई हिंसा का असर महिला के बच्चे पर भी पड़ता है|मोरिसन और ओरलेंडो के एक शोध के अनुसार विकासशील देशों में महिलाओं के साथ हुई   हिंसा में कैंसर ,मलेरिया,ट्रैफिक एक्सीडेंट और युद्ध में हुई मौतों के मुकाबले ज्यादा मौत होती है |दुनिया की ज्यादातर सभ्यताओं में लिंग आधारित हिंसा पाई जाती है पर भारतीय स्थतियों में ज्यादातर ऐसी हिंसा को सामाजिक व्यवहार,सामूहिक मानदंडों और धार्मिक विश्वास का आधार मिल जाता है जिससे स्थिति काफी जटिल हो जाती है |दूसरे घरेलू हिंसा का साथ अपने सगे सम्बन्धियों से होता है इसलिए इसमें निजता और शर्म का घालमेल हो जाता है |इस विषय पर बात करना मुनासिब नहीं समझा जाता है और लोग खुल कर बोलने से कतराते हैं जिससे इस समस्या से संबंधित व्यवस्थित आंकड़े नहीं उपलब्ध हो पाते हैं |जागरूकता की कमी,सामाजिक रूप से बहिष्कृत किये जाने का डर समस्या को और विकराल बनाता है शहरों की हालात से ग्रामीण इलाकों की स्थिति का महज अंदाजा लगाया जा सकता है जहां जागरूकता और शिक्षा की खासी कमी है |इससे यह बात सिद्ध होती है कि घरेलू हिंसा के दर्ज कराये जा रहे आंकड़े और घरेलू हिंसा की वास्तविक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है| घरेलू हिंसा से महिलाओं  की सार्वजनिक भागीदारी में बाधा होती है उनकी कार्य क्षमता घटती है, और वे  डरी-डरी भी रहती है। परिणामस्‍वरूप प्रताडि़त महिला मानसिक रोगी बन सकती  है जो कभी-कभी पागलपन की हद तक पहुंच जाती है। यह तो स्थापित तथ्य है कि महज कानून बनाकर किसी सामाजिक समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है |महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा का सीधा संबंध उनकी वित्तीय आत्मनिर्भरता से जुड़ा हुआ है |वह महिलायें ज्यादा प्रताड़ित होती हैं जो वित्तीय रूप से किसी और संबंधी पर निर्भर हैं |वित्तीय आत्मनिर्भरता का सीधा संबंध शिक्षा से है जैसे –जैसे भारतीय महिलायें शिक्षित होती जायेंगी वे अपने अधिकार के लिए लड़ पाएंगी|घरेलू हिंसा का शिकार होने पर उन्हें पता होगा कि उन्हें क्या करना है|
अमर उजाला में 01/12/15 को प्रकाशित 


