Sunday, January 30, 2011

जनसंचार माध्यमों के मंच पर लोक कलाएं


भारत लोक कला और संगीत के हिसाब से एक सम्रद्ध देश है पर नए मीडिया रेडियो टीवी और फ़िल्मों के आ जाने से लोगों का इनकी ओर रुझान कम हुआ अब समस्या ये है कि इन लोककलाओ और गीतों को संरंक्षित कैसे किया जाए हर काम के सरकारी मदद का इन्तिज़ार कोई सार्थक विकल्प नहीं हो सकता .हमारी फिल्मों में लोक गीतों का इस्तेमाल अक्सर होता आया है और इसकी एक लंबी सूची है 1931-33 से ही कई अनजान गीतकार लोकगीतों पर आधारित गाने फिल्मों  के लिए लिख रहे थे जैसे सांची कहो मोसे बतियांकहां रहे सारी रतियां’  (फरेबीजाल-1931) इसी परंपरा के अन्य कुछ लोकप्रिय गीतों में पान खाय सैयां हमारो , (तीसरी कसम ) मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है(लावारिस ) , रंग बरसे भीगे चुनरवाली (सिलसिला ) ये वो दौर था जब एस डी बर्मन , नौशादजयदेवसलिल चौधरीओ.पी. नय्यरकल्याणजी आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे संगीतकार लोकधुनों से फिल्मी संगीत को विविधता देकर उसे नए आयाम दे रहे थे नब्बे के दशक में ऐसे प्रयोग कम हुए हाल ही पर एक बार फिर लोक गीतों और धुनों को फिल्मों में लेने का दौर लौटा और लोगों के सर चढ़कर बोला .
मुन्नी बदनाम का जादू अभी लोगों के सर से उतरा ही नहीं था कि शीला की जवानी ने लोगों को झूमा डाला अभी इस पर बहस चल ही रही थी कि शीला और मुन्नी में कौन ज्यादा प्रसिद्द हुआ है कि टिंकू जिया (यमला पागल दीवाना ) ने लोगों के पैरों को थिरकाने पर मजबूर कर दिया पर इसी के साथ शुरू हो गयी नयी बहस समाज के एक धड़े ने इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया और इस पर अश्लील होने का ठप्पा लगा दिया .ऐसा क्यों ? फिल्मों में लोक संगीत तो इसके शुरुवाती दौर से ही प्रयोग  होते आ रहे हैं . उत्तर भारत में शादियों में गाये जाने वाली मंगल गीतों में गालियाँ गाई जाती हैं .इस बात का कोई भी बुरा नहीं मानता ये भी हमारी लोक संस्कृति का एक हिस्सा है जिसमे गालियों को भी एक परंपरा के रूप में मान्यता दी गयी है कालांतर में ऐसे कई  लोक गीत  नौटंकियों ,नाटक से होते हुए फिल्मों में पहुंचे एक बानगी देखिये
अरे जा रे हट नटखट न छेड़ मेरा घुंघटपलट के दूंगी आज तोहे गारी रेमुझे समझो न तुम भोली-भाली रे तो आखिर अश्ल्लीता का हवाला देकर इतने हो हल्ला क्यों मचाया जा रहा है .अगर बोलीवुड के पन्नों को पलटा जाए तो पुरानी यादों में हमें कई फिल्मों और गानों का पता चलेगा जिसको लेकर समाज के सुचितावादियों ने सवाल खड़े किये राजकपूर एक बड़े नाम हैं जिनहोने नारी देह और लोक गीतों का खूबसूरती से प्रयोग किया .इन पुरानी फिल्मों में सोहर , कव्वाली और गज़ल जैसी न जाने कितनी विधाओं के दर्शन हो जायेंगे .हमें यह नहीं भूलना चाहिए  इस बहुसांस्कृतिक देश में जहां भी जाएं फ़िल्मी  गीतों ने नई संवेदना  पैदा करने और विभिन्न लोक संस्कृतियों से अवगत कराने का बड़ा काम किया है।
