Monday, June 3, 2013

गर्मियों में आग से तबाह होती किसानों की पूंजी

मई लगते ही सूरज अपने तेवर दिखाना शुरू कर देता है। स्कूल कॉलेज की छुट्टियाँ जहाँ समर कैंप्स की रौनक बढ़ा देती है वहीं आर्थिक रूप से समर्थ लोग किसी हिल स्टेशन पर सुक़ून भरे समय की तलाश में निकल पड़ते हैं। जब ऐसे ज़्यादातर लोग गर्मियाँ एंज्वॉय कर रहे होते हैंठीक उसी समयकिसी सुदूर गाँव में हमारा अन्नदाता अपनी अपनी नंगी झुलसी चमड़ी पर सूरज का तापमान माप रहा होता है। लहलहाती पकी फ़सल को देखकर आंखो में चमक के साथ चेहरे पर चिंता की झुर्रियां उसके किसान होने का प्रमाण देती हैं। एक ऐसे देश का किसान जो सबसे तेजी से उसके खुरदुरे कंधों पर टिकाकर तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है। पर खुद उसकी आजीविक अभी भी सूर्य और इंद्रदेवता की मेहरबानी पर टिकी है।गांवों में शहरों के मुक़ाबले आग लगने की घटनाएं ज़्यादा होती है और सुरक्षा के इंतज़ाम नदारत।साल भर किसान रातों को जागकर नीलगायों से फ़सल बचाने को हांका लगाता है और जब अनाज घर आने का समय आता है तो आग फ़सल के साथ साथ उसकी तमाम योजनाओं और उम्मीदों को भी जलाकर राख हो जाती है|आखिर उन्हीं का उगाया अन्न और सब्ज़ियां हम मॉल्स से खरीदना पसंद कर रहे हैं उन्हे डबलरोटी और नरेगा के सपनों के बजाय रोटी पहले मुहैया करायी जाये।।एनडीएमए(,National Disaster Management Authority) के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 2007 में भारत में आग की वजह से 20,772 लोग मरे 2006 में ये संख्या 19,222 थी। 1958 में सरकार ने एक फायर बिल मॉडल का मसौदा तैयार किया था और सभी राज्यों को  भेजा गया था |
वे राज्यजिन्होंने अपना खुद का अग्नि एक्ट अधिनियमित नहीं किया हैएक वर्ष के भीतर-भीतर उन्हें एक उपयुक्त अग्नि अधिनियम लागू करना चाहिए। लेकिनचौवन साल  के बाद भीकुछ राज्यों ने इस पर अमल नहीं किया है।भारत में प्रशिक्षित अग्नि-शमन कर्मचारी छियानवे प्रतिशत कम हैं।इस समस्या की जड़ें गांवों के विकास से जुड़े बेतरतीब ढाँचे में निहित हैं। पहला तो ये कि जितनी भी सरकारी योजनाएं हैं वो गांव का विकास शहरों की तर्ज़ पर किये जाने की वकालत करती हैं।हमारा फायर ब्रिगेड सिस्टम भी आगजनी की दशा में घटनास्थल तक तभी पहुँचता है जब सब कुछ ख़ाक हो चुका होता है और आग के नाम पर बुझाने को बचती है तो सिर्फ गर्म राख|पानी और आग हमारे देश के ग्रामीण इलाकों में हमेशा परेशानी का सबब रहे हैं| इसमें पानी(बाढ़) से होने वाले नुक्सान पर तो सब की नज़र जाती है| इस बात के पर्याप्त आंकडे भी हैं की जल की अधिकता ( बाढ़) या फिर जल की कमी ( सूखा ) के कारण जान- माल का कितना नुक्सान हुआ| पर आग से होने वाले नुक्सान पर उतना धयान नहीं दिया गया|हर साल लाखों किसान आगजनी की चपेट में अपना सब कुछ खो देते हैं|यह प्रकोप देश में मार्च से लेकर जून तक कुछ अधिक ही होता है इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होती है गेहूं की फसल| हर साल लाखों एकड़ गेहूं की फसल खेत में ही आग में ख़ाक हो जाती है|इसी के साथ गन्ना समेत कुछ अन्य फसल हैं जो आगजनी का शिकार बनती हैं| संसाधनों की बुरी हालत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि  कई कई जिलों में सिर्फ जिला मुख्यालय पर अग्निशमन केंद्र है| वहां पर भी मात्र एक या दो अग्निशमन दल और गाड़ियाँ (दमकल ) हैं. ऐसे में अगर सुदूर कहीं गाँव में आग लगती है तो सूचना मिलने के बावजूद केंद्र से घटनास्थल तक मदद पहुँचने में घंटों लग जाते हैं. इतनी देर में आग अपना काम कर चुकी होती है. गाँवों तक पहुँचने वाले मार्ग भी इतने बेहतर नहीं हैं कि मदद जल्दी पहुंचाई जा सके|आग से निपटने के लिए विभागों के पास जो उपकरण हैं वो खासे पुराने हैं. गाड़ियाँ तो ऐसी हैं की उन्हें विंटेज रैलियों में शामिल किया जाने लगा है. कर्मचारियों में आपदा प्रबंधन की दक्षता का अभाव साफ़ झलकता है. ऐसे तमाम कारण हैं जो आग से होने वाले नुक्सान को कई गुना तक बढ़ा  देते हैं|आग लगने पर गरीब किसान के पास कुछ नहीं बचता उसकी जमा पूँजी और निवेश सब स्वाहा हो जाता है| किसी तरह से कोई जनहानि न भी हुई तो भी किसान की कमर टूट जाती है. ऐसा देखने में आया है की इन आगों में सबसे अधिक शिकार मवेशी होते हैं| ये मवेशी किसानों के लिए एक निवेश की तरह होते हैं| जो उन्हें कुछ आय भी देते हैं और बेचने पर जमा पूँजी भी निकलती हैं. इनके जलने से किसान को बड़ी चपत लगती है| अभी तक किसानो में फसल और मवेशियों का बीमा करने की जागरूकता  नहीं आई है इसलिए  इसकी भरपाई भी नहीं हो पाती. बाढ़ तो आने से पहले कुछ अंदेशा भी हो जाता है पर आग लगने की घटना तुरंत होती है. पर आग की घटना कभी कभार ही बड़े पैमाने पर मीडिया और सरकार  का ध्यान खींच पाती  है इसलिए इसे बाढ़ की तरह से गंभीरता से  नहीं लिया  जा रहा है|
गाँव कनेक्शन साप्ताहिक  के 2 जून के अंक में प्रकाशित 

