Tuesday, July 23, 2013

इंटरनेट बन रहा है बदलाव का वाहक

इंटरनेट खोज भारत में जहाँ  तेजी से ओनलाईन विज्ञापनों को बढ़ावा दे रही है वहीं सर्च तकनीक हर दिन के साथ कुछ नया जोड़कर लोगों को इंटरनेट का एकदम गुलाम बना दे रही है यह कितना सही है या कितना गलत इसका फैसला वक्त को करना है पर फिलहाल इंटरनेट भारतीय मध्यवर्ग की रीढ़ बन चुका है वो खरीददारी,बैंक और यात्रा जैसे फैसलों को लेने से पहले इंटरनेट की मदद ले रहे हैं या यूँ कहें कि भारतीय इन्टरनेट प्रयोगकर्ता इंटरनेट खोज में परिपक्वता ग्रहण कर रहे है| इंटरनेट का इस्तेमाल कई नए तरह की संभावनाओं को जन्म दे रहा है जिससे परम्परागत उपभोक्ता और विज्ञापन दोनों के स्वरूपों में बदलाव आ रहा है| गूगल की खोज रिपोर्ट के अनुसार साल 2011  में जिन तीन चीजों में भारतीयों ने सबसे ज्यादा खोज रूचि दिखाई वो मनोरंजन  ना होकर बैंकिंग, शौपिंग और यात्रा से सम्बन्धित वेबसाईट्स रहीं ये चलन बता रहा है किस तरह भारतीय मध्यवर्ग इंटरनेट अपनी रोजमर्रा की जरूरतों पर इंटरनेट पर निर्भर हो रहा है.बढते स्मार्ट फोन के प्रयोग ने सर्च को और ज्यादा स्थानीयकृत किया है वास्तव में खोज ग्लोबल से लोकल हो रही है जिसका आधार भारत में तेजी से बढते मोबाईल इंटरनेट प्रयोगकर्ता हैं जो अपनी खोज में स्थानीय चीजों को ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं,ये रुझान दर्शाते हैं कि भारत नेट युग की अगली पीढ़ी में प्रवेश करने वाला है जहाँ सर्च इंजन भारत की स्थानीयता को ध्यान में रखकर खोज प्रोग्राम विकसित करेंगे और गूगल ने स्पीच रेकग्नीशन टेक्नीक पर आधारित वायस सर्च की शुरुवात की है जो भारत में सर्च के पूरे परिद्रश्य को बदल देगी|स्पीच रेकग्नीशन टेक्नीक लोगों को इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए किसी भाषा को जानने की अनिवार्यता खत्म कर देगी वहीं बढते स्मार्ट फोन हर हाथ में इंटरनेट पहले ही पहुंचा रहे हैं |आंकड़ों की द्रष्टि में ये बातें बहुत जल्दी ही हकीकत बनने वाली हैं |वैश्विक  परामर्श संस्था मैकिन्सी कम्पनी का एक नया अध्ययन बताता है कि इंटरनेट  साल 2015 तक  भारत की जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद )में १०० बिलियन डॉलर का योगदान देगा जो कि वर्ष2011 के 30 बिलियन डॉलर के योगदान से तीन गुने से भी ज्यादा होगा अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा और देश की कुल जनसंख्या का 28 प्रतिशत इंटरनेट से जुड़ा होगा जो चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा जनसँख्या समूह होगा मैककिन्सी ऐंड कंपनी द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि 2015 तक भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद तिगुनी होकर 35 करोड़ से भी ज्यादा हो जाएगी। यानी अमेरिका की वर्तमान जनसंख्या से भी ज्यादा हो जाएगी, जिसमें बड़ी भूमिका स्मार्टफोन निभाने वाले हैं। स्मार्टफोन वे मोबाइल फोन हैं, जिन पर इंटरनेट भी चल सकता है। गूगल के एक सर्वे के मुताबिक, भारत में स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद फिलहाल अमेरिका के 24.5 करोड़ स्मार्टफोन धारकों से आधी से भी कम है।अभी सिर्फ आठ प्रतिशत भारतीय घरों में कंप्यूटर हैं, पर उम्मीद है कि 2015 तक मोबाइल फोन इंटरनेट तक पहुंचने का बड़ा जरिया बनेंगे और 350 करोड़ संभावित इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में से आधे से ज्यादा मोबाइल के जरिये ही इंटरनेट का इस्तेमाल करेंगे। मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मार्च 2014 तक ऑनलाइन विज्ञापन का बाजार 2,938 करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है। इन ऑनलाइन विज्ञापनों में सर्च, डिस्प्ले, मोबाईल, सोशल मीडिया, ई मेल और वीडियो विज्ञापनों को शामिल किया गया है। साल 2012 में ऑनलाइन विज्ञापनों से कुल 1,750 करोड़ रुपए की कमाई हुई थी पर मार्च 2013 तक इसी अवधि में 2,260 करोड़ रुपए की आमदनी हुई जो 29प्रतिशत ज्यादा रही। इसी के साथ वेब मीडिया पर होने वाला खर्च भी धीरे धीरे बढ़ रहा है साल 2005 में जहाँ यह विज्ञापनों पर कुल खर्च का एक प्रतिशत था वहीं 2012 में यह आंकड़ा सात प्रतिशत हो गया।|आवश्यकता आविष्कार की जननी है पर इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की दुनिया में भारत का बढ़ता वर्चस्व इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को मजबूर कर रहा है कि वे ऐसे सोफ्टवेयर विकसित करें जिससे भारत जैसे बड़े बहुभाषाई देश के लोगों की आवश्यकताएं पूरी हो सकें और ऐसा हो भी रहा है इसलिए इंटरनेट सिर्फ अंग्रेजी भाषा जानने वालों का माध्यम नहीं रह गया है | हिंदी को शामिल करते हुए इस समय इंटरनेट की दुनिया बंगाली ,तमिल, कन्नड़ ,मराठी ,उड़िया , गुजराती ,मलयालम ,पंजाबी, संस्कृत,  उर्दू  और तेलुगु जैसी भारतीय भाषाओं में काम करने की सुविधा देती है आज से दस वर्ष पूर्व ऐसा सोचना भी गलत माना जा सकता था पर इस अन्वेषण के पीछे भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं के बड़े आकार का दबाव काम कर रहा था और स्पीच रीकग्नीशन तकनीक का खोज की दुनिया में बढ़ावा भारत के ऐसे लोगों के लिए बरदान होगा जो अभी तक निरक्षर हैं पर अब  निरक्षरता उनके आगे बढ़ने में रोड़ा नहीं बन पायेगी वो देश दुनिया के बारे में जानकारी सुनकर ले और दे सकेंगे| अभी तक हमारे सारे अधिकारों का  संघर्ष रोटी कपडा और मकान तक ही सीमित रहा है  पर अब इसमें एक नया परिवर्तन लाया है इन्टरनेट| असंयुक्त राष्ट्र संघ  की एक रिपोर्ट के अनुसार इन्टरनेट सेवा से लोगों को वंचित करना और ऑनलाइन सूचनाओं के मुक्त प्रसार में बाधा पहुँचाना मानवाधिकारों के उल्लघंन की श्रेणी में माना जाएगा| मानव सभ्यता के इतिहास में इतना तेज और चमत्कारिक परिवर्तन  इससे पहले और कोई चीज नहीं लाई |हम मान सकते हैं कि इन्टरनेट आने वाले समय में संविधान सम्मत और मानवीय अधिकारों का एक प्रतिनिधि बन कर उभर रहा है | भारत में इस बदलाव की वाहक कामकाजी युवा पीढ़ी है, जो तकनीक पर ज्यादा निर्भर है| इसमें कोई संशय  नहीं कि ये आंकड़े उम्मीद जताते हैं, पर कुछ ऐसे सवाल अभी भी हैं, जिनके जवाब मिलने बाकी हैं। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक, भारत की कुल ग्रामीण जनसंख्या का दो प्रतिशत ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है। यह आंकड़ा इस हिसाब से बहुत कम है, क्योंकि हमारी करीब साठ प्रतिशत आबादी अब भी गाँवों में ही रहती है। इस वक्त ग्रामीण इलाकों के कुल इंटरनेट उपयोगकर्ताओं में से अठारह प्रतिशत को इसके प्रयोग  के लिए दस  किलोमीटर से ज्यादा की दूरी तय  करनी पड़ती है ।इस दूरी को खत्म करने के लिए गंभीरता से प्रयास करने होंगे। इसमें  मोबाइल फोन एक अच्छा विकल्प साबित हो सकते हैं। देश में सूचना-तकनीक का विस्तार हो रहा है, पर इसका लाभ बहुसंख्यक वर्ग तक कब पहुंचेगा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इंटरनेट का इस्तेमाल कौन और कैसे कर रहा है?  आने वाला समय देश में सामाजिक-आर्थिक स्तर पर एक बड़े परिवर्तन का गवाह बनेगा| इंटरनेट का इस्तेमाल जहां पारदर्शिता और जवाबदेही लाएगा, वहीं लोग मुखर तरीके से अपनी बात सोशल नेटवर्किंग साइटों के माध्यम से रख पाएंगे। 
राष्ट्रीय सहारा में 23/07/13को प्रकाशित 