इस बारे में वरिष्ठ रंगकर्मी उर्मिल कुमार थपलियाल कहते हैं कि तब समाज बाजारू नहीं था फिल्मों में लोगों के साथ संवेदनाएं जुडी थी कहानी की मांग के अनुसार ऐसे गाने प्रयोग किये जाते थे अब तो लोकसंगीत के नामपर बजने वाले आइटम गीत तो दाल में छौंक की तरह परोसे जाते हैं कहानी की मांग होती ही नहीं  बस दर्शकों में उत्तेजना भरने के लिए तो इन पर बवाल होगा ही पर वो ये जोड़ना नहीं भूलते साहित्य या कला कभी अश्लील नहीं हो सकती .अश्लीलता के नाम पर होने वाले बवाल का कारण इनका फिल्मांकन भी है इस बारे में वरिष्ठ रंगकर्मी जीतेन्द्र मित्तल बताते हैं कि बीडी जलइले और लौंडा बदनाम हुआ गीत को समाज तब भी अश्लील ही मानता था पर फिल्मों में आने के कारण इन गीतों की पहुँच का दायरा बढ़ गया है इस लिए समस्या ज्यादा है .
तस्वीर का दूसरा रुख भी है वक्त के साथ गाने और समाज भी बदला है हाँ लोक गीत और संगीत के नाम पर आज जो गीत इस्तेमाल हो रहे हैं उनमे गति ज्यादा है और एक नए तरह के फ्युसन  के लक्षण भी दिखते हैं मैं हूँ न फिल्म में कव्वाली   एक नए रूप में लौटी वहीं कजरारे कजरारे ,और नमक इश्क का जैसे गीत एक सोंधी खुशबू लिए दिखते हैं जिसका लुत्फ़ शहर में पली वो पीढ़ी उठा सकती है जिसने गाँव सिर्फ फिल्मों में देखा है वहीं गाँव के लोग अपने गीतों को ग्लोबल बनते हुए देख रहे  हैं . हिन्दी सिनेमा में ऐसे हजारों गीत हैं जिसे लोकभाषा में जड़कर धुनों में पिरोया गया। याद करें-इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मोरा’ (पाकीजा), ‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया’ (तीसरी कसम) या फिर चप्पा-चप्पा चरखा चले’ (माचिस) राजस्थान का मोरनी बागां में हो या पंजाब हिमाचल का गिद्दा बारी बरसी खडंन गया सी जैसे लोक संगीत से आम भारतीय को  परिचय कराने का श्रेय फिल्मों को ही जाता है.
 अब ध्यान देने वाली बात ये है कि एक तरफ हम अपनी लोक कलाओं,संगीत  के खत्म होने के गम में ग़मगीन हो जाते हैं या फिर सरकारी मदद की आस के इन्तिज़ार में रहते हैं समय बदल रहा है लोक कलाएं तभी जिन्दा रह सकती हैं जब उनमें प्रयोग होते रहें और उनकी पहुँच का दायरा बढ़ता रहे और इसका एक रास्ता नवीन जनमाध्यमों से होकर जाता है फिर हर माध्यम की अपनी सीमायें और विशिष्टता होती है ये बात फिल्म माध्यम पर भी लागू होती है यहाँ ओडियेंस का दोहरा चरित्र भी उजागर होता है जहाँ उसे लोक संगीत  के नष्ट होने की चिंता तो है पर अगर उनमे प्रयोग हों तो उसे बर्दाश्त नहीं है पहले मनोरंजन का एक मात्र साधन लोक कलाएं ,संगीत थे पर अब उनमें हिस्सेदारी बटाने के लिए और भी माध्यम आ गए हैं जो ज्यादा प्रयोगधर्मी हैं ऐसे में लोकसंगीत और कला पर सिर्फ आंसू बहा कर उन्हें बचाया नहीं जा सकता है वैश्वीकरण के इस युग में जहाँ ओडियेंस और  उपभोक्ता में अंतर मिट रहा है अगर परम्परागत लोक माध्यमों को नवीन जन माध्यमों का सहारा मिल जाए तो तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी .

