Saturday, August 17, 2013

भोजन देने भर से नहीं मिटेगा कुपोषण

संसद के इस सत्र में खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित हो जाता है तो हो सकता है कि हम भुखमरी की समस्या से भी कुछ हद तक निजात पा लें। परंतु एक समस्या जिसपर किसी का भी ध्यान नहीं जाता है वह समस्या है कुपोषण की। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत कुपोषित बच्चों की संख्या के मामले में विश्व में दूसरे स्थान पर है। भविष्य की विश्व शक्ति होने का सपना देखने वाले देश जिसे अपने जनसांखयकी लाभांश पर बहुत गर्व है के लिए यह एक बेहद चिंताजनक बात है। यूनिसेफ के अनुसार भारत में लगभग सात करोड़ बच्चे सामान्य कद से काफी छोटे हैं। यह संख्या दुनिया में सर्वाधिक है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में तकरीबन बीस प्रतिशत अपने कद के अनुपात में काफी कमज़ोर और दुबले-पतले हैं। 2012 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़ों के मुताबिक कम वज़न के बच्चों के मामले में भारत बांग्लादेश और तिमोर जैसे अल्प विकसित देशों के साथ खड़ा नज़र आता है। हमारे देश में पाँच वर्ष से कम के लगभग 44 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम वज़न के हैं। वर्ष 2005 से 2010 के बीच इन आंकड़ों में हमारी स्थिति इथियोपिया, नाइज़र,  नेपाल और बांग्लादेश से भी खराब थी। हालांकि विगत कुछ वर्षों से भारत ने इस समस्या से निपटने के लिए कई कदम उठाए है पर सही क्रियान्वयन औरविश्वसनीय  जानकारी के अभाव में वे सभी कदम नाकाफी साबित हुए हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार भुखमरी से पीड़ित 80 देशों में भारत 67वें स्थान पर है जो कि एक अत्यंत ही चिंताजनक स्थिति है। एक मिथ जिससे हमारी सरकारें और शासकीय तंत्र ग्रसित है वह यह है कि मात्र आर्थिक विकास से ही कुपोषण की समस्या से निपटा जा सकता है। यदि हम अपने देश के सर्वाधिक विकसित राज्यों में से एक गुजरात की बात करें तो सच्चाई खुद् ब खुद ही सामने आ जाएगी। गुजरात में 45 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। खुद सरकारी आंकड़ें ये मानते हैं की गुजरात में पाँच वर्ष से कम का हर दूसरा बच्चा कम वज़न वाला है। इन आंकड़ों से यह साफ हो जाता है की केवल आर्थिक विकास से ही कुपोषण की समस्या से नहीं निपटा जा सकता है। इसके लिए आवश्यकता है जन केन्द्रित प्रयासों की जिसमें लोगों को इस दिशा में जागरूक करने जैसे विकल्पों पर ज्यादा जोर देने की आवयश्कता है| कुछ राज्य सरकारों ने इस दिशा में कदम उठाने शुरू किए हैं। कर्नाटक  सरकार जल्द ही तीन से छह वर्ष की उम्र के बच्चों में कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए आंगनवाड़ी केन्द्रों के माध्यम से दूध वितरण की योजना लागू करने जा रही है।छत्तीसगढ़ सरकार भी बच्चों में कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए फुलवारी नामक योजना की शुरुआत करने जा रही है। इन योजनाओं का हश्र चाहे जो भी हो पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि यह साराहनीय प्रयास हैं और हमारे देश को ऐसी अनेकों योजनाओं की जरूरत है। खाद्य एवं कृषि संस्था (एफ ए ओ) के अनुसार भारत की लगभग 22 प्रतिशत आबादी कुपोषित है। राष्ट्रीय  परिवार स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार