पर्यावरण एक चक्रीय व्यवस्था है। अगर इसमें कोई कड़ी टूटती है, तो पूरा चक्र प्रभावित होता है। पर विकास और प्रगति के फेर में हमने इस चक्र की कई कड़ियों से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है। पूंजीवाद के इस युग में कोई चीज मुफ्त में नहीं मिलती, इस सामान्य ज्ञान को हम प्रकृति के साथ जोड़कर न देख सके, जिसका नतीजा धरती पर अत्यधिक बोझ के रूप में सामने है, फिर वह चाहे जनसंख्या का हो या अनाज उत्पादन का। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, हर साल दुनिया भर में भोजन की बर्बादी से करीब सात सौ अरब डॉलर का नुकसान होता है। एफएओ द्वारा कराया गया यह अध्ययन अपनी तरह का पहला है, जिसमें पर्यावरण की दृष्टि से भोजन की बर्बादी के प्रभाव का विश्लेषण किया गया है।
यह अध्ययन साफ तौर पर इंगित करता है कि हम अपनी जनसंख्या का पेट भरने के लिए जितना भोज्य पदार्थ हर वर्ष बनाते हैं, उसका लगभग एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। आंकड़ों में यह हिस्सा लगभग एक अरब तीस करोड़ टन होता है। रिपोर्ट के अनुसार, भोजन की चौवन प्रतिशत बर्बादी उत्पादन, कटाई और भंडारण के वक्त होती है, जबकि छियालीस प्रतिशत बर्बादी वितरण और खपत के दौरान होती है। इसी रिपोर्ट के अनुसार, हर दिन दुनिया के लगभग 87 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। यह महज खाद्य पदार्थों की बर्बादी नहीं है, बल्कि इस पूरी प्रक्रिया में शामिल सभी प्रकृति प्रदत्त अवयवों की बर्बादी होती है, वह चाहे ऊर्जा हो या पानी, सभी का दोहन होता है। पर उनका उपयोग नहीं होता, जिसका परिणाम पर्यावरण के ऊपर अतिरिक्त दबाव और असंतुलित विकास के रूप में सामने आता है। भारत जैसे विकासशील देश में जहां भुखमरी जैसी समस्या का हल करने के लिए सरकार को खाद्य सुरक्षा कानून लाना पड़ा, वहां अनाज का भंडारण एक बड़ी चुनौती है। संसद को दिए गए एक जवाब के अनुसार, देश में हर साल 13, 309 करोड़ रुपये की फल और सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं। इस आंकड़े में अगर गेहूं, चावल व अन्य अनाज की कीमत को भी जोड़ दी जाए, तो यह संख्या बढ़कर 44 हजार करोड़ रुपये हो जाती है। खाद्यान्न उत्पादन का बढ़ना तभी बेहतर माना जाएगा, जब लोग उसका उपयोग कर पाएं और हमारा मानव संसाधन बेहतर हो, लेकिन यदि ऐसा नहीं हो पा रहा है, तो हम दोहरे संकट में हैं। एक ओर जहां हम ज्यादा खाद्यान्न पैदा कर धरती की उर्वरा शक्ति से खिलवाड़ कर रहे हैं, जिसमें पानी और ऊर्जा के लिए लकड़ी, कोयला व गैस जैसे अवयवों का अनियंत्रित दोहन भी शामिल है, वहीं इसका फायदा उन लोगों को नहीं हो रहा है, जिन्हें ज्यादा जरूरत है।
भारत में खाद्यान्न उत्पादन 2,510 लाख टन के साथ अब तक के रिकॉर्ड स्तर पर है, पर ये आंकड़े महज दिल को बहलाने के लिए हैं, क्योंकि तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। योजना आयोग द्वारा 2012 में गठित सुमित्रा चौधरी समिति ने भी माना था कि देश को 613 टन भंडारण क्षमता की जरूरत है, जबकि मौजूदा क्षमता मात्र 290 टन की है, यानी मौजूदा अंतर 320 टन का है। इस समस्या के अन्य आयाम भी हैं। भारत जैसे देश में जहां खाद्य पदार्थों के संरक्षण और बचत को लेकर जागरूकता का अभाव है, वहीं शादी और अन्य सामाजिक आयोजनों में भोजन की बर्बादी आम है। आंकड़ों के आईने में एक बात तो साफ है कि प्रकृति सबका पेट भरने लायक खाद्यान्न पैदा करती है, पर हम उनका समान वितरण कर पाने में विफल रहे हैं, जिसका नतीजा अन्न की बर्बादी के रूप में सामने आ रहा है।
रिपोर्ट का मानना है कि यदि खाद्य पदार्थों की बर्बादी को हम कम कर पाने में सफल हो जाएं, तो गरीबी की समस्या से निपटा जा सकता है। नष्ट होते खाद्यान्न पर लगने वाले खर्च का निवेश कर आर्थिक रूप से बदहाल तबके का जीवन बेहतर किया जा सकता है, लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है। इसके लिए सभी को मिलकर प्रयास करना होगा, सरकार जहां भंडारण और परिवहन से होने वाली खाद्यान्न की बर्बादी रोकने के लिए पहल कर सकती है, वहीं लोगों को भी अपनी आदतें बदलनी होंगी, ताकि भोजन की बर्बादी न हो।
अमर उजाला में 27/09/13 को प्रकाशित
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