2 comments:

बोलना ही होगा said...

सर ये एक ऐसी समस्या है जिसकी तरफ ध्यान सरकारो के साथ लोगो कभी कम ही जाता है। मैं भी एक ग्रामीण क्षेत्र से संबंध रखता हु तो ऐसी तबाहीयों का गवाह मैं खुद रहा हु।इसमे एक और चीज मैं जोड़ना चाहता हु की आग की वजह से मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर भी प्रभाव पड़ता है ,जैसे खेत की उर्वरता के लिए केंचुवों का होना विशेष महत्व है,उनका भी आग की वजह से नुकसान होता है। मुवावजे के नाम पर सरकारो की उदासीनता भी एक गंभीर मसला है। सरकारो की इनहि उदासीनताओ के कार्न लोग खेती से पलायन को मजबूर हैं। सर ये लेख शायद सरकारो को नींद से झकझोरने का काम करे , आपका तहेदील से शुक्रिया।
सुशील कुमार

MJMC 1st sem.

Sudhanshuthakur said...

दिन के समय, समय से पहले बढ़ जाती है गर्मी जो किसानों की समस्याएं बढ़ा देती हैं। दिन के समय बढ़ती गर्मी जहां एक ओर गेहूं की पैदावार को प्रभावित कर सकती है, वहीं दूसरी तरफ गेहूं की फसल कई प्रकार के रोगों की चपेट में भी आ सकती है। तपिश के कारण किसानों को गेहूं की पैदावार के प्रति सोचने पर मजबूर कर देती है। जैसे जैसे गर्मी बढ़ती है उसके कारण फसलों पर कीट भी अपना प्रभाव छोड़ना शुरू कर देती है। किसानों को गेहूं की फसलों पर कीटनाशक दवाइयां छिड़कना पड़ता है, जिसकी वजह से उन्हें आर्थिक रूप से बोझ उठाना पड़ता है।

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