भारतीय संविधान के अनुसार त्वरित न्याय प्रत्येक भारतीय का मौलिक अधिकार है। पर जैसा कि हमारे अन्य मौलिक अधिकारों के साथ होता है, इस मौलिक अधिकार को भी प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए हमारे पास संसाधनो का अभाव है और जो संसाधन हमारे पास हैं भी हम उनका उचित प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। चिंतनीय बात यह है भारत में प्रति-व्यक्ति न्यायाधीशों की संख्या बांग्लादेश से भी कम है। भारतीय न्याय आयोग की सन 1984 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उस समय भारत में प्रति दस लाख व्यक्ति पर 10 न्यायाधीश थे। सन 2007 तक आते-आते यह संख्या घट कर मात्र 6 रह गयी जबकि इसी वक़्त बांग्लादेश में प्रति दस लाख व्यक्ति पर न्यायाधीशों की संख्या 12 थी। हालांकि अप्रैल 2013 तक भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर 13 हो गयी थी परंतु यह संख्या भारतीय न्याय आयोग द्वारा जारी 120वीं रिपोर्ट में प्रास्तावित संख्या 50 से लगभग चार गुना कम है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वेबसाइट पर दिये गए आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 में 60 लाख से भी अधिक संज्ञेय अपराधों के मामले दर्ज किए गए। यदि ऊपर दिये गए इन दोनों आंकड़ों को हम मिलकर देखें तो यह साफ नज़र आता है कि स्थिति कितनी चिंताजनक है।
इस समस्या का कोई त्वरित समाधान नहीं है पर कुछ जो समाधान हमारे पास हैं हम उन्हें भी इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं या नहीं करना चाह रहे हैं। हमारे देश के अधिकतर न्यायालय लगभग एक महीने का ग्रीष्मकालीन अवकाश पर रहते हैं जबकि माननीय उच्चतम न्यायालय इससे कहीं अधिक पैंतालीस दिन के ग्रीष्मकालीन अवकाश पर रहता है,हालांकि भारतीय न्याय व्यवस्था में अवकाशकालीन न्यायालयों का प्रावधान है पर वे अत्यंत ही महत्वपूर्ण मुकदमों को छोड़कर और किसी मुकदमें के लिए नहीं हैं। ग्रीष्मकालीन अवकाश की व्यवस्था हमें अपनी अन्य कई व्यवस्थाओं की ही तरह अंग्रेजों से विरासत में मिली है। गर्मियों में अंग्रेज़ न्यायाधीश हमारे देश की प्रचंड गर्मी से बचने के लिए पहाड़ों पर चले जाते थे। उनके ऐसा करने के दो कारण थे एक कारण कि इंग्लैंड जैसे ठंडे देश से आने के कारण उनके लिए यहाँ की गर्मी जानलेवा सिद्ध हो सकती थी। दूसरा कारण यह कि वे राजा थे और हम प्रजा और राजा का हित सर्वोपरि होता है। यह दोनों ही कारण आज के समय में अर्थहीन हो चुके हैं तथा लोकतांत्रिक देश होने के कारण प्रजा का हित सर्वोपरि है पर जैसा कि हमारी व्यवस्था में परम्पराओं को नियम मान लेने की परिपाटी चली आ रही है तो हम समय की मांग को समझे बगैर अंग्रेजों द्वारा द्वारा बनाए गए अधिकतर परम्पराओं और नियमों का पालन आज़ादी के छ दशकों के बाद भी बड़ी शिद्दत से करते हैं शायद इसका भी मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि जो चल रहा है उसे चलते रहो वाली मनोवृति । हर परम्परा अपने वक्त का प्रतिनिधित्व करती है आज तकनीकी उन्नति और रहन सहन की बेहतर स्थिति के कारण कोर्ट-रूम आधुनिक सुख-सुविधाओं जैसे एयर-कंडीशनर आदि से लैस हो गए हैं तो ग्रीष्मकालीन अवकाश और भी औचित्यहीन हो जाते हैं तो ऐसे में इतने लंबे अवकाश् की परम्परा को ढोते रहना तर्कसंगत नहीं लगता|
नियमानुसार माननीय उच्चतम न्यायालय को 185 और उच्च न्यायलों को 210 दिन कार्य करना चाहिए पर अधिकतर यह संख्या कम ही रहती है। मद्रास उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका के अनुसार पिछले वर्ष मद्रास उच्च न्यायालय में केवल 155 दिन कार्य हुआ। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि न्यायाधीशों का कार्य अत्यंत ही संवेदनशील होता है और देश में न्यायाधीशों की संख्या कम होने के कारण उन पर आवश्यकता से अधिक बोझ है। साथ ही अवकाश न्यायाधीशों का अधिकार है और उन्हें अवश्य ही इसका लाभ मिलना चाहिए। पर इस समस्या का समाधान बहुत मुश्किल नहीं है। यदि अवकाश रोस्टर को परिक्रमण के आधार पर तैयार किया जाये तो इस समस्या का हल हो जाएगा। ग्रीष्मकालीन अवकाश के समर्थन में यह कहा जाता है कि इंग्लैंड में न्यायाधीशों को दो माह का अवकाश मिलता है और अमरीका में वे कभी भी छुट्टी पर जा सकते हैं पर तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि वहाँ न्यायालयों में आने वाले मुकदमों की संख्या भारत के मुकाबले काफी कम है। उदाहरण के लिए एक अमरीकी कोर्ट में सालाना केवल दस हज़ार के करीब मुकदमें आते हैं जबकि हमारे उच्चतम न्यायालय में लगभग 5500 मुकदमें प्रतिमाह दर्ज़ होते हैं। अतः यह आवश्यक है की ग्रीष्मकालीन अवकाश का समुचित प्रबंधन होना चाहिए,क्यूंकि न्यायालय आखिर हैं तो जनता के लिए वहीं इस बात का ध्यान भी रखा जाए कि न्याधीशों की कार्यक्षमता पर भी असर ना पड़े |
अमर उजाला में 10/07/13 को प्रकाशित
2 comments:
मुकुल जी,न्यायाधीशो पर इतना बोझ डाल कर उन से न्याय नहीं करवाया जा सकता। फिर वे दफ्तर के बाबू की तरह काम करने लगेंगे। न्याय कोई चारा काटने जैसा काम नहीं है। अदालतों में अवकाश तभी बंद किए जा सकते हैं जब न्याय प्रणाली के पास स्थानापन्न न्यायाधीश हों। पर वह तो संभव नही है क्यों कि अभी तो स्थिति यह है कि जितने न्यायालय हैं उतने जज नहीं हैं। एक न्यायालय पाँच जजों का बोझा ढो रहा है फिर एक जज के पास दो दो न्यायालयो के कार्यभार हैं इस तरह अनेक जज हैं जो दस जजों का बोझा उठा रहे हैं। नतीजा यह है कि अनेक को तो अपने जीवनकाल में न्याय कभी नहीं मिलता। सही तरीका तो यही है कि जजों की संख्या बढ़ाई जाए। योजना बनाई जाए की 5 या 7 वर्षों में जजों की संख्या दसलाख की आबादी पर 50 कर दी जाएगी। पर केन्द्र और राज्य सरकारें इस के लिए धन देने को तैयार नहीं है। हों भी क्यों? न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए जो धन बजट में तय होता है उस पर कमीशन जो नहीं मिलता।
mukul ji apne bade he gambhir samsya per likha.mer manna ha ki nyaypalica me gov k hastchep ko hatana chahie hum kewl kahte ha ki nyaypalica swtantra ha per vah vastav me ha nahhi
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