Tuesday, November 17, 2015

बूढी आबादी की भी हो चिंता

जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया का दूसरा बड़ा देश होने के नाते भारत की आबादी पिछले 50 सालों में हर 10 साल में 20 फीसदी की दर से बढ़ रही है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की जनसंख्या 1 अरब 20 करोड़ से भी अधिक रहीजो दुनिया की कुल जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत है। इस आबादी में आधे लोगों की उम्र 25 से कम है पर इस जवान भारत में   बूढ़े लोगों के लिए भारत कोई सुरक्षित जगह नहीं है,टूटते पारिवारिक मूल्यएकल परिवारों में वृद्धि  और उपभोक्तावाद की आंधी में घर के बड़े बूढ़े कहीं पीछे छूटते चले जा रहे हैं|जीवन प्रत्याशा में सुधार के परिणामस्वरुप 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की संस्था में वृद्धि हुई है| सन 1901 में भारत में 60वर्ष से अधिक उम्र के लोग मात्र 1.2 करोड़ थे| यह आबादी बढ़कर सन 1951 में 2 करोड़ तथा 1991 में 5.7करोड़ तक पहुँच गई|'द ग्लोबल एज वॉच इंडेक्सने दुनिया के 91 देशों में बुज़ुर्गों के जीवन की गुणवत्ता का अध्ययन के अनुसार बुज़ुर्गों के लिए स्वीडन दुनिया में सबसे अच्छा देश है और अफगानिस्तान सबसे बुरा,इस इंडेक्स में चोटी के20 देशों में ज़्यादातर पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमरीका के हैंसूची में  भारत 73वें पायदान पर हैवृद्धावस्था में सुरक्षित आय और स्वास्थ्य जरूरी है|उम्र का बढ़ना एक अवश्यंभावी प्रक्रिया है| इस प्रक्रिया में व्यक्ति का शारीरिकमानसिक एवं सामाजिक बदलाव होता हैपर भारत जैसे देश  में जहाँ मूल्य और संस्कार के लिए जाना जाता है वहां ऐसे आंकड़े चौंकाते नहीं हैरान करते हैं कि इस देश में बुढ़ापा काटना क्यूँ मुश्किल होता जा रहा है |बचपने में एक कहावत सुनी थी बच्चे और बूढ़े एक जैसे होते हैं इस अवस्था में सबसे ज्यादा समस्या अकेलेपन के एहसास की होती है जब बूढ़े उम्र की ऐसी दहलीज पर होते हैं जहाँ उनके लिए किसी के पास कोई समय नहीं होता है |वो बच्चे जिनके भविष्य के लिए उन्होंने अपना वर्तमान कुर्बान कर दिया ,अपने करियर की उलझनों में फंसे रहते हैं या जिन्दगी का लुत्फ़ उठा रहे होते हैं |ऐसे में अकेलेपन का संत्रास किसी भी व्यक्ति को तोड़ देगा |भारतीय समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा |डब्लूएचओ के अनुमानित आंकड़े के अनुसार भारत में वृद्ध लोगों की आबादी 160 मिलियन (16 करोड़) से बढ़कर सन् 2050में 300 मिलियन (30 करोड़) 19 फीसद से भी ज्यादा आंकी गई है. बुढ़ापे पर डब्लूएचओ की गम्भीरता की वजह कुछ चैंकाने वाले आंकड़े भी हैं. जैसे 60 वर्ष  की उम्र या इससे ऊपर की उम्र के लोगों में वृद्धि की रफ्तार 1980 के मुकाबले दो गुनी से भी ज्यादा है80 वर्ष से ज्यादा के उम्र वाले वृद्ध सन 2050 तक तीन गुना बढ़कर 395 मिलियन हो जाएंगे| अगले वर्षों में ही 65 वर्ष से ज्यादा के लोगों की तादाद वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तादाद से ज्यादा होगी. सन् 2050 तक देश में 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तुलना में वृद्धों की संख्या ज्यादा होगी. और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि अमीर देशों के लोगों की अपेक्षा निम्न अथवा मध्य आय वाले देशों में सबसे ज्यादा वृद्ध होंगें| पुराने ज़माने के संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार लेते जा रहे हैं जिससे भरा पूरा रहने वाला घर सन्नाटे को ही आवाज़ देता है बच्चे बड़े होकर अपनी दुनिया बसा कर दूर निकल गये और घर में रह गए अकेले माता