भारत में पाँच वर्ष से कम आयु के लगभग 48 प्रतिशत बच्चे बौनेपन और लगभग 43.5 प्रतिशत बच्चे कम वजन की समस्या से ग्रसित हैं। एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा 1970 से 1976 के बीच 63देशों में कराये गए एक सर्वे के अनुसार उस दरमयान उन देशों में कुपोषण में जो कमी आई उसका एक प्रमुख कारक महिलाओं की साक्षारता दर में वृद्धि थी। हमारे देश में भी महिलाओं का निरक्षर होना और पर्याप्त साफ़ सफाई का न होना बच्चों में कुपोषण का एक बड़ा कारक है। सरकार के लिए देश के इतने बच्चों का क़द गिरने से अधिक रुपये का गिरना महत्वपूर्ण रहा। बच्चियों के संदर्भ में हालात और भी बदतर हैं जहां गाँवो में तेजी से बढ़ती लड़कियों की ख़ुराक इसलिए कम कर दी जाती कि वे ज़्यादा बड़ी ना लगें|भारत दुनिया का सबसे बड़ा खुला शौचालय वाला देश है जहाँ दुनिया के साठ प्रतिशत लोग खुले में शौच करते हैं और उस मल के उचित प्रबंधन की कोई व्यवस्था नहीं है अंदाजा लगाया जा सकता है स्थिति कितनी शोचनीय है| जिसमे बांग्लादेश ,नेपाल ,पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशभी खुले शौचालय के मामले में हमसे बेहतर स्थिति में है|शौचालयों के न होने का अर्थ है  लोग खुले में शौच करने के लिए मजबूर हैं जिससे बच्चों में जीवाणु संक्रमण का खतरा बढ़ जाता हैजो छोटी आंतों को नुकसान पहुंचा सकता है जिससे बच्चों के बढ़नेविकास के लिए आवश्यक पोषक तत्वों को ग्रहण  करने की क्षमता या तो कम हो जाती है या रुक जाती हैतो  इससे कोई असर  नहीं पड़ता कि उन्होंने कितना भोजन खाया है।कुपोषण एक स्वास्थ्य समस्या के साथ भारत के संदर्भ में एक सांस्कृतिक जटिलता भी है जहाँ खुले में शौच को सामजिक मान्यता  मिली हुई है पर इस मान्यता से कितनी तरह की स्वाश्य समस्याएं पैदा हो रही हैं इस ओर लोगों का ध्यान कम ही जाता है|इकॉनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक शोध पत्र  में यूनिवर्सिटी ऑफ सूसेक्स और यूनिसेफ के ग्रेगोर वॉन मेडीज़ा ने यह निष्कर्ष निकाला है कि स्वच्छता और कम पोषण के बीच संबंध को व्यापक तौर पर अनदेखा किया जा रहा है|विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत  कि पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों के कुपोषित होने की मुख्य वजह दस्त है। विश्व में प्रत्येक वर्ष इस उम्र वर्ग के 800,000 से ज्यादा बच्चों की दस्त से मृत्यु होती है,और  इनमें से एक चौथाई मौतें भारत में होती हैं| इसका सीधा सा आशय यह है कि स्वच्छता योजनाओं पर अंधाधुँध पैसा बहाने के बजाय लोगों को जागरुक करने के लिए संवेदनशील क़दम उठाये जायें। नन्हें मुन्हों की मुट्ठी में उनका भविष्य तभी सुरछित है जब उनकी मुट्ठियाँ साफ़ और कीटाणु रहित होंगी|कुपोषण के विभिन्न आयाम हैं। स्वछता, साफ पीने के पानी की उनुपलब्धता, शौचालयों की कमी एवं मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी भी कुपोषण के कुछ प्रमुख कारक हैं। सरकार भोजन की उपलब्धता की गारंटी तो सुनिश्चित कर रही है पर वो भोजन कैसा होगा और किन पर्यावासों में उसका उपयोग किया जाएगा यह तथ्य पूरी तरह से नजरंदाज किया जा रहा है|
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित लेख 17/08/13 को

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