Monday, July 22, 2013

गाँव में शहरी तर्ज़ पर हो रहे बेढंगे विकास

गाँव कनेक्शन साप्ताहिक के 21/07/13 अंक में प्रकाशित  

Tuesday, July 16, 2013

जिन्हें जल्दी थी वो चले गए

अच्छा अगर आपको फेसबुक पर बार बार पोक करे या मेसेज बॉक्स में जा जा कर आपको अपने स्टेटस अपडेट को लाईक या कमेन्ट करने को कहे तोआपको कैसा लगेगा ज़ाहिर है बुरा ही लगेगा पर वर्चुअल वर्ल्ड से अलग रीयल वर्ल्ड में ऐसा डेली हो तो तब कैसा होगा आपका रिएक्शन ?घर से बाहर जबबच्चा पहली बार स्कूल जाने के लिए निकलता है तो पढ़ाई से पहले उसे यही  बात सिखाई जाती है कि शोर मत करो पर ये बड़ी बात हम अपने छोटे से जीवनमें नहीं सीख पाते हैं.रोड पर होर्न प्लीज का मतलब ये नहीं है कि होर्न आपके मनोरंजन का साधन है जब जी चाहे बजाते रहो जब तक की सामने वाला रास्तेसे ना हट  जाए पर वो तो तभी हटेगा जब उसे आगे जाने का रास्ता मिलेगा पर इतना पेशंस कहाँ है.भाई मंजिल तक तो सभी को पहुंचना है इसीलिये तोसफर में निकले हैं पर आपको ऐसा नहीं लगता है कि बचपने में शोर ना मचाने की सीख का पालन हम कभी नहीं करते यानि जो जितना शोर मचायेगा वोउतना बड़ा माना जाएगा. अभी हाल में आयी फिल्म आशिकी टू का गाना बड़ा हिट हुआ सुन रहा है तू रो रहा हूँ मैंआप भी सोच रहे होंगे कि सुबह सुबह मैंआशिकी क्यूँ कर रहा हूँ अरे नहीं भाई मैं तो बता रहा हूँ कि एक जमाना था जब लोग अकेले में रोते थे वो गजल याद है ना आपको चुपके चुपके रात दिनआंसू बहाना याद हैजिससे दूसरे लोग परेशान ना हों और शोर भी ना हो ,पर रोड हो या पब जब तक आवाज शोर ना बन जाए तब तक बजाओ,पर कभीकभी शेर को सवा शेर भी मिल जाता है तो ऐसे लोगों के कान के नीचे भी बजा दिया जाता है नहीं समझे अरे स्कूल में ज्यादा शोर करने पर टीचर क्या करते थे हमसबके साथ.सवाल ये है कि ऐसी नौबत ही क्यूँ आये हम एक सिविलाईज्ड सोसायटी में रहते हैं .हमारे देश में होर्न बजाना एक सनक हैसमस्या ये है कि हम में से बहुत कम लोग टू या फॉर व्हीलर चलाने के मैनर्स जानते हैं या जानने की कोशिश करते हैं.ड्राइविंग स्कूल इसका सल्यूशन होसकते हैं पर मुद्दा ये है कि जब हम बचपने की पहली सीख शोर मत करो अपने जीवन में नहीं उतार पाते हैं तो ड्राइविंग स्कूल हमें क्या सुधार पायेंगे.यूँ कि भाषण देने की आदत तो हमारी है नहीं और फ्री का ज्ञान कोई लेना नहीं चाहता तो बैक टू दा बेसिक्स ऐसा कोई भी काम ना करें जो आपको पसंद ना हो.रात की तन्हाई और सुबह का सन्नाटा हमें इसीलिये पसंद आता  है क्यूंकि उस वक्त कोई शोर नहीं होता.सिंपल तो गाड़ी चलाते वक्त इतना ध्यानरखना बिलावजह होर्न बजाना शोर पैदा करता है और शोर किसी को पसंद नहीं होता है. आपको पता ही होगा ज्यादातर रोड एक्सीडेंट जल्दबाजी में ही होते हैंआपने ट्रक के पीछे वो वाक्य तो पढ़ा ही होगा जिन्हें जल्दी थी वो चले गए”, पर आपको तो जाना नहीं है बल्कि मंजिल पर सुरक्षित स्वस्थ पहुंचना है.मैंने अपनी कई विदेश यात्राओं में इस बात को महसूस किया है कि वहां गाड़ियों की संख्या ज्यादा होने के बावजूद होर्न का शोर कम होता है या न के बराबर होता है पर हमारे देश में उतनी गाडियां नहीं हैं पर फिर भी होर्न का शोर ज्यादा है.सिविक सेन्स और सेल्फ डिस्पलीन कानून से नहीं पैदा किया जा सकता है.साउंड पाल्यूशन कई तरह की हेल्थ रिलेटेड प्रोब्लम पैदा भी करता है जिसके लिए  कुछ हद  तक हमारी जबरदस्ती होर्न बजाने की आदत जिम्मेदार होती है.चेंज की शुरुवात कहीं ना कहीं से करनी ही होगी.वैसे भी ज्यादा टोंका टाकी किसी को पसंद नहीं होती तो खुद सम्हलिए.कुतर्क का कोई मतलब नहीं ज्यादातर होर्न बजाने के पीछे पेशंस का ना होना और डिसप्लीन की कमी  जैसे कारण ही होते हैं.मैं समझ रहा हूँ आप सब को ऑफिस स्कूल जाने की देर हो रही है और आपकी गाड़ी इन्तजार में है जाइए बिलकुल जाइए पर ध्यान रहे आज से जबरदस्ती होर्न नहीं बजायेंगे और ये बात आपके कान में लगातार बजती रहनी चाहिए.
आई नेक्स्ट में 16/07/13 को प्रकाशित

