फ़िल्मी हीरो बनने का
भूत सवार हो आया
मुंगेरी लाल की तरह देखता था सपने
पता नहीं वे कब लगेंगे मुझे अपने
आखिर वो दिन भी आया
जब मैं बम्बई पहुँच पाया
मैंने फिल्मीस्तान स्टूडियो का
दरवाजा खटखटाया
लेकिन वहां मुझे दरबान ने भागया
इस तरह खटखटाए मैंने
सभी स्टूडियो के दरवाजे
सब जगह मुझे नजर आये बंद दरवाजे
थक हार कर पहुंचा होटल में
खाने को कुछ भी न था पॉकेट में
लेकिन उनको भी मेरी गरीबी पर
तरस न आया
वहां से भी मुझे मारकर भगाया
मेरा सपना टूटता नजर आया
मेरा फ़िल्मी हीरो का भूत
घर वापस आया
सुमन सौरभ में अप्रैल 1993 में प्रकाशित
1 comment:
Sir your poem depicts the true struggle of newcomers. How many difficulties they have to face is difficult to imagine.
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