पिता चूँकि माता पिता जैसे वृद्ध भी अपनी जड़ो से कट कर गाँव से शहर आये थे इसलिए उनका भी कोई अनौपचारिक सामजिक दायरा उस जगह नहीं बन पाता जहाँ वो रह रहे हैं तो शहरों में यह चक्र अनवरत चलता रहता है गाँव से नगर, नगर से महानगर वैसे इस चक्र के पीछे सिर्फ एक ही कारण होता है बेहतर अवसरों की तलाश ये बात हो गयी शहरों की पर ग्रामीण वृद्धों का जीवन शहरी वृद्धों के मुकाबले स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में और ज्यादा मुश्किल है वहीं अकेलापन तो रहता ही है |बेटे बेटियां बेहतर जीवन की आस में शहर चले गए और वहीं के होकर रह गयें गाँव में माता पिता से रस्मी तौर पर तीज त्यौहार पर मुलाक़ात होती हैं कुछ ज्यादा ही उनकी फ़िक्र हुई थी उम्र के इस पड़ाव पर एक ही इलाज है उन वृद्धों को उनकी जड़ों से काट कर अपने साथ ले चलना |ये इलाज मर्ज़ को कम नहीं करता बल्कि और बढ़ा देता है |जड़ से कटे वृद्ध जब शहर पहुँचते हैं तो वहां वो दुबारा अपनी जड़ें जमा ही नहीं पाते औपचारिक सामजिकता के नाम पर बस अपने हमउम्र के लोगों से दुआ सलाम तक का ही साथ रहता है | ऐसे में उनका अकेलापन और बढ़ जाता है |इंटरनेट की आदी होती  यह पीढी दुनिया जहाँ की खबर सोशल नेटवर्किंग साईट्स लेती है पर घर में बूढ़े माँ बाप को सिर्फ अपने साथ रखकर वो खुश हो लेते हैं कि वह उनका पूरा ख्याल रख रहे हैं पर उम्र के इस मुकाम पर उन्हें बच्चों के साथ की जरुरत होती है पर बच्चे अपनी सामाजिकता में व्यस्त रहते हैं उन्हें लगता है कि उनकी भौतिक जरूरतों को पूरा कर वो उनका ख्याल रख रहे हैं पर हकीकत में वृद्ध जन यादों और अकेलेपन के भंवर में खो रहे होते हैं | महत्वपूर्ण ये है कि बुढ़ापे में विस्थापन एक गंभीर मनोवैज्ञानिक समस्या है जिसको नजरंदाज नहीं किया जा सकता है मनुष्य यूँ ही एक सामाजिक प्राणी नहीं है पर सामाजिकता बनाने और निभाने की एक उम्र होती है| समस्या का एक पक्ष सरकार का भी है चूँकि बूढ़े लोग अर्थव्यवस्था में कोई योगदान नहीं देते इस तरह वे अर्थव्यवस्था पर बोझ ही रहते हैं तो सरकारी योजनाओं का रुख बूढ़े लोगों के लिए कुछ खास लचीला नहीं होता |सरकारों का सारा ध्यान युवाओं पर केन्द्रित रहता है क्योंकि वे लोग अर्थव्यवस्था में सक्रिय योगदान दे रहे होते हैं |9 अगस्त 2010 को भारत सरकार ने गैर-संगठित क्षेत्र के कामगारों तथा विशेष रूप से कमजोर वर्गों सहित समाज के सभी वर्गों को वृद्धावस्था सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए नई पेंशन योजना को मंजूरी दी और उसके बाद यह योजना पूरे देश में स्वावलंबन योजना से लागू की गई। इस योजना के तहत गैर-संगठित क्षेत्र के कामगारों को अपनी वृद्धावस्था के लिए स्वेच्छा से बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस योजना में केंद्र सरकार लाभार्थियों के एनएफएस खाते में प्रति वर्ष  1000 का योगदान करती है। सरकार ने राष्ट्रीय वृधावस्था पेंशन योजना जरुर शुरू की है पर यह उस भावनात्मक खालीपन को भरने के लिए अपर्याप्त है जो उन्हें अकेलेपन से मिलती है |विकास और आंकड़ों की बाजीगरी में बूढ़े लोगों का दावा कमजोर पड़ जाता है |विकास की इस दौड़ में अगर हमारी जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा यूँ ही बिसरा दिया जा रहा है तो ये यह प्रवृति एक बिखरे हुए समाज का निर्माण करेगी |जिन्दगी की शाम में अगर जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा अकेलेपन से गुजर रहा है तो यह हमारे समाज के लिए शोचनीय स्थिति है क्योंकि इस स्थिति से आज नहीं तो कल सभी को दो चार होना है |
राष्ट्रीय सहारा में 17/11/15 को प्रकाशित लेख 

