ये रीमिक्स का दौर है पर देश किस तरह भाषाई फ्यूजन से विकसित एक नयी भाषा का गवाह बन रहा है अखबारों ने हिंग्लिश को अपना लिया है और पिछले साल सरकार के राजभाषा विभाग ने एक आदेश जारी कर कहा “बदलते माहौल में कामकाजी हिंदी के रूप को भी हर शब्द का अनुवाद करने की बजाय वाक्य या उसके अंश के भाव को हिन्दी भाषा की शैली में लिखें ,अंगरेजी या दूसरी भाषाओं के आम इस्तेमाल में आने वाले शब्दों के कठिन हिन्दी शब्द बनाने की बजाय उन्हीं शब्दों को देवनागरी लिपि में लिख देना चाहिए” यह एक तरह की स्वीकारोक्ति ही है कि एक नयी भाषा हमारे सामने उभर ही नहीं रही बल्कि तेजी से विकसित भी हो रही है .यूनिवर्सिटी ऑफ वेल्स के भाषा विज्ञानी डेविड क्रिस्टल ने गणना कर बताया है कि दुनिया में हिंगलिश बोलने वाले जल्दी ही इंग्लिश बोलने वालों की संख्या से ज्यादा हो जायेंगे .ध्यान देने वाली बात ये है कि इस भाषा के विकास के लिए ना तो कोई दिवस मनाया गया और ना ही पखवाडा पर हिंग्लिश तेजी से फल फूल रही है इस भाषाई फ्यूसन के पीछे एक बड़ा कारक तकनीक का हमारे जीवन में हावी होना और देश में सूचना क्रांति का विकास है ना कि जैसा माना जाता है कि पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव. हिन्दी वक्त के साथ बदलती रही है और ये बदलाव सीधे सीधे हमारे जीवन में होने वाले बदलाव से जुड़ा रहा है हमारा आज का जीवन ज्यादा तकनीक पर निर्भर कर रहा है तभी तो देखिये प्रीपेड मोबाईल हो या टैक्सी, रीचार्ज, मिस्ड कॉल,इंटरनेट जैसे शब्द हमारे जीवन का हिस्सा बन गए .इंगलिश तकनीकी शब्दों के बहुत सारे उदाहरण हैं, जिन्होंने इस रास्ते को तय किया है इसकी शुरुवात 19वीं शताब्दी से हुई जब तकनीक ने हमारे जीवन में प्रवेश किया और सारी तकनीकी बदलाव पश्चिम के देन थे जैसे टेलीफोन, टेलीग्राम,टेलेक्स,भाषाई बदलाव की इस बयार को गति उदारीकरण के पश्चात हुई मीडिया क्रांति के बाद मिली जिसने बहुत से अंगरेजी शब्दों को लोकप्रिय बनाया भाषा मे बदलाव का दौर केबिल टेलीविजन के प्रायोजित कार्यक्रम के साथ शुरू हुआ.भारत के पहले सोप ऑपेरा हमलोग का प्रायोजक नेस्ले इंडिया था जिसने टू मिनट्स नूडल्स को घर घर में पहुंचा दिया जिसकी चरम परिणिति आज के रीयल्टी शो में हो रही है एक उल्लेखनीय तथ्य है यह भी विज्ञापन की अधिकारिक भाषा हिंग्लिश ही है इसीलिये हर एक दोस्त नहीं फ्रैंड जरूरी होता है .एफ एम् क्रांति ने रेडियो को भी हिंग्लिश से जोड़ दिया और प्रस्तुतकर्ता आर जे बन गया. इस चरम बदलाव के दौर में फिल्मों ने एक बड़े उत्प्रेरक का काम किया.पिछले साल आयी कुल हिंदी फिल्मों में से छप्पन के शीर्षक या तो इंग्लिश में थे या हिंग्लिश में 2009 में ये आंकड़ा इकतीस था और साल 2010 में यह चालीस पर पहुंचा और इसके बढ़ने का सिलसिला जारी है और यही गानों में हिंग्लिश का प्रयोग बहुतायत से जारी है एक बानगी “आँखें तो कमाल करती हैं पर्सनल से सवाल करती हैं” बंटी और बबली) जरा 'टशन' फिल्म का वो गाना याद कीजिए, 'वेरी हैप्पी इन माई हार्ट, दिल चांस मारे रे' 'तुम्हरे दिल के थिएटर मा दिल दीवाना बुकिंग एडवांस मांगे रे' तो आपके सामने सारी तस्वीर साफ हो जाएगी. 'आजकल गाने बोलचाल की भाषा में लिखे जाते हैं.अंग्रेज़ी शब्द “स्ट्रेस” (दबाव) और “टेंशन” (तनाव) बहुत अच्छी तरह से हिंदी में मिल चुके हैं. जैसे “टेंशन ना ले बहुत स्ट्रेस है माइंड में हो सकता है कि यह सलाह का एक छोटा सा अंश हो पर इसे हिंगलिश की चर्चा के दौरान दिमाग में रखना ज़रूरी है.भाषा एक बहती नदी है इसे बाँधा नहीं जा सकता और भाषा का विकास ऐसे ही होता आया है . हम कितने शब्द ऐसे बोलते हैं जो मूल रूप से हिंदी के नहीं हैं पर अब वो ऐसे अपना लिए गए हैं कि लगता है की वे हिंदी के ही शब्द हैं और यही तो हिंदी का कमाल है तो फिर क्यों न हिंदी की सफलता का जश्न मनाया जाए. तकनीक और मीडिया के सहारे ही सही हिंदी ग्लोबल तो हो रही है. बोल चाल कि हिंदी लिखने की हिंदी से अलग है और इसे एक नज़र से देखने कि गलती हमें नहीं करनी चाहिए जिसे आम तौर पर साहित्यकार करते रहते हैं,साहित्यिक हिंदी कभी भी बोलचाल की भाषा नहीं रही और इसी वजह से वो हिंदी को लेकर परेशान दिखते हैं. इससे लोगों को कभी परेशानी नहीं रही पर आज मीडिया के जबर्दस्त फैलाव ने उसकी भाषा को मुख सुख के अनुरूप बना दिया और समस्या यहीं शुरू हुई अंग्रेजी मीडिया जिन स्लैंग्स(मुहावरे ) का प्रयोग करती है वो अंगरेजी साहित्य का हिस्सा नहीं माने जाते पर इसका कोई किस्सा नहीं बना भाषा और बोलियां समय सापेक्ष होती हैं.