Monday, July 15, 2013

जब 24 साल बाद पलटे जिंदगी के पन्‍ने


गाँव का घर 
धान की रोपाई 
कहते हैं जब इंसान अंदर से घुटता है तब उसे अपने याद आते हैं जो बगैर किसी स्वार्थ के उससे जुड़े होते हैं दुनिया कितनी भी बदल जाए वो नहीं बदलते है मेरा अपने तथा कथित गाँव से भी कुछ ऐसा रहा है अपने छतीस साल के जीवन में मैं कुल मिलाकर  छत्तीस दिन भी गाँव में नहीं रहा पर पिछले कुछ दिनों से मैं उन लोगों की तलाश में हूँ जिनके होने से मैं हूँ,मेरी पहचान है ये ऐसे लोग नहीं जो चढ़ते सूरज को सलाम करते हैं, ये बस मेरे साथ हैं बगैर किसी टर्म एंड कंडीशन के ये मेरी यादों का हिस्सा हैं तो पिछले दिनों अपने पुराने मित्र उमेन्द्र से जौनपुर में मिला और अब बारी थी उस गाँव कीजहाँ आख़िरी बार मैं मई 1989 में गया जब मेरे बाबा जी का निधन हुआ था शायद चार पांच दिन के लिए उससे पहले 1984 में अपने चाचा की शादी में और उसके पहले 1982 में अपनी बुआ की शादी में,इसके पहले का मुझे याद नहीं पर मेरी जानकारी मेरे तीनो गाँव प्रवास की कुल अवधि बीस दिन से ज्यादा की नहीं होगी पर गाँव यादों मे हमेशा रहा वो खेत खलिहान ट्यूब वेल आम की बाग,गर्मी की दोपहर इन्हीं यादों के सहारे थोडा बहुत गाँव के बारे में जानकर लिख पाता हूँ.मेरा जन्म लखनऊ में ही हुआ और पढ़ाई लिखाई शहरों में ही हुई तो जिंदगी की दौड में गाँव कभी प्राथमिकता में नहीं रहा और सच मानिए ये यात्रा भी एक दुर्घटना का ही परिणाम थी अन्यथा मुझे नहीं लगता कि मैं कभी अपने गाँव जाऊँगा तो हुआ यूँ कि एक दिन अचानक सूचना मिली की हमारे बड़े फूफा जी का निधन हो गया (मेरा अपने रिश्तेदारों से कभी कोई ज्यादा संपर्क नहीं रहा इसके लिए मेरा अंतर्मुखी स्वभाव ज्यादा जिम्मेदार है ) और माता माता पिता जी का वहां जाना जरूरी था मैं दोनों के स्वास्थ्य और उम्र को देखते हुए अकेले नहीं जाने देना चाहता था तो मैं भी चल पड़ा उनके साथ और तभी मुझे पता पड़ा बुआ जी के घर से गाँव ज्यादा दूर नहीं है तो तय यह हुआ कि क्यूँ न चलकर उस घर को भी देख लिया जाए जहाँ से मेरा इतिहास जुड़ा है.पिता जी उत्साहित हो गए अपने बचपने की जमीन देखने उन्हें भी यहाँ आये हुए बारह साल से ऊपर हो गया था|लखनऊ से फैजाबाद दो घंटे का भी रास्ता नहीं पर मुझे अपने गाँव तक की दूरी को तय करने में पच्चीस साल लग गए|
पुराने दिन को याद 
घर के सामने 
               मेरा गाँव फैजाबाद के तारुन ब्लॉक में पड़ता है जो फैजाबाद से इलाहाबाद वाली रोड पर है यूँ तो फैजाबाद हर साल दो तीन बार जाना होता है अवध विश्वविद्यालय में, पर कभी गाँव नहीं जा पाया सौभाग्य से अवध विश्वविद्यालय उसी रोड पर है जो मेरे गाँव को जाती है जब भी कभी मैं वहां आता तो उस सड़क को देखकर सोचा करता था कि कभी इसी सड़क से हमारे दादा परदादा गुजरे होंगे मेरे पिता जी के संघर्ष के दिनों की साथी रही होगी ये सड़क और फिर अपना सर झटक वापस लखनऊ लौट आया करता था|वैसे भी गाँव से जुड़ाव तब बना रहता है जब वहां के रिश्ते बने रहते गाँव में एक चाचा ही बचे रह गए बाकी सब लखनऊ में बस गए और चाचा जी ने जो गाँव में किया उससे लोग वहां जाने से बचने लग गए खैर फैजाबाद छोड़ते पिता जी ने यादों और किस्सों का पिटारा खोल दिया कौन सी रोड कहाँ जाती है किस साल कहाँ कब क्या हुआ माता जी की डोली कहाँ आ कर रुकी है और न जाने क्या क्या मैं भी उन रास्तों को पहचानने की कोशिश कर रहा था पर सब ब्लैंक कुछ धुंधली स्मृतियाँ और कुछ भी नहीं कच्ची पक्की सड़कों के साथ हिचकोले खाते हम अपने गाँव के करीब थे पर पिता जी भी अपने घर का रास्ता भूल चुके थे पर