Friday, October 9, 2015

मानसिक स्वास्थ्य का निदान कब !

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत छत्तीस प्रतिशत की अवसाद दर के साथ दुनिया के सर्वाधिक  अवसाद ग्रस्त देशों में से एक है मतलब ये कि भारत में मानसिक अवसाद से पीड़ित लोगों की जनसँख्या लगातार बढ़ रही है |मानव संसाधन के लिहाज से ऐसे आंकड़े किसी भी देश के लिए अच्छे नहीं कहे जायेंगे जहाँ हर चार में से एक महिला और दस में से एक पुरुष इस रोग से पीड़ित हों | 
समाज शास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो यह प्रव्रत्ति हमारे सामाजिक ताने बाने के बिखरने की ओर इशारा कर रही है|बढ़ता शहरीकरण और एकल परिवारों की बढ़ती संख्या लोगों में अकेलापन बढ़ा रहा है और सम्बन्धों की डोर कमजोर हो रही है|रिश्ते छिन्न भिन्न हो रहे हैं तेजी से  बदलती दुनिया में विकास के मायने सिर्फ आर्थिक विकास से ही मापे जाते हैं यानि आर्थिक विकास ही वो पैमाना है जिससे व्यक्ति की सफलता का आंकलन किया जाता है जबकि सामाजिक  पक्ष को एकदम से अनदेखा किया जा रहा हैशहरों में संयुक्त परिवार इतिहास हैं जहाँ लोग अपने सुख दुःख बाँट लिया करते थे और छतों का तो वजूद ही ख़त्म होता जा रहा हैफ़्लैट संस्कृति अपने साथ अपने तरह की समस्याएं लाई हैं जिसमें अकेलापन महसूस करना प्रमुख है |
इसका निदान लोग अधिक व्यस्ततता में खोज रहे हैं नतीजा अधिक काम करना ,कम सोना और टेक्नोलॉजी पर बढ़ती निर्भरता सोशल नेटवर्किंग पर लोगों की बढ़ती भीड़ और सेल्फी खींचने की सनक इसी संक्रमण की निशानी है जहाँ हम की बजाय मैं पर ज्यादा जोर दिया जाता है | आर्थिक विकास मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर किया जा रहा है |
मानसिक स्वास्थ्य कभी भी लोगों की प्राथमिकता में नहीं रहा है |व्यक्ति या तो पागल होता है या फिर ठीक बीच की कोई अवस्था है ही नहीं है |इस बीमारी के लक्षण भी  ऐसे नहीं है जिनसे इसे आसानी से पहचाना जा सके आमतौर पर इनके लक्षणों को व्यक्ति के मूड से जोड़कर देखा जाता है|अवसाद के लक्षणों में हर चीज को लेकर नकारात्मक रवैया ,उदासी और निराशा जैसी भावना,चिड़ चिड़ापनभीड़ में भी अकेलापन महसूस करना और जीवन के प्रति उत्साह में कमी आना हैआमतौर पर यह ऐसे लक्षण नहीं है जिनसे लोगों को इस बात का एहसास हो कि वे अवसाद की गिरफ्त  में आ रहे हैंदुसरी समस्या ज्यादातर भारतीय एक मनोचिकित्सक के पास मशविरा लेने जाने में आज भी हिचकते हैं उन्हें लगता है कि वे पागल घोषित कर दिए जायेंगे इस परिपाटी को तोडना एक बड़ी चुनौती है |जिससे पूरा भारतीय समाज जूझ रहा है |उदारीकरण के बाद देश की सामाजिक स्थिति में खासे बदलाव हुए हैं पर हमारी सोच उस हिसाब से नहीं बदली है |अपने बारे में बात करना आज भी सामजिक रूप से वर्जना की श्रेणी में आता है ऐसे में अवसाद का शिकार व्यक्ति अपनी बात खुलकर किसी से कह ही नहीं पाता और अपने में ही घुटता रहता है |एक आम भारतीय को ये पता ही नहीं होता कि वह किसी मानसिक बीमारी से जूझ रहा है और इलाज की सख्त जरुरत है | |इस स्थिति में अवसाद बढ़ता ही रहता है जबकि समय रहते अगर इन मुद्दों पर गौर कर लिया जाए तो स्थिति को गंभीर होने से बचाया जा सकता है |तथ्य यह भी है कि देश शारीरिक स्वास्थ्य के कई पैमाने पर विकसित देशों के मुकाबले बहुत पीछे है और शायद यही कारण है कि देश की सरकारें भी मानसिक स्वाथ्य के मुद्दे को अपनी प्राथमिकता में नहीं रखतीं |
देश में कोई स्वीकृत मानसिक स्वास्थय  नीति नहीं है और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधयेक अभी संसद में लंबित है जिसमें ऐसे रोगियों की देखभाल और उनसे सम्बन्धित अधिकारों का प्रावधान है | रोग की पहचान हो चुकी है भारत इसका निदान कैसे करेगा इसका फैसला होना अभी बाकी है |
प्रभात खबर में 09/10/15 को प्रकाशित लेख 

