अपराध का कोई चरित्र नहीं होता है- अपराध समाजविरोधी वह क्रिया है जो समाज और विधि द्वारा निर्धारित आचरण का उल्लंघन या उसकी अवहेलना है। भारतीय समाज भी अपराधों से अछूता नहीं है। पिछले कुछ सालों में हमारे यहां बलात्कार की घटनाओं में काफी इजाफा हुआ है। बढ़ते बलात्कार सामजिक समस्या के साथ साथ कानूनी समस्या भी हैं। किसी भी सभी समाज में अपराधों के बढ़ने का मतलब है न्याय व्यवस्था पर ज्यादा भार, खासकर भारत जैसे देश में जहां न्यायालयों पर जरूरत से ज्यादा बोझ का असर न्याय में देरी के रूप में सामने आ रहा है। मुकदमों की त्वरित सुनवाई के लिए सरकार ने विशेष मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन की घोषणा की है। बलात्कार के बढ़ते मामलों का बोझ फास्ट ट्रैक अदालतों पर भी पड़ रहा है क्योंकि मुकदमों की संख्या में वृद्धि हो रही है। महिलाएं मुखरता से अपने साथ हुई ज्यादती को अब बयान कर रही हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित होने के कुछ दिन पूर्व दिल्ली में बलात्कार के चौदह सौ मामले सुनवाई का इंतजार कर रहे थे। अगस्त के मध्य तक, ये आंकड़ा बढ़कर 1,670 हो गया। पर तथ्य यह भी है कि औसत मुकदमे में लगने वाला समय कई सालों से घटकर लगभग 8-10 महीने रह गया है। हालांकि निराशाजनक बात यह है कि अपराध साबित होने की दर नहीं बढ़ी है । 2012 में दिल्ली के विभिन्न न्यायालयों ने बलात्कार के 547 मुकदमों की सुनवाई पूरी की, जिनमें 204 पुरु षों पर अपराध सिद्ध हुए, इस तरह अपराध के साबित होने की दर 37 प्रतिशत रही। इस साल जून तक, फास्ट ट्रैक न्यायालयों में 299 मुकदमों की सुनवाई हुई, जिनमें से 95 पुरुषों पर अपराध साबित हुआ, यानी अपराध साबित होने की दर 32 प्रतिशत रही। राजस्थान, जहां फास्ट ट्रैक न्यायालय 2005 से स्थापित हैं वहां बलात्कार जैसे मामलों में अपराध साबित होने की दर करीब पचीस प्रतिशत है। बलात्कार के अतिरिक्त अन्य अपराधों में पकड़े गए लोग भी अदालतों में इंतजार ही कर रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2012 में तीन करोड़ से ज्यादा लोग गंभीर अपराधों में मुकदमों पर निर्णय का इंतजार कर रहे थे। देश के कानून मंत्रालय का कहना है कि इनमें से एक-चौथाई मुकदमे पांच साल से भी पुराने मामलों से जुड़े थे, इनमें से करीब एक लाख बलात्कार के मामले थे। 2012 में महज 15 हजार से भी कम बलात्कार के मुकदमों की सुनवाई पूरी हुई। भारतीय न्याय आयोग की सन् 1984 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उस समय भारत में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर 10 न्यायाधीश थे। सन् 2007 तक आते-आते यह संख्या घट कर मात्र छह रह गई, जबकि इसी वक्त बांग्लादेश में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर न्यायाधीशों की संख्या 12 थी। हालांकि अप्रैल 2013 तक भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर 13 हो गई थी, परंतु यह संख्या भारतीय न्याय आयोग द्वारा जारी 120वीं रिपोर्ट में प्रस्तावित संख्या 50 से लगभग चार गुना कम है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वेबसाइट पर दिए गए आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 में 60 लाख से भी अधिक सं™ोय अपराधों के मामले दर्ज किए गए। यदि ऊपर दिए गए इन दोनों आंकड़ों को हम मिलकर देखें तो यह साफ नजर आता है कि स्थिति कितनी चिंताजनक है। सरकार ने 2001 और 2011 के बीच करीब 1,500 फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किए। लेकिन कोर्ट व्यवस्था से गुजरने वाले मामलों के लिए सरकारी वकीलों और न्यायाधीशों की संख्या अपर्याप्त है। देश की अदालतों में 2 करोड़ 60 