उनके चेहरे पर जो बाल सुलभ उत्साह था मैं बस उसको जी रहा था वो भी मेरी तरह स्थितिप्रज्ञ हो चुके हैं पर उस दिन वो काफी प्रसन्न लग रहे थे|कुछ चिन्ह अभी नहीं मिटे थे पिता जी कुछ संशय में थे पर मैंने पहचान लिया था यही है मेरा गाँव| गाड़ी खड़ी करके हम सकरी गलियों से उस घर तक पहुंचे जिसे हम अपनी जड़ कह सकते थे जहाँ मेरे पिता का बचपन बीता जहाँ उनके पिता ने अपने परिवार को पाला पोसा पर आज उस घर में सन्नाटा बोल रहा था| चाचा बाहर लेटे हुए थे उनकी दशा देख कर मुझे और पिता जी को बहुत दुःख हुआ पर आज वो आज जिस हालत में है उसके दोषी वो खुद हैं|
अमरुद की छाँव 
 पिता जी जब तक नौकरी में थे उन्हें नियमित रूप से पैसे भेजते रहे उससे पहले उनका जीवन बाबा की पेंशन से चलता था क्योंकि दादी बाबा बीमार रहने के कारण अकसर हम लोगों के साथ रहने लग गए थे पूरा घर खाली, उजाड जानवरों के रहने की जगह गिर चुकी थी,जो घर बचपने में बहुत बड़ा लगता था वो छोटा लग रहा था घर में घुसते वक्त सर झुका कर मैंने वो कमरा देखा जहाँ हम बचपने में रुका करते थे उस तालाब को भी दूर से देखा जहाँ गर्मी की दोपहर में गुजरते वक्त ये माना जाता था वहां भूत रहता है वो ट्यूब वेल अब बंद थी|एक वक्त में हमारा घर गाँव के सबसे अच्छे घरों में गिना जाता था ऐसा पिता जी बताते हैं आज वो घर अपनी हालत को रो रहा है उसके आस पास के सारे घर पक्के हो गए|पिता जी घर के अंदर नहीं गए वो बाहर ही बैठे रहे शायद ये उनका अपना तरीका रहा हो अपना गुस्सा दिखाने का क्यूंकि मैं उस दौर का गवाह रहा हूँ उन्होंने उस घर के लिए बहुत कुछ किया था उनकी प्राथमिकता में हमेशा उनके भाई बहन रहे और मैं इस बात के लिए अक्सर अपना प्रतिरोध दर्ज कराता हूँ कि आपने,अपने बच्चों को सबसे निचली प्राथमिकता में रखा और उनका सीधा जवाब रहता है दुवाओं में असर रहता है और हम सभी  भाइयों के लिए भी यही सीख रहती है जिसकी जितनी मदद कर सकते हो बगैर किसी उम्मीद के कर दो पता नहीं उनकी सीख अपने जीवन में कितना उतार पाया हूँ पर कोशिश यही करता हूँ|पिता जी के पहुँचते ही जिसने भी सुना वो घर आने लग गया घर पर बुजुर्गों की ठीक ठाक भीड़ लग गयी पुराने किस्से पुरानी बातें मैं पिता जी को उनकी यादों के सहारे छोड़ गाँव का चक्कर लगाने निकाल पड़ा सब कुछ बदल गया जनसँख्या के बढ़ने का असर दिख रहा था तालाब गायब कुएं पट चुके थे रास्तों की जगह घर खड़े थे हमारे पास वक्त ज्यादा नहीं था हमें एक घंटा हो चुका था आये हुए |
           पिता जी भी चलना नहीं चाह रहे थे पर वो मेरे लिहाज में भरे मन से उठे हम गाड़ी की ओर चले तो पीछे लोगों का कारवां भी हमें छोड़ने चल पड़ा आश्चर्य जनक बात ये थी कि उस कारवां में बच्चे बूढ़े महिलायें सभी थे शहर में ऐसे दृश्य विरले ही देखने को मिलते हैं हम गाड़ी में बैठने वाले थे कि एक बूढा व्यक्ति  आया शायद पिता जी का कोई पुराना  परिचित था और उनके गले लग गया ऐसा निस्वार्थ प्रेम बगैर किसी लाभ के अब दुर्लभ है कम से कम मैंने अपने जीवन में ऐसा अनुभव नहीं किया जो भी मिला मतलब से काम बनाया और अपनी राह ली मैं खुशनसीब था कि ऐसे लम्हों को जी पा रहा था |पिता जी की आँखें नम थी गाड़ी आगे बढ़ चली थी मैं जानता था कि ये मेरी आख़िरी गाँव यात्रा थी अब दुबारा इस जीवन में गाँव आना नहीं होगा मैं भी पिता जी की तरह दुखी था उस घर की ये हालत देखकर और मेरा भी यही तरीका है जो चीज तकलीफ दे उसे भूल जाओ| हम वापस लौट रहे थे ...........................
http://hindi.oneindia.in/news/2013/07/15/first-person-back-my-village-after-24-years-253302.html