Monday, October 5, 2015

फरेबी विज्ञापनों का 'नेट '

नया मीडिया अपना कारोबार व इश्तिहार भी बढ़ा रहा है।इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीअब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है।इंटरनेट शुरुवात में किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह एक ऐसा आविष्कार बनेगा जिससे मानव सभ्यता का चेहरा हमेशा के लिए बदल जाएगा आग और पहिया के बाद इंटरनेट ही वह क्रांतिकारी कारक जिससे मानव सभ्यता के विकास को चमत्कारिक गति मिली|इंटरनेट के विस्तार के साथ ही इसका व्यवसायिक पक्ष भी विकसित होना शुरू हो गया|प्रारंभ में इसका विस्तार विकसित देशों के पक्ष में ज्यादा पर जैसे जैसे तकनीक विकास होता गया इंटरनेट ने विकासशील देशों की और रुख करना शुरू किया और नयी नयी सेवाएँ इससे जुडती चली गयीं  | इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन और आईएमआरबी इंटरनेशनल के एक संयुक्त शोध के अनुसार, मार्च 2015 में भारत में ऑनलाइन विज्ञापन का बाजार 3,575 करोड़ रुपये का हो चुका है, जो 2014 के आंकड़े से करीब 30 प्रतिशत ज्यादा है। ऑनलाइन विज्ञापन की इस बढ़त में भारत में स्मार्ट फोन की बढ़ती संख्या का बड़ा योगदान है। लेकिन विज्ञापनों का यह बढ़ता बाजार अपने साथ समस्याएं भी ला रहा है। भारत जैसे देश में यह समस्या ज्यादा गंभीर इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां इंटरनेट का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है, मगर नेट जागरूकता की खासी कमी है। भारत में इंटरनेट के ज्यादातर प्रयोगकर्ताओं के लिए यह एक नई चीज है और वे कुछ चालाक विज्ञापनदाताओं की चाल का शिकार भी बन जाते हैं।भारत में विज्ञापनों का नियमन करने वाले संगठन भारतीय विज्ञापन मानक परिषदयानी एएससीआई ने भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ शिकायत करने के लिए बाकायदा एक व्यवस्था बना रखी है। लेकिन इंटरनेट अन्य विज्ञापन माध्यमों जैसा नहीं है। इंटरनेट के विज्ञापनों पर नजर रखना कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण काम हैक्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि भ्रामक विज्ञापन का शिकार बनने वाला भारत के किसी शहर में होजबकि विज्ञापनदाता सात समंुदर पार किसी दूसरे देश में। प्रिंट माध्यम के लिए तो इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी जैसी संस्था हैजो विज्ञापन एजेंसी को मान्यता देती है और किसी शिकायत पर वह मान्यता खत्म भी कर सकती है।वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं। इसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24मिनट।इस वक्त भारत में 97.8 करोड़ मोबाइल और 14 करोड़ स्मार्टफोन कनेक्शन हैं,जिनमें से 24.3 करोड़  इंटरनेट पर सक्रिय हैं और 11.8 करोड़ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। इस बीच टेलीकॉम कंपनी एरिक्सन ने अपने एक शोध के नतीजे प्रकाशित किए हैंजो काफी दिलचस्प हैं। इससे पता चलता है कि स्मार्टफोन पर समय बिताने में भारतीय पूरी दुनिया में सबसे आगे हैं। एक औसत भारतीय स्मार्टफोन प्रयोगकर्ता रोजाना तीन घंटा 18 मिनट इसका इस्तेमाल करता है। इस समय का एक तिहाई हिस्सा विभिन्न तरह के एप के इस्तेमाल में बीतता है। एप इस्तेमाल में बिताया जाने वाला समय पिछले दो साल की तुलना में 63फीसदी बढ़ा है। स्मार्टफोन का प्रयोग सिर्फ चैटिंग एप या सोशल नेटवर्किंग के इस्तेमाल तक सीमित नहीं हैलोग ऑनलाइन शॉपिंग से लेकर तरह-तरह के व्यावसायिक कार्यों को स्मार्टफोन से निपटा रहे हैं।