दिल्ली में बीते वर्ष सोलह दिसंबर जैसी वीभत्स घटना के बाद देशभर ,में खासकर मीडिया ने जिस तरीके से बलात्कार के मुद्दे को उठाया था और सरकार को कठोर कानून बनाने पर विवश कर दिया था उसके बाद तो यही लग रहा था की शायद अब ऐसी घटनाओं में कमी आएगी... लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. और दिल्ली ने एक और वीभत्स मंजर देखा जब पांच साल की मासूम को दरिंदगी का शिकार होना पड़ा यहाँ बात अगर राजधानी दिल्ली की न होती तो इसे भी सामान्य सी घटना मानकर बिसरा दिया जाता| जबकि कडवी सच्चाई यह है कि भारत के ग्रामीण इलाकों में बलात्कार जैसी घटनाएं सामान्य हैं. राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय नई दिल्ली की शिक्षक मेम्बर मृणाल सेन द्वारा न्यायालय द्वारा प्राप्त आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि साल 1983 से साल 2009 के बीच देश भर में हुए 75 फ़ीसदी बलात्कार के मामले गाँवों में हुए|इसे समझने के लिए हमें ज़रा ग्रामीण भारत के आर्थिक और सामाजिक ढांचे पर नज़र डालनी होगी. जैसे जैसे भारत ने तरक्की का पैमाना प्रतिशत में अपनाया है उसका असर गावों पर भी दिखने लगा| ज़्यादातर घरों की रसोई में चूल्हों की जगह रसोई गैस ने ले ली| लोग पढ़ी लिखी बहुओं को वरीयता देने लगे| अनपढ़ रहने वाली गंवारू लड़कियां स्कूल जाने लगीं. थोड़ी पढ़ी लिखी लड़कियां अब अपने अधिकार मांगने लगीं जिसका नतीजा ऑनर किलिंग के बढ़ते मामलों के रूप में सामने आया| मोबाईल फोन से लेकर इन्टरनेट और केबल टी वी की छतरियां हर घर पर देखी जाने लगीं जिस तरह से ग्रामीणों ने शौचालयों से ज्यादा ज़रूरी मोबाईल फोन को समझा ठीक वही रवैया ग्रामीण महिलाओं की स्थिति पर भी लागू हो गया|गांवों में होने वाले ज्यादातर बलात्कार सुबह के वक्त होते हैं जब गाँव की महिलायें शौच के लिए,(घरों में शौचालय की अनुपलब्धता के कारण) खेत में जाती है|
शहरों में सिर्फ अपने तक सिमटे रहने के उलट ग्रामीणों आपस में मिलजुल कर रहने की प्रवृत्ति के कारण बलात्कार और ऑनर किलिंग जैसी घटनाओं की भनक मीडिया या पुलिस को नहीं लगने पाती, क्योंकि यहाँ “खामोशी की खाप” अपना काम करती है जिससे बलात्कार के मामले दबा दिए जाते हैं|लोग इसे गाँव की इज्ज़त से जोड़कर देखते हैं| गाँव की सामाजिक आर्थिक बनावट शहरो से अलग है| गाँवों में महिला सशक्तिकरण अप्रत्यक्ष रूप से धन लालसा का परिणाम है,बेटी या पत्नी को पढाया जा रहा है क्योंकि प्राथमिक शिक्षा में लड़कियों के चयन से आय का एक अतिरिक्त स्रोत पैदा होता है. छात्रवृति के रूप में मिल रहा धन भी ग्रामीणों को लड़कियों को पढाने को प्रेरित कर रहा है|महिला सीट होने के करण घर कि महिलाओं को चुनाव लडवाना मजबूरी है क्यूंकि सत्ता कम से कम घर में बनी रहेगी. प्रधान के साथ ही प्रधान पति कि अवधारणा का जन्म इस बात को समझाने के लिए काफी है|तथ्य यह भी है कि आय का साधन और हाथ में सत्ता पाने के बाद इनमे से कुछ लड़कियां दहलीज लांघने का दम ख़म दिखा बदलाव की वाहक बन रही हैं| ग्रामीण स्त्रियों में अभी इतना आत्मविश्वास नहीं आया है कि वे इस तरह की ज्यादतियों का खुलकर विरोध कर सके|. बलात्कार की ज़्यादातर शिकार गरीब और पिछड़ी जाति की महिलाएं होती हैं| जिनके लिए ज़िन्दगी की पहली प्राथमिकता दो वक़्त की रोटी है. अगर वे किसी ऐसी ज्यादती का विरोध करती भी हैं तो उनके लिए इसके भी रास्ते बंद हो जाते हैं. मध्यमवर्गीय परिवारों में बदनामी का डर दिखाकर बात को छुपा लिया जाता है|बच्चों से यौन दुष्कर्म की घटनाओं के मामले में ज़यादातर आरोपित सगे संबंधी ही होते हैं, चूँकि गांवों में संयुक्त परिवार की परंपरा है इसलिए सम्बन्धियों पर भरोसा ज्यादा किया जाता है ऐसी स्थिति में पीड़ित बच्ची माता पिता को कुछ नहीं बता पता है और अगर बताता भी है तो उसकी बात पर विश्वास नहीं किया जाता| जिस तरह से हर देश समाज अपने संक्रमण काल से गुज़रते हैं ठीक उसी तरह से हमारे गाँव भी अपने संक्रमणकाल से गुज़र रहे हैं जहाँ न तो पूरी तरह से जागरूकता आई है और न तो तरक्की. यौन शिक्षा और उससे जुड़े अपराधों से निपटने के लिए एक लम्बा रास्ता तय करना बाकी है|
गाँव कनेक्शन के 27 अप्रैल 2013 के अंक में प्रकाशित