Sunday, July 14, 2013

पहचान का आख्यान :पुस्तक समीक्षा

जनसंदेश टाईम्स में 14/07/13 को प्रकाशित 

Wednesday, July 10, 2013

न्याय की राह में,रोड़ा बनती व्यवस्था

भारतीय संविधान के अनुसार त्वरित न्याय प्रत्येक भारतीय का मौलिक अधिकार  है। पर जैसा कि हमारे अन्य मौलिक अधिकारों के साथ होता हैइस मौलिक अधिकार को भी प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए हमारे पास संसाधनो का अभाव है और जो संसाधन हमारे पास हैं भी हम उनका उचित प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। चिंतनीय बात यह है भारत में प्रति-व्यक्ति न्यायाधीशों की संख्या बांग्लादेश से भी कम है। भारतीय न्याय आयोग की सन 1984 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उस समय भारत में प्रति दस लाख व्यक्ति पर 10 न्यायाधीश थे। सन 2007 तक आते-आते यह संख्या घट कर मात्र 6 रह गयी जबकि इसी वक़्त बांग्लादेश में प्रति दस लाख व्यक्ति पर न्यायाधीशों की संख्या 12 थी। हालांकि अप्रैल 2013 तक भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर 13 हो गयी थी परंतु यह संख्या भारतीय न्याय आयोग द्वारा जारी 120वीं रिपोर्ट में प्रास्तावित संख्या 50 से लगभग चार गुना कम है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वेबसाइट पर दिये गए आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 में 60 लाख से भी अधिक संज्ञेय अपराधों के मामले दर्ज किए गए। यदि ऊपर दिये गए इन दोनों आंकड़ों को हम मिलकर देखें तो यह साफ नज़र आता है कि स्थिति कितनी चिंताजनक है।
इस समस्या का कोई त्वरित समाधान नहीं है पर कुछ जो समाधान हमारे पास हैं हम उन्हें भी इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं या नहीं करना चाह रहे हैं। हमारे देश के अधिकतर न्यायालय लगभग एक  महीने का ग्रीष्मकालीन अवकाश पर रहते  हैं जबकि माननीय उच्चतम न्यायालय इससे कहीं अधिक पैंतालीस दिन के ग्रीष्मकालीन अवकाश पर रहता है,हालांकि भारतीय न्याय व्यवस्था में अवकाशकालीन न्यायालयों का प्रावधान है पर वे अत्यंत ही महत्वपूर्ण मुकदमों को छोड़कर और किसी मुकदमें के लिए नहीं हैं। ग्रीष्मकालीन अवकाश की व्यवस्था हमें अपनी अन्य कई व्यवस्थाओं की ही तरह अंग्रेजों से विरासत में मिली है। गर्मियों में अंग्रेज़ न्यायाधीश हमारे देश की प्रचंड गर्मी से बचने के लिए पहाड़ों पर चले जाते थे। उनके ऐसा करने के दो कारण थे एक कारण कि इंग्लैंड जैसे ठंडे देश से आने के कारण उनके लिए यहाँ की गर्मी जानलेवा सिद्ध हो सकती थी। दूसरा कारण यह कि वे राजा थे और हम प्रजा और राजा का हित सर्वोपरि होता है। यह दोनों ही कारण आज के समय में अर्थहीन हो चुके हैं तथा  लोकतांत्रिक देश होने  के कारण  प्रजा का हित सर्वोपरि है  पर जैसा कि हमारी व्यवस्था में परम्पराओं को नियम मान लेने की परिपाटी चली आ रही है तो  हम समय  की मांग को समझे बगैर  अंग्रेजों द्वारा  द्वारा बनाए गए अधिकतर परम्पराओं और नियमों का पालन आज़ादी के छ दशकों के बाद भी बड़ी शिद्दत से करते हैं शायद इसका भी मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि जो चल रहा है उसे चलते रहो वाली मनोवृति  । हर परम्परा अपने वक्त का प्रतिनिधित्व करती है आज तकनीकी उन्नति और रहन सहन की बेहतर स्थिति के कारण कोर्ट-रूम आधुनिक सुख-सुविधाओं जैसे एयर-कंडीशनर आदि से लैस हो गए हैं  तो ग्रीष्मकालीन अवकाश और भी  औचित्यहीन हो जाते हैं तो ऐसे में इतने लंबे अवकाश् की परम्परा को ढोते रहना तर्कसंगत नहीं लगता|
नियमानुसार माननीय उच्चतम न्यायालय को 185 और उच्च न्यायलों को 210 दिन कार्य करना चाहिए पर अधिकतर यह संख्या कम ही रहती है। मद्रास उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका के अनुसार पिछले वर्ष मद्रास उच्च न्यायालय में केवल 155 दिन कार्य हुआ। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि न्यायाधीशों का कार्य अत्यंत ही संवेदनशील होता है और देश में न्यायाधीशों की संख्या कम होने के कारण उन पर आवश्यकता से अधिक बोझ है। साथ ही अवकाश न्यायाधीशों का  अधिकार है और उन्हें अवश्य ही इसका लाभ मिलना चाहिए। पर इस समस्या का समाधान बहुत मुश्किल  नहीं है। यदि अवकाश रोस्टर को परिक्रमण के आधार पर तैयार किया जाये तो इस समस्या का हल हो जाएगा। ग्रीष्मकालीन अवकाश के समर्थन में यह कहा जाता है कि इंग्लैंड में न्यायाधीशों को दो माह का अवकाश मिलता है और अमरीका में वे कभी भी छुट्टी पर जा सकते हैं पर तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि  वहाँ न्यायालयों  में आने वाले मुकदमों की संख्या भारत के मुकाबले काफी कम है। उदाहरण के लिए एक अमरीकी कोर्ट में सालाना केवल दस हज़ार के करीब मुकदमें आते हैं जबकि हमारे उच्चतम न्यायालय में लगभग 5500 मुकदमें प्रतिमाह दर्ज़ होते हैं। अतः यह आवश्यक है की ग्रीष्मकालीन अवकाश का समुचित प्रबंधन होना चाहिए,क्यूंकि न्यायालय आखिर हैं तो जनता के लिए वहीं इस बात का ध्यान भी रखा जाए कि न्याधीशों की कार्यक्षमता पर भी असर ना पड़े |