 दैनिक हिन्दुस्तान में ३० जनवरी को सम्पादकीय पेज पर छपा आलेख 

10 comments:

Saumitra verma said...

sir ye lekh aaj ke samaj ke liye bahut khass hai.....

आशीष said...

आदरणीय गुरु जी...मन में जो संशय था काफी हद तक खत्म हो गया..लेकिन गुरूजी एक बात समझ नही आ रही की.हम असभ्यता से सभ्यता की तरफ बढ़ रहे हैं.तो ऐसे में पुरानी परम्पराओं की दुहाई देकर अश्लीलता को बढ़ावा देना कितने हद तक सही है..........हालाँकि की समाज का नजरिया ‘रहा भी न जाये सहा भी न जाए’वाला है,मुन्नी और शीला जैसे गाने मनोरंजन के लिए तो बहुत बढ़िया हैं लेकिन इस बात पर गौर किया जाना चाहिए की जिन लोगों का ये नाम होगा उसकी मानसिक क्षती कितनी हुई होगी???.लोकसंगीतों में प्रयोग होना अपरिहार्य है लेकिन अगर यह प्रयोग मर्यादित हो तो बदली हुई तस्वीर...स्वस्थ मनोरंजन की मिशाल बनेगी.....इस बेहतरीन लेख के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद..... आपके अगले लेख का बेसब्री से इन्तजार है..

डॉ. मनोज मिश्र said...

सारगर्भित लेख.

Bhawna Tewari said...

soch bdlne mein waqt lgta hai...pr kabhi kabhi waqt soch badal deti hai...

Mukul said...

@सौमित्र , आशीष ,मनोज जी ,भावना आप सभी का शुक्रिया

AAGAZ.. said...

आज के समाज का चरित्र बड़ा ही दोहरा है.. हमे सब कुछ चाहिए.. जैसा कि आपने अपने एक लेख में लिखा था कि विकास के साथ-साथ हमे माँ के आँचल कि छाँव भी चाहिए.. महिलाओ के आगे बढने कि बात तो जोर शोर से करते हैं पर उसे पीछे धकेलने वाले भी यही लोग हैं.. लोक कलाओ को बचाना भी चाहते हैं पर बचाने के लिए किसी और का इंतजार करते दिखते हैं.. अपने घर में लोक गीतों का प्रयोग करने के बजाय मुन्नी और शीला चलाकर खुश होते हैं और चौराहे पर उनका विरोध करते नज़र आते हैं और नाकामी का ठीकरा फोड़ने के लिए सरकार तो है ही.

virendra kumar veer said...

sir abhi humare samaj ki mansikta badalane me time lagega. muni aur sheela jaise gano se uun logo ko bahut hi preshani hogi jinka naam munni ya sheela hoga. soch badalne me bahut time lagega.parntu mahilo ko age badhane ke liye in sab chejo se nepatne ke liye aage ana hi padega.
humra saj lokgeet aur lok kalao ko bahana bhi cahte hain aur munni aur sheela ko bhi lana cahte hain, is dohre samja me ye kaise sambhv ho sakta hai.

Chandni said...

bilkul sach kaha sirji,,,,,lok kalaye aajkal jansanchar ka maadhyam ban chuka hai.............

Chandni said...

bilkul sach kaha sirji,,,,,lok kalaye aajkal jansanchar ka maadhyam ban chuka hai.............

Unknown said...

sir jo log gavn se nahi jude hai wo in log geeto ka utna luft nahi utha pate jitna gav ke log uthate hain aap ne sach kahan hai sir aaj bhi humare gav ke aas paas ki shadiyon me lok geet me gali jaruru hoti hai aur usko sunne ka aanad hi kuch aur hota hai.. agar use kydney pe na le to.....

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