वैश्विक  परामर्श संस्था मैकिन्सी कम्पनी का एक नया अध्ययन बताता है कि इंटरनेट  साल 2015 तक  भारत की जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद )में १०० बिलियन डॉलर का योगदान देगा जो कि वर्ष2011 के 30 बिलियन डॉलर के योगदान से तीन गुने से भी ज्यादा होगा अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा और देश की कुल जनसंख्या का 28 प्रतिशत इंटरनेट से जुड़ा होगा जो चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा जनसँख्या समूह होगा |निकट भविष्य में रेडियोटीवी और समाचार-पत्रों की विज्ञापनों से होने वाली आय में कमी होगीक्योंकि ये माध्यम एकतरफा हैं। मोबाइल के मुकाबले इन माध्यमों पर विज्ञापनों का रिटर्न ऑफ इन्वेस्टमेंट (आरओआई) कम है। मोबाइल आपको जानता हैउसे पता है कि आप क्या देखना चाहते हैं और क्या नहीं देखना चाहते हैं। मोबाइल फोन के इस्तेमाल से जुड़ा एक दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या में कोई खास अंतर नहीं है। मोबाइल के जरिये अब बेहद कम खर्च पर देश के निचले तबके तक पहुंचा जा सकता है।मोबाइल मार्केटिंग एसोसिएशन के अनुसार,भारत में वित्तीय वर्ष 2013 में मोबाइल विज्ञापन 60 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। वैश्विक परिदृश्य में शोध संस्था ई मार्केटियर के अनुसारमोबाइल विज्ञापनों से होने वाली आय में 103 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। साल 2014 की पहली तिमाही में इंटरनेट विज्ञापनों पर व्यय की गई कुल राशि का 25 प्रतिशत मोबाइल विज्ञापनों पर किया गया। इसमें बड़ी भूमिका फ्री मोबाइल ऐप निभा रही हैंजिनके साथ विज्ञापन भी आते हैं। इस बात ने विज्ञापनदाताओं का भी ध्यान बहुत तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया है। इस समय भारत में दिए जाने वाले कुल मोबाइल विज्ञापनों का लगभग 60प्रतिशत टेक्स्ट के रूप में होता है। आधुनिक होते मोबाइल फोन के साथ अब वीडियो और अन्य उन्नत प्रकार के विज्ञापन भी चलन में आने लगे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसारमार्च 2015 तक भारत में मोबाइल के माध्यम से इंटरनेट का उपभोग करने वालों की संख्या 16 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी।मोबाइल फोन एक अत्यंत ही व्यक्तिगत माध्यम है और इसीलिए इसके माध्यम से इसको उपयोग करने वाले के बारे में सटीक जानकारी एकत्रित की जा सकती है।
                                  इंटरनेट के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।दूसरा पहलू डाटा के उपभोग से जुड़ा है। इंटरनेट पर जब भी कोई काम किया जाता है, तो कुछ डाटा खर्च होता है, जिसका शुल्क इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियां वसूलती हैं, पर किसी-किसी  वेबसाइट पर जाते ही उपभोक्ता से बगैर पूछे अचानक कोई वीडियो चलने लगता है, तो काम भी बाधित होता है और उपभोक्ता का कुछ अतिरिक्त डाटा भी खर्च होता है, जिसके पैसे तो उससे वसूल लिए जाते हैं, पर उस विज्ञापन को देखने या सुनाने के लिए उससे अनुमति नहीं ली जाती है। यू-ट्यूब के वीडियो में शुरुआती कुछ सेकंड आपको मजबूरी में देखने पड़ते हैं, जिसमें आपका अतिरिक्त डाटा खर्च होगा। निजता का मामला भी इसी से जुड़ा मुद्दा है। हम क्या करते हैं इंटरनेट पर, क्या खोजते हैं, इन सबकी जानकारी के हिसाब से हमें विज्ञापन दिखाए जाते हैं। अमेरिका की चर्चित संस्था नेटवर्क एडवर्टाइजिंग इनिशिएटिव (एनआईए) ने ऐसे मामलों के लिए भी संहिता बनाकर कंपनियों को निर्देश दिया है कि वे उपभोक्ताओं को ऐसे विज्ञापनों को न देखने का विकल्प भी उपलब्ध कराएं। निजता की रक्षा के लिए भी यह जरूरी है। भारत में इंटरनेट का बाजार अभी आकार ले रहा है, इसलिए सतर्कता बरतने का यह सबसे सही समय है।
राष्ट्रीय सहारा में 05/10/15 को प्रकाशित 