 अमर उजाला में 10/07/13 को प्रकाशित 

Saturday, July 6, 2013

कुछ अपने लिए (दौ सौवीं पोस्ट )

जिंदगी रोज नए रंग दिखती है वो कभी हमें खिलाती है और कभी हम से खेलती है तो ऐसे ही खेल का हिस्सा बने हम चले जा रहे हैं लोग मिलते हैं बिछड़ते हैं इसी का नाम जीवन है वैसे भी मेरे जीवन में प्लानिंग से कभी कुछ नहीं हुआ बस जो कुछ हुआ वो होता चला गया जिंदगी ने अच्छा दिया उसे भी स्वीकारा और बुरा भी मैंने जिंदगी से  चाहे कुछ सीखा हो या न सीखा हो पर एक बात सीखी है जो भी काम मिले उसमें अपने आपको झोंक दो और किसी काम को हल्का मत मानो और शायद इसी से तनाव लेने की आदत पड़ गयी है,तो लिखना अपने आप में एक बड़ा तनाव का काम है| मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं (ज्यादातर विद्यार्थी मैं इतना बड़ा लेखक नहीं हूँ कि लोग राह चलते पूछे कि भैया लिखा कैसे जाता है )कि आप लिखते कैसे हैं विचार कैसे आते हैं अब मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है सच तो ये है कि सारा खेल तनाव बोले तो स्ट्रेस का है बस हमेशा देखते रहिये और  सोचते रहिये अच्छा बुरा ऐसा क्यूँ, वैसा क्यूँ नहीं यानि देखते वक्त सोचते रहिये और सोचते वक्त देखते रहिये फिर देखिये आपके पास एक से एक विचार आयेंगे |पर ये सब इतना आसान नहीं है जितना आसानी से मैंने लिख दिया और अगर आप ऐसा करने लग जायेंगे तो सामाजिक रूप से आपके बहिष्कृत होने का खतरा बना रहेगा क्यूंकि आपको किसी काम में आनंद नहीं आएगा यानि आप जिंदगी का सही मायने में लुत्फ़ नहीं उठा पायेंगे जैसा कि अमूमन लोग करते हैं| कुछ बीमारी और अन्य कार्यों के कारण मैं फेसबुक से कुछ दिनों के लिए दूर हो गया कुछ न लिखना न पढ़ना बस देखना और सोचना बस तभी ख्याल आया कि जब नया स्मार्ट फोन लिया था तब दुनिया भर के एप्स डाउन लोड किये थे पर उनका लुत्फ़ नहीं उठा पाया जिंदगी की प्राथमिकताएं बदल चुकी थी और हम स्माईली और स्टीकर का इस्तेमाल नहीं सीख पाए हम ये नहीं बता सकते कि अपना ख्याल रखियेगा,कैसे हैं  जो अपने हैं उनका ख्याल रखा जाता है जताया नहीं जाता मिनट मिनट पर तस्वीरें खींच कर किस् से शेयर करता पर मेरे आस पास ऐसा बहुत कुछ हो रहा था और जब कुछ होता है तो उसका कोई कारण जरुर होता है बस मैंने खोजना शुरू किया तो बहुत से आंकड़े मिले जिनसे ये साबित हुआ कि स्थिर चित्र आजकल बोल रहे हैं खूब बोल रहे हैं स्मार्ट फोन के जरिये बस मिल गया एक लेख का मामला ऐसे ही एक बार किसी सिलसिले में कोर्ट जाना हुआ वहां कि भीड़ और व्यवस्था देखकर लगा आखिर ऐसा क्यूँ है तो पता पड़ा कि हमारी न्याय व्यवस्था पर कितना बोझ है तो ये तो कुछ बानगी है वैसे जो कुछ में लिख रहा होता हूँ सब हमारे आस पास या तो घटा होता है या घट रहा होता |जिंदगी कब कारवां बन जायेगी सोचा ना था जब ब्लॉग बनाया था तो कभी सोचा ना था कि दौ सौ पोस्ट तक पहुंचूंगा में मानता हूँ कि आज के ज़माने में ये इतना बड़ा आंकड़ा भी नहीं है पर दिल के खुश रखने को ये ख्याल अच्छा है तो जो लिखता हूँ बस अपने आप के लिए लिखता हूँ |ये प्रश्न अक्सर मेरे दिमाग में उठता है कि में क्यूँ लिखता हूँ और जो जवाब मिला वो अपने आप में एक कच्ची कविता के रूप में  आपसे साझा कर ले रहा हूँ 
सुनो 
मैं क्यूँ लिखता हूँ
भोली आशा 
घोर निराशा 
जीवन के हर कण को
मैं क्यूँ बिनता हूँ 
हार जीत के सपने को