बोलियों में परिवर्तन जल्दी होता है ,भाषा में थोडा देर से जनमाध्यमों में खासकर समाचार पत्रों में आजकल लिखने की नहीं बोलने की भाषा लिखी जा रही है और इससे कुछ अवसर भी मिल रहे हैं तो भाषाई र्रोप में चुनौतियाँ भी बड़ी हैं.पतरकारिता को कभी भी साहित्य का हिस्सा नहीं माना गया पर पत्रकारिता में साहित्यकारों का स्वागत जरुर किया जाता रहा जिससे पाठकों के स्टार पर क्लास और मॉस के अंतर को कम किया जा सके.धर्मवीर भारती और अज्ञेय जैसे साहित्यकारों का पत्रकारिता में आना इसी प्रयोग की एक कड़ी भर था हाँ यह बात अलग है कि आजकल ऐसे प्रयोग नहीं किये जा रहे हैं.बाजार अवसर भी लाता है और चुनैतियाँ भी बात वास्तव में परेशानी कि नहीं है. हिंदी वैश्विक फलक पर पोषित हो रही है और नए आयाम गढ़ रही है. अगर ऐसा न होता तो आखिर फोनेटिक कि विधा क्यों इजाद होती? वेब पर हिंदी में जानकारियां क्यों उपलब्ध कराइ जातीं? आज जब बात होती है कि आखिर हिंदी में अंग्रेजी के शब्द क्यों प्रयोग हो रहे हैं? हो हल्ला जोरों पर है? इससे हिंदी के खत्म होने का डर क्यों सता रहा है? क्या इससे पहले उर्दू, फारसी आदि शब्दों का प्रयोग नहीं होता रहा है? हम यही तो कहते हैं-“ये हमारी किस्मत में नहीं था” क्या इसपर किसी ने ऐतराज किया? नहीं न? गौर से देखिये यहाँ किस्मत शब्द उर्दू ही तो है. क्या इससे हिंदी को कोई नुकसान हुआ? हकीकत में ये नुकसान नहीं उसकी श्रीव्रधि है.हिंदी साहित्य में आज भी अच्छी कहानियां लिखी जा रही हैं. देवेन्द्र को पढ़िए, काशीनाथ भी अभी लिख ही रहे हैं. शिवमूर्ति कि रचनाओं में गाँव जिन्दा है. सारा राय कि कहानियों में गहराई है. ये जो हिन्दी की भाषा को लेकर चिंता है ये दरअसल अखबारी भाषा को लेकर है. वहां अंग्रेजी के शब्दों की ऐसी चाशनी परोसी जाती है कि साहित्यकारों को उससे चिढ सी होने लगी है और वो हिंदी को लेकर परेशान हो उठे हैं. बात मार्के कि यह है कि अखबार साहित्य का हिस्सा नहीं हैं. ये वो दौर नहीं हैं जब धर्मवीर भारती संपादक हों या मुंशी प्रेमचंद. अखबारों कि भाषा बोल चाल की हिंदी जैसी हो गयी है. इसमें उर्दू भी है, अंग्रेजी भी और फारसी भी लेकिन इसका मतलब यह मत समझिए कि लिखने वाला शब्दों के मूल उद्गम के बारे में कुछ भी बता पायेगा आपको. अक्सर हिंदी अख़बारों में विरुद्ध के लिए खिलाफ शब्द का प्रयोग किया जाता है. बात यह कि क्या ये सही है? बिलकुल नहीं क्योंकि खिलाफ शब्द खलिफ से बना है जिसका अर्थ होता है नायब. सही शब्द होना चाहिए मुखालिफ. हालाँकि जो चलन में है चल रहा है...... ऐसा ही है व्याकरण के साथ भी. अंग्ग्रेजी के शब्दों के साथ भी हिंदी का व्याकरण प्रयोग किया जाता है. मसलन ट्रेन्स नहीं ट्रेनों. यह अखरता जरूर है पर बात वही की चलन में क्या है जीवन शैली की तेजी हमारे आस पास बदलाव ला रही है खाने पहनने और बोलने में पर ये बदलाव ज्यों के त्यों नहीं स्वीकारे जा रहे है इसमें परिवेश का असर भी शामिल है कुल मिलाकर ये संक्रमण का दौर है जो जल्दी ही थम जाएगा .
डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में 07/06/12 को प्रकशित लेख
3 comments:
हिंगलिश कैसे हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी है ये बखूबी आपके इस लेख से पता चल गया. लेकिन अब भी कई बार इस हिंगलिश के चक्कर में लोग हसी के पात्र बन जाते हैं
बात तो सही है सर...लेकिन ये भी सच है कि हीन भावना इतनी जल्दी कथं नहीं होती, कहीं न कहीं मन में एक अनजाना डर बैठा ही रहता है...
जबरजस्त लिखा है।
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