Sunday, October 4, 2015

इंटरनेट ने बदल दी मानव सभ्यता की दुनिया

इंटरनेट शुरुवात में किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह एक ऐसा आविष्कार बनेगा जिससे मानव सभ्यता का चेहरा हमेशा के लिए बदल जाएगा | आग और पहिया के बाद इंटरनेट ही वह क्रांतिकारी कारक जिससे मानव सभ्यता के विकास को चमत्कारिक गति मिली|इंटरनेट के विस्तार के साथ ही इसका व्यवसायिक पक्ष भी विकसित होना शुरू हो गया|प्रारंभ में इसका विस्तार विकसित देशों के पक्ष में ज्यादा पर जैसे जैसे तकनीक विकास होता गया इंटरनेट ने विकासशील देशों की और रुख करना शुरू किया और नयी नयी सेवाएँ इससे जुडती चली गयीं  |
इंटरनेट एंड मोबाईल एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया की नयी रिपोर्ट के मुताबिक क्षेत्रीय भाषाओँ के प्रयोगकर्ता सैंतालीस प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं जिनकी संख्या संख्या साल 2015 के अंत तक 127 मिलीयन हो जाने  की उम्मीद है | भारत सही मायने में कन्वर्जेंस की अवधारणा को साकार होते हुए देख रहा हैजिसका असर तकनीक के हर क्षेत्र में दिख रहा है। इंटरनेट मुख्यता कंप्यूटर आधारित तकनीक रही है पर स्मार्ट फोन के आगमन के साथ ही यह धारणा तेजी से ख़त्म होने लग गयी और जिस तेजी से मोबाईल पर इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है वह साफ़ इशारा कर रहा है की भविष्य में इंटरनेट आधारित सेवाएँ कंप्यूटर नहीं बल्कि मोबाईल को ध्यान में रखकर उपलब्ध कराई जायेंगी|हिंदी को शामिल करते हुए इस समय इंटरनेट की दुनिया बंगाली ,तमिलकन्नड़ ,मराठी ,ड़िया , गुजराती ,मलयालम ,पंजाबीसंस्कृत,  उर्दू  और तेलुगु जैसी भारतीय भाषाओं में काम करने की सुविधा देती है आज से दस वर्ष पूर्व ऐसा सोचना भी गलत माना जा सकता था पर इस अन्वेषण के पीछे भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं के बड़े आकार का दबाव काम कर रहा था भारत जैसे देश में यह बड़ा अवसर है जहाँ मोबाईल इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या विश्व में अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा है । इंटरनेट  हमारी जिंदगी को सरल बनाता है और ऐसा करने में गूगल का बहुत बड़ा योगदान है। आज एक किसान भी सभी नवीनतम तकनीकों को अपना रहे हैंऔर उन्हें सीख भी  रहे हैंलेकिन इन तकनीकों को उनके लिए अनुकूलित बनाना जरूरी है जिसमें भाषा का व कंटेंट का बहुत अहम मुद्दा है।इसलिए भारत में हिन्दी और भारतीय भाषाओं  में इंटरनेट के विस्तार पर बल दिया जा रहा है 
गूगल के आंकड़ों के मुताबिकअभी देश में अंग्रेजी भाषा समझने वालों की संख्या 19.8 करोड़ हैऔर इसमें से ज्यादातर लोग इंटरनेट से जुड़े हुए हैं। तथ्य यह भी है कि भारत में इंटरनेट बाजार का विस्तार इसलिए ठहर-सा गया हैक्योंकि सामग्रियां अंग्रेजी में हैं। आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर 55.8 प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में हैजबकि दुनिया की पांच प्रतिशत से कम आबादी अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती हैऔर दुनिया के मात्र 21 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी की समझ रखते हैं। इसके बरक्स अरबी या हिंदी जैसी भाषाओं मेंजो दुनिया में बड़े पैमाने पर बोली जाती हैंइंटरनेट सामग्री क्रमशः 0.8 और 0.1 प्रतिशत ही उपलब्ध है। बीते कुछ वर्षों में इंटरनेट और विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइट्स जिस तरह लोगों की अभिव्यक्तिआशाओं और अपेक्षाओं का माध्यम बनकर उभरी हैंवह उल्लेखनीय जरूर हैमगर भारत की भाषाओं में जैसी विविधता हैवह इंटरनेट में नहीं दिखती।आज 400 मिलियन भारतीय अंग्रेजी भाषा की बजाय हिंदी भाषा की ज्यादा समझ रखते हैं लिहाजा भारत में इंटरनेट को तभी गति दी जा सकती हैजब इसकी अधिकतर सामग्री हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हो।आज जानकारी का उत्तम स्रोत कहे जाने वाले प्रोजेक्ट विकीपिडिया पर तकरीबन पेज 22000 हिंदी भाषा में हैं ताकि भारतीय यूजर्स इसका उपयोग कर सकें। भारत में लोगों को इंटरनेट पर लाने का सबसे अच्छा तरीका है उनकी पसंद का कंटेंट बनाना यानि कि भारतीय भाषाओं को लाना|वैश्विक परामर्श संस्था मैकेंजी का एक नया अध्ययन बताता है कि 2015 तक भारत के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में इंटरनेट 100 अरब डॉलर का योगदान देगाजो 2011 के 30 अरब डॉलर के योगदान के तीन गुने से भी ज्यादा होगा। अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा। इसमें देश के ग्रामीण इलाकों की बड़ी भूमिका होगी। मगर इंटरनेट उपभोक्ताओं की यह रफ्तार तभी बरकरार रहेगीजब इंटरनेट सर्च और सुगम बनेगा। यानी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर बढ़ावा देना होगातभी गैर अंग्रेजी भाषी लोग इंटरनेट से ज्यादा जुड़ेंगे।गूगल पिछले 14 सालों सेसर्च(खोज ) पर काम कर रहा है। यह सर्च भविष्य में सबसे ज्यादा मोबाइल के माध्यम से किया जाएगा। विश्व भर में लोग अब ज्यादातर मोबाइल के माध्यम से इंटरनेट चला रहे हैं। बढते स्मार्ट फोन के प्रयोग ने सर्च को और ज्यादा स्थानीयकृत किया है वास्तव में खोज ग्लोबल से लोकल हो रही है जिसका आधार भारत में तेजी से बढते मोबाईल इंटरनेट प्रयोगकर्ता हैं जो अपनी खोज में स्थानीय चीजों को ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं|
ये रुझान दर्शाते हैं कि भारत नेट युग की अगली पीढ़ी में प्रवेश करने वाला है जहाँ सर्च इंजन भारत की स्थानीयता को ध्यान में रखकर खोज प्रोग्राम विकसित करेंगे और गूगल ने स्पीच रेकग्नीशन टेक्नीक पर आधारित वायस सर्च की शुरुवात की है जो भारत में सर्च के पूरे परिद्रश्य को बदल देगी|स्पीच रेकग्नीशन टेक्नीक लोगों को इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए किसी भाषा को जानने की अनिवार्यता खत्म कर देगी वहीं बढते स्मार्ट फोन हर हाथ में इंटरनेट पहले ही पहुंचा रहे हैं|