सुख दुःख के ठगने को 
मैं क्यूँ चुनता हूँ
सवाल कई हैं जवाब नहीं हैं
क्यूँ गिरता हूँ और सम्हलता हूँ 
मैं क्यूँ लिखता हूँ 
मन के सूनेपन को 
जीवन के आलम्बन  को 
क्यूँ सहेजता चलता हूँ 
तुम भी वही हो 
मैं भी वही हूँ 
फिर दुनिया मेरी क्यूँ 
बदल रही है 
बताओ तो जरा 
मैं क्यूँ लिखता हूँ ........... 
उन सभी का शुक्रिया जो मेरी जिंदगी का हिस्सा बनें उनमें  कुछ बहुत कुछ ले गए और कुछ बहुत कुछ दे गए और इसी आदान प्रदान में जो कुछ दिमाग में आया वो लिखता गया 
किसी के लिए नहीं सिर्फ अपने लिए 

Friday, July 5, 2013

संवाद की नयी शैली बन गयी हैं तस्वीरें

जल्दी ही वह वक्त इतिहास हो जाने वाला है जब आपको कोई एस एम् एस मिलेगा कि क्या हो रहा है और आप लिखकर जवाब देंगे। अब समय  द्रश्य संचार का है| आप तुरंत एक तस्वीर खींचेंगे या वीडियो बनायेंगे और पूछने वाले को भेज देंगे यानि आपको कुछ कहने की जरुरत नहीं, कहने का काम अब तस्वीरें करेंगी|फोटो या छायाचित्र संचार का माध्यम रहे हैं पर सोशल नेटवर्किंग साईट्स और इंटरनेट के साथ ने इन्हें इंस्टेंट कम्युनिकेशन मोड(त्वरित संचार माध्यम) में बदल दिया है|अब शब्द नहीं भाव और परिवेश बोल रहे हैं|जहाँ संचार के लिए न तो किसी भाषा विशेष को जानने की अनिवार्यता है और न ही  वर्तनी और व्याकरण की बंदिशें|तस्वीरें एक सार्वभौमिक भाषा बनकर उभर रही हैं दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला व्यक्ति तस्वीरों और वीडिओ के माध्यम से अपनी बात दूसरों तक पहुंचा पा रहा है|मोबाईल पर लिखित एस एम् एस संदेशों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है|वायरलेस उद्योग की अन्तराष्ट्रीय संस्था  सी टी आई ए की रिपोर्ट के अनुसार साल 2012 में 2.19 ट्रिलियन एस एम् एस  संदेशों का आदान प्रदान पूरी दुनिया में हुआ जो 2011 की तुलना में भेजे गए संदेशों की संख्या 5 प्रतिशत कम रहा| वहीं मल्टीमीडिया मेसेज (एम् एम् एस ) जिसमें फोटो और वीडियो शामिल हैं की संख्या साल 2012 में 41 प्रतिशत बढ़कर 74.5 बिलियन हो गयी|एक साधारण तस्वीर से संचार,शब्दों और चिन्हों के मुकाबले कहीं आसान है|उन्नत होती तकनीक और बढते स्मार्टफोन के प्रचलन ने फोटोग्राफी को अतीत की स्मृतियों को सहेजने की  कला से आगे बढाकर एक त्वरित संचार माध्यम में तब्दील कर दिया है|फोन पर इंटरनेट और नए नए एप्स लगातार संचार के तरीकों को बदल रहे हैं|स्नैप चैट एक ऐसा ही मोबाईल एप्लीकेशन है जो प्रयोगकर्ता को वीडियो और फोटो भेजने की सुविधा प्रदान करता है| जिसमें फोटो वीडियो देखे जाने के बाद अपने आप हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है|स्नैप चैट के प्रयोगकर्ता प्रतिदिन 200 मिलियन चित्रों का आदान प्रदान कर रहे हैं|फेसबुक पर  लोग प्रतिदिन 300 मिलियन चित्रों का आदान प्रदान कर रहे हैं और साल भर में यह आंकड़ा 100 बिलियन का है| चित्रों का आदान प्रदान करने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या स्मार्ट फोन प्रयोगकर्ताओं की है जो स्मार्ट फोन द्वारा  सोशल नेटवर्किंग साईट्स का इस्तेमाल करते हैं और ये चीज संचार के क्षेत्र में बड़ा बदलाव ला रही है|मोबाईल एक ऐसी आवश्यक आवश्यकता बन कर हमेशा हमारे साथ रहता है|सिस्को के अनुसार वर्ष 2016 में दुनिया भर में दस अरब मोबाइल फ़ोन काम कर रहे होंगे|गूगल के एक सर्वे के मुताबिक, भारत में स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद फिलहाल अमेरिका के 24.5 करोड़ स्मार्टफोन धारकों से आधी से भी कम है पर उम्मीद है कि 2015 तक मोबाइल फोन इंटरनेट तक पहुंचने का बड़ा जरिया बनेंगे और 350 करोड़ संभावित इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में से आधे से ज्यादा मोबाइल के जरिये ही इंटरनेट का इस्तेमाल करेंगेऔर निश्चय ही तब छायाचित्र संचार का दायर और  बढ़ जाएगा।हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है की तकनीकी उन्नति के रथ पर सवार तस्वीरें आने वाले वक्त में मानव संचार की दुनिया बदल देंगी पर तस्वीर पूरी रंगीन हो ऐसा भी नहीं है। छायाचित्र संचार के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तकनीक है भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में डिजीटल डिवाईड बढ़ रहा है तो तस्वीर उतनी चमकीली भी नहीं है|
हिन्दुस्तान में 05/07/13 को प्रकाशित 

