विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था में जेल(कारागार) किसी भी अपराध का दंड है यानि जेल, तंत्र का वो अंग है जो इस दर्शन पर आधारित है कि अपराधियों को समाज से दूर रखकर एक ऐसा वातावरण दिया जाए जहाँ वह आत्म चिंतन कर सकें पर क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है. देश की अदालतों में 2 करोड़ 60 लाख से ज़्यादा मुक़दमे लंबित हैं. इनमें से कुछ मामले पचास साल से भी ज़्यादा पुराने हैं.भारत में जेल सुधारों की त्वरित आवश्यकता है जिसका एक बड़ा कारण लंबित मुकदमों का बढ़ना ,न्यायाधीशों की कमी और सभी जेलों का क्षमता से ज्यादा भरा होना है.जिसका परिणाम कैदियों के खराब मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के रूप में आ रहा है.जेल में यंत्रणा आम है.तिहाड जेल की सालाना समीक्षा रिपोर्ट के अनुसार तिहाड में कैदी निर्धारित क्षमता से लगभग दुगुने हैं. पिछले वर्ष तिहाड़ में बंद 12,194 कैदियों में से 73.5 प्रतिशत अपने मुक़दमे की सुनवाई शुरू होनेका इंतज़ार कर रहे थे, 1987 में भारत के विधि आयोग द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार , प्रति दस लाख नागरिकों में औसत रूप में 10.5 जज थे. 2008 में, तत्कालीन कानून मंत्री एच.आर.भारद्वाज ने कहा था कि प्रतिदस लाख नागरिकों में न्यायाधीश का अनुपात चौदहथा.न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना, उस समस्या के हल का एक पक्ष हो सकता है, जो भारत की खराब जेल व्यवस्था का एक बड़ा कारण है.जजों की संख्या कम होने से जेल में लंबित कैदियों की संख्या बढती जाती.जिस पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है ।भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2010 तक,देश के 240,000 कैदियों में 65.1 प्रतिशत अपने मुकदमों के शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे और 1,659 कैदी यानि कुल का 0.7प्रतिशत , बगैरमुकदमा शुरु हुए पिछले पांच सालों से जेल में थे.आपराधिक मुकदमों में ज्यादातर के पूरा होने में औसत रूप से तीन से दस साल का समय लगता है, हालांकि दोषसिद्धि का समय मुकदमों के लिए जेल में बिताए समय से घटा दिया जाता है, लेकिन इसकी वजह से कई निर्दोषों को बगैर किसी अपराध के जेल की सज़ा काटनी पड़ती है,पिछले दशक में विशेष अपराधों के लिए फास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन कर इस मुद्दे को हल करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं, जिससे सुनवाई का इंतज़ार कर रहे लंबित मामलों में कमी आएगी परफास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन समस्या का एकमात्र हल नहीं है इस व्यवस्था में जोर न्याय की बजायसमय पर होगा जो किसी भी दशा में उचित नहीं माना जाएगा.दोषी पाए गए अधिकतर कैदी बहुत गरीब हैं, 2010 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 125,789 दोषी पाए गए कैदियों में 37,994(74.9 प्रतिशत) या तो अनपढ़ थे या दसवीं कक्षा से ज्यादा नहीं पढ़े थे.जेलों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपेक्षित मुद्दा है. जिनके अभाव में कई बार कैदी गंभीर रोगों का शिकार हो जाते हैं खासकर एचआईवी पोसिटिव कैदियों को इलाज के लिए जिला अस्पतालों के भरोसे रहना पड़ता है.
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवेलपमेंट में समिति ने एक जेल मैनुअल तैयार किया जिसे केंद्र सरकार ने स्वीकार कर 2003 में राज्यों को भेज कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर ली पर जमीनी स्तर पर जेलों की दशा में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं हुआ.
हिन्दुस्तान में 13/02/13 प्रकाशित
2 comments:
आपकी तमाम बातो से सहमत होते हुए कहना चाहूँगा कि सिर्फ सकारात्मक माहौल में व्यक्ति आत्म चिन्तन को प्रेरित नहीं किया जा सकता भय बिन प्रीति ...............
ऐसे बेतुके मुकदमों की अदालतों में भरमार है. ऐसा लगता है कि आम लोगों को इंसाफ में देरी पर हायहाय करना तो खूब आता है पर इस बात पर लोग गौर नहीं करते कि वे खुद कैसे इस देरी की वजह बनते हैं. गुवाहाटी निवासी चंद्रलता शर्मा को कुछ नहीं सूझा तो वे सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचीं. बात यह था कि गोरेपन की एक क्रीम के इस्तेमाल करने के बाद भी उन्हें फायदा नहीं हुआ था. उपभोक्ता फोरम में तो वे गईं ही, सुप्रीम कोर्ट से यह चाहती थीं कि वह ऐसे भ्रामक विज्ञापनों के बाबत दिशानिर्देश जारी करे. क्या यह बात इतनी गंभीर और महत्त्वपूर्ण थी कि सुप्रीम कोर्ट तक जाया जाए. यह बात गंभीर कतई नहीं थी. ऐसे लाखों मामले हैं जिनकी वजह से कोर्ट का वक़्त बर्बाद हो रहा हैं और निर्दोष लोग जिनके मुक़दमे विचाराधीन है जिनकी सुनवाई नही हो पाती हैं.
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