हिन्दुस्तान युवा में 04/10/15 को प्रकाशित लेख 

Thursday, October 1, 2015

हमारे गांव क्यों पिछड रहे हैं

   
  शिक्षा एक ऐसा पैमाना है जिससे कहीं हुए विकास को समझा जा सकता है ,शिक्षा जहाँ जागरूकता लाती है वहीं मानव संसाधन को भी विकसित करती है |इस मायने में शिक्षा की हालत गाँवों में ज्यादा खराब है |वैसे गाँव की चिंता सबको है आखिर भारत गाँवों का देश है पर क्या सचमुच ? गाँव शहर  जा रहा है और शहर का बाजार गाँव में नहीं  आ रहा है नतीजा गाँव की दशा आज भी वैसी है जैसी आज से चालीस- पचास साल पहले हुआ करती थी सच ये है कि भारत के गाँव आज एक दोराहे पर खड़े हैं एक तरफ शहरों की चकाचौंध दूसरी तरफ अपनी मौलिकता को बचाए रखने की जदोजहदपरिणामस्वरुप  भारत में ग्रामीण अनपढ़ लोगों की संख्या घटने की बजाय बढ़ रही है|पिछले 2011 के जनगणना के आंकड़ों के मुकाबले भारतीय ग्रामीण निरक्षरों की संख्या में 8.6 करोड़ की और बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है|ये आंकड़े सामाजिक आर्थिक और जातीय जनगणना (सोशियो इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस- एसईसीसी) ने जुटाए हैं|महत्वपूर्ण  है कि एसईसीसी ने 2011 में 31.57 करोड़ ग्रामीण भारतीयों की निरक्षर के रूप में गिनती की थी| उस समय यह संख्या दुनिया के किसी भी देश के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा थी|ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक़, 2011 में निरक्षर भारतीयों की संख्या 32.23 प्रतिशत थी जबकि अब उनकी संख्या बढ़कर 35.73 प्रतिशत हो गई है|साक्षरों के मामले में राजस्थान की स्थिति सबसे बुरी है यहां 47.58 (2.58 करोड़) लोग निरक्षर हैं|इसके बाद नंबर आता है मध्यप्रदेश का जहां निरक्षर आबादी की संख्या 44.19 या 2.28 करोड़ है.बिहार में निरक्षरों की संख्या कुल आबादी का 43.85 प्रतिशत (4.29 करोड़) और तेलंगाना में 40.42 प्रतिशत (95 लाख) है|गाँवों में निरक्षरता के बढ़ने के कई आयाम हैंगाँव की पहचान उसके खेत और खलिहानों और स्वच्छ पर्यावरण से है पर खेत अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं भारत के विकास मोडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह गाँवों को आत्मनिर्भर बनाये रखते हुए उनकी विशिष्टता को बचा पाने मे असमर्थ रहा है यहाँ विकास का मतलब गाँवों को आत्मनिर्भर न बना कर उनका शहरीकरण कर देना भर रहा है|विकास की इस आपाधापी में सबसे बड़ा नुक्सान खेती को हुआ है |
                      भारत के गाँव हरितक्रांति और वैश्वीकरण से मिले अवसरों के बावजूद खेती को एक सम्मानजनक व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं कर पाए|इस धारणा का परिणाम यह हुआ कि छोटी जोतों में उधमशीलता और नवाचारी प्रयोगों के लिए कोई जगह नहीं बची और खेती एक बोरिंग प्रोफेशन का हिस्सा बन भर रह गयी|गाँव खाली होते गए और शहर भरते गए|इस तथ्य को समझने के लिए किसी शोध को उद्घृत करने की जरुरत नहीं है गाँव में वही युवा बचे हैं जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं हैदूसरा ये मान लिया गया कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है |शिक्षा रोजगार परक हो चली है और गाँवों में रोजगार है नहीं नतीजा गाँव में शिक्षा की बुरी हालत|
                        सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून तो लागू कर दिया है| लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी बात यानि ग्रामीण सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने पर अब तक न तो केंद्र ने ध्यान दिया है और न ही राज्य सरकारों ने| ग्रामीण इलाकों में स्थित ऐसे स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं है| जो मौलिक सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमी से जूझ रहे हैं| इन स्कूलों में शिक्षकों की तादाद एक तो जरूरत के मुकाबले बहुत कम है और जो हैं भी वो पूर्णता प्रशिक्षित  नहीं है| ज्यादातर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों और छात्रों का अनुपात बहुत ऊंचा है. कई स्कूलों में 50 छात्रों पर एक शिक्षक है| यही नहींसरकारी स्कूलों में एक ही शिक्षक विज्ञान और गणित से लेकर इतिहास और भूगोल तक पढ़ाता है. इससे वहां पठन-पाठन के स्तर का अंदाजा  लगाना मुश्किल नहीं है| जहाँ स्कूलों में न तो शौचालय है और न ही खेल का मैदान

अमर उजाला कॉम्पेक्ट 01/10/15 को प्रकाशित 

Monday, September 28, 2015

डिजिटल लत से बढ़ता मनोरोग का खतरा

डिजिटल इंडिया के बढ़ते कदमों के साथ यह चर्चा भी देश भर में आम है कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है। कहा जाता है कि मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही है, जो न खाया जा सकता है, न पिया जा सकता है, और न ही सूंघा जा सकता है। चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिक, इंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है। वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं। इसके अनुसार, एक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनट, सोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24 मिनट। इसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमो, यानी फियर ऑफ मिसिंग आउट, सोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैड, यानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डर। इसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता है। इस वक्त भारत में 97.8 करोड़ मोबाइल और 14 करोड़ स्मार्टफोन कनेक्शन हैं, जिनमें से 24.3 करोड़  इंटरनेट पर सक्रिय हैं और 11.8 करोड़ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। 
लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है।नतीजतन, हमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती है, जहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता है। भारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही है, और उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं। कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैं, जो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैं। वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है। वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैं, जिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलता, तो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है। इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए। 


हिंदुस्तान में 28/09/15 को प्रकाशित 

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