Tuesday, July 2, 2013

चलो आज कुछ खो कर देखें

लो भैया शुरू हो गयी बारिश और सब अपने अपने तरीके से वेदर को एन्जॉय कर रहे हैं बस बारिश के ऐसे  ही भीगे मौसम में मैं भी बारिश की बूंदों को एन्जॉय करते हुए जिंदगी के एक नए फलसफे के साथ आपके पास आ गया हूँ.यूँ तो बारिश का मतलब चाय पकोडे रेन कोट,रोमांस,बीते यादें और ढेर सारा फन और न जाने क्या क्या पर क्या वास्तव में ऐसा है बारिश मतलब पानी और पानी हमारे जीवन में क्या अहमियत रखता है ये कोई बताने वाली बात नहीं है पर जो बताने वाली बात है कि हमारे आस पास ऐसी सैकड़ों चीजें हैं जिनसे हम कुछ न कुछ सीख सकते हैं पर हम ऑबियस के आगे सोच ही नहीं पाते.मैंने बारिश से कितनी चीजों को जोड़ा पर बारिश इससे भी कुछ ज्यादा है.जीवन में जो चीज जितनी ज्यादा होती है हम उसकी कद्र उतनी ही कम करते हैं अब देखिये न दो महीने पहले हम जब गर्मी में झुलस रहे थे तो लगता था काश पानी बरस जाए अब पानी बरस रहा है और खूब बरस रहा है हम इसको सम्हालने के बारे में बिल्कुल नहीं सोच रहे हैं तो जीवन में जो भी हमें मिला है उसकी कद्र करनी चाहिए नहीं तो क्या पता बारिश में बरसने वाला पानी हमारी आँखों से बह निकले.माइंड इट अरे आपको गाड़ी धुलनी थी न तो नल का पानी क्यूँ बर्बाद कर रहे हैं अपनी गाड़ी को बाहर खड़ी कर दीजिए अपने आप धुल जायेगी.पानी के साथ कितनी कहावतें जुडी हैं पर हम उन पर ध्यान नहीं देते वास्तव में ये पानी ही है जो हमें जिंदगी जीने के मायने सिखाता है.पानी कभी ऊपर नहीं चढ़ता उसे चढाना पड़ता है पर भाई लोग हैं कि जरा सी बात पर पानी पर चढ जाते हैं और फिर अपना नुक्सान कर बैठते हैं.वैसे भी माना गया है कि स्वस्थ रहने के लिए रोज  ढेर सारा पानी पीना चाहिए पर हम अगर पानी को बचायेंगे नहीं तो पियेंगे क्या वैसे पानी को जिन्दगी के अनुभवों से भी जोड़ा जाता है वो कहते हैं न घाट घाट का पानी पीना तो जिंदगी को समझने के लिए जैसे बहुत सारे अनुभवों की जरुरत होती है उसी  तरह हर जगह के पानी की एक खास पहचान होती है कहीं का पानी मीठा होता है कहीं का खारा पर होता तो पानी ही है तो जिंदगी जैसी भी मिले उसे स्वीकार करके बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए.पानी का न कोई रंग होता है न स्वाद पर वो जिसके साथ मिलता है वैसा हो जाता है ऐसी फ्लेकस्बलटी अगर हम अपनी लाईफ  में उतार लें तो कोई प्रोब्लम न हों क्यूंकि प्रोब्लम की शुरुवात तभी होती है जब हम किसी से कोई एक्स्पेटेशन रखते हैं.बारिश के मौसम में जगह जगह नालियाँ चोक हो जाती है पर हम कभी यह मानने को तैयार ही नहीं होते की नालियाँ गंदे पानी को निकालने के लिए बनाई जाती हैं न कि कूड़ा डालने के लिए जब नालियों में कूड़ा और पौलीथीन जैसी चीजें फैंकी जायेंगी तो हमारे बारिश के मौसम में घर और बाहर का हाल बेहाल होगा ही अपने लिए हर किसी को कहाँ तक बदलेंगे तो चलिए हम खुद ही अपने आप को बदल लेते हैं और फिर देखिएगा जिंदगी जीने का मजा दुगुना हो जाएगा.कुछ  पाने का मजा तो सभी लेते हैं कुछ खो के देखा जाए अगर पानी अपने घर बादल को न खोये तो हम सब कहाँ बारिश का लुत्फ़ ले पायेंगे पर पानी बगैर किसी शिकायत के अपना घर छोड़ देता है. हमारे तन मन को भिगोने के लिए बारिश सबको भिगो देती है पर खुद नहीं भीगती तो जीवन में  कुछ भी कीजिये लेकिन सिर्फ उसी पर डिपेंडेंट मत हो जाइए और सबसे जरुरी अपनी आँख के पानी को बचा कर रखिये नहीं तो जीवन में आपको कब पानी पानी होना पड़  जाए कोई नहीं जानता.पानी के इस मौसम में  पानी की कहानी से सीख लीजिये और एन्जॉय रेन .
 आई नेक्स्ट में 02/07/13 को प्रकाशित 

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