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। इनमें से कुछ मामले पचास साल से भी ज्यादा पुराने हैं। साफ है कि हमारी न्यायपालिका मुकदमों के अतिशय भार से दबी हुई है। उदाहरण के लिए एक अमेरिकी कोर्ट में सालाना केवल दस हजार के करीब मुकदमे आते हैं जबकि हमारे उच्चतम न्यायालय में लगभग 5500 मुकदमे प्रतिमाह दर्ज होते हैं। पिछले वर्ष तिहाड़ में बंद 12,194 कैदियों में से 73.5 प्रतिशत अपने मुकदमे की सुनवाई शुरू होने का इंतजार कर रहे थे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2010 तक देश के 2.4 लाख कैदियों में 65.1 प्रतिशत अपने मुकदमों के शुरू होने का इंतजार कर रहे थे और 1,659 कैदी यानी कुल कैदियों की संख्या के 0.7 प्रतिशत , बगैर मुकदमा शुरू हुए पिछले पांच सालों से जेल में थे। न्याय मिलने में लेटलतीफी की इस समस्या का कोई त्वरित समाधान नहीं है, पर जो समाधान हमारे पास हैं हम उन्हें भी इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं या नहीं करना चाह रहे हैं। हमारे देश के अधिकतर न्यायालय लगभग एक महीने के ग्रीष्मकालीन अवकाश पर रहते हैं, जबकि माननीय उच्चतम न्यायालय इससे कहीं अधिक पैंतालीस दिन के ग्रीष्मकालीन अवकाश पर रहता है। हालांकि भारतीय न्याय व्यवस्था में अवकाशकालीन न्यायालयों का प्रावधान है, पर वे अत्यंत ही महत्वपूर्ण मुकदमों को छोड़कर और किसी मुकदमें के लिए नहीं हैं। ग्रीष्मकालीन अवकाश की व्यवस्था हमें अपनी अन्य कई व्यवस्थाओं की ही तरह अंग्रेजों से विरासत में मिली है। नियमानुसार माननीय उच्चतम न्यायालय को 185 और उच्च न्यायालयों को 210 दिन कार्य करना चाहिए, पर आमतौर पर यह संख्या कम ही रहती है। मसलन, एक आंकड़े के अनुसार पिछले वर्ष मद्रास उच्च न्यायालय में केवल 155 दिन कार्य हुआ। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि न्यायाधीशों का कार्य अत्यंत ही संवेदनशील होता है और देश में न्यायाधीशों की संख्या कम होने के कारण उन पर आवश्यकता से अधिक बोझ है। मुकदमों की संख्या बढ़ने और उनके सालों घिसटने में कुछ लोगों का अपना स्वार्थ भी होता है। इसके पीछे ज्यादातर यह मानसिकता काम कर रही होती है कि मुकदमे में लगने वाले समय और होने वाले खर्च से कमजोर आर्थिक स्थिति वाले लोग हालात से समझौता कर मुकदमा या तो बीच में छोड़ कर हार मान लेंगे या अदालत के बाहर कोई राजीनामा कर ही लेंगे। हालांकि तथ्य यह भी है कि अगर न्यायाधीश मुकदमों के लिए अनावश्यक तारीख मांगने वाले पक्ष की मंशा को भांप लेते हैं तो वे अपने विवेक से उन्हें रोक सकते हैं। पर मौजूदा स्थिति में इस अधिकार का इस्तेमाल कम ही होता दिखता है। अगर देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति बदलनी है और जेलों को सही मायने में सुधार गृह की तरह बनाना है तो न्यायालयों में तेजी से फैसले करने वाले न्यायाधीशों को प्रोत्साहित करने और आदतन मुकदमों को लटकाने वाली व्यवस्था को हतोत्साहित करने के लिए कुछ प्रावधान होने चाहिए। इसमें कोई संशय नहीं है कि देश की अदालतों में मुकदमों के बोझ को कम किया जाना बहुत जरूरी है। हालांकि न्यायतंत्र से जुड़े अति संवेदनशील मुद्दे पर निर्णय इतनी आसानी से नहीं लिया जा सकता, पर अब वह वक्त आ गया है जब हमें गंभीरता से इस बात को समझना पड़ेगा कि मुकदमों का त्वरित निपटारा जहां लोगों को तुरंत न्याय दिलवाएगा, वहीं जेलों को ऐसे विचाराधीन कैदियों की संख्या से छुटकारा मिलेगा जिनको अभी ये पता ही नहीं कि वे दोषी हैं भी या नहीं। तभी हमारी जेलें सही मायने में सुधार गृह बन पाएंगी।
राष्ट्रीय सहारा में 19/09/13 को प्रकशित
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