चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है
कि देश की राजनीति की दशा और दिशा दोनों बदल रही है कांग्रेस की हार अप्रत्याशित
नहीं थी पर चौंकाने वाली खबर बनी तीसरी मोर्चे की हार. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट
पार्टी, भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड),समाजवादी पार्टी , अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल, जनता दल
(सेक्युलर), झारखंड
विकास मोर्चा, फ़ॉरवर्ड
ब्लॉक, रिवोल्यूशनरी
सोशलिस्ट पार्टी और असम गण परिषद जैसी पार्टियों को मिलाकर बना ये भानुमती का
कुनबा देश को उम्मीद नहीं दे सका.माना जाता है की दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर गुजरता
है और उत्तर भारत में तीसरे मोर्चे के घटक दलों ने दयनीय प्रदर्शन किया
है.उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी वहीं बिहार में जनता दल यूनाइटेड अपने प्रदेश
में लोगों की उम्मीद पर खरे नहीं उतरे,जबकि ओडीशा में बीजू जनता दल और
तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक ने अच्छा प्रदर्शन किया है.साफ़ है कि तीसरे मोर्चे की
अवधारणा को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया.ये इतनी बार बना और बिगड़ा है कि जनता ने
ये मान लिया कि इस मोर्चे के पीछे कोई वैचारिक प्रतिबधता नहीं बल्कि कुछ दलों की
निजी राजनैतिक महत्वाकांक्षा मात्र है,तीसरे मोर्चे के
विचार को आगे बढ़ाने में हमेशा आगे रहने वाले वाम दल लगातार अपनी राजनैतिक ज़मीन
खोते जा रहे हैं,पश्चिम
बंगाल में इनका सूपड़ा साफ़ होना इस बात का संकेत है कि इनके वोट बैंक में एक नयी
राजनैतिक चेतना का सूत्रपात हो रहा है जिसकी ओर इन दलों ने ध्यान नहीं दिया,भारत में
उदारीकरण की लहर और बाजारवाद के उदय ने दलितों ,वंचितों और अल्प्सख्यकों में एक नए मध्यम वर्ग का सृजन किया है जो सिर्फ नारों
और जनवादी गीतों से बहलने वाला नहीं है
उसे भी एक बेहतर जीवन शैली की तलाश है.जाहिर है वाम दल उस बेहतर जीवन शैली की
उम्मीद को हकीकत का जामा अभी तक नहीं पहना पाए हैं.उत्तरप्रदेश और बिहार में
समाजवादी आन्दोलन सिर्फ यादव और मुस्लिम केन्द्रित होकर रह गया जिसका खामियाजा
उन्हें इस चुनाव में भुगतना पड़ा.तथ्य यह भी है कि तीसरे मोर्चे का कोई चेहरा नहीं
था.बी जे पी जहाँ मोदी के नाम पर मैदान में थी वहीं कांग्रेस में नेतृत्व की कमान
राहुल गांधी के हाथ में थी जबकि तीसरा मोर्चा इस परिकल्पना पर आगे बढ़ रहा था की
जिस पार्टी को ज्यादा सीट मिलेगी उस दल का नेता प्रधानमंत्री बनेगा.इस परिकल्पना
ने मतदाताओं को यह सोचने पर मजबूर किया कि इस बार के तीसरे मोर्चे का भविष्य भी
अतीत में बने तीसरे मोर्चे जैसा ही होगा,जबकि देश स्थिर और मजबूत सरकार की
उम्मीद में था.जाहिर है कि बीजेपी के विकास के मुद्दे के आगे तीसरे मोर्चे की
सेक्युलर सोच को प्राथमिकता में नहीं रखा. इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया
के मुताबिक, देश
के 24
राज्यों में इंटरनेट उपयोगकर्ता मतदान में तीन से चार प्रतिशत तक का बदलाव
लाएंगे.बीजेपी ने जिस तरह साइबर वर्ल्ड में सोशल मीडिया की सहायता से अपना प्रचार
अभियान छेड़ा तीसरे मोर्चे के घटक दल उसमें भी बहुत पीछे छूट गए.उत्तर प्रदेश में
समाजवादी पार्टी ने भले ही पंद्रह लाख लैपटॉप बांटे पर सोशल मीडिया में समाजवादी
पार्टी की उपस्थिति नगण्य रही और यही हाल तीसरे मोर्चे के अन्य घटक दलों का भी
रहा.जाहिर है तीसरे मोर्चे के घटक दल हवा का रुख भांप कर रणनीति बनाने में असफल
रहे सूचना तकनीक के इस युग में जब वक्त के हर लम्हे का दस्तावेजीकरण हो रहा है और
जनता भी बदल रही है ऐसे में तीसरा मोर्चा
उम्मीद का विकल्प नहीं बन पाया.
पत्रिका में 17/05/14 को प्रकाशित
2 comments:
इसका प्रमुख कारण है तीसरे मोर्चे में शामिल सभी घटक दलों के अपने-अपने स्वार्थ जिसके कारण ज्यादातर दल चुनाव के बाद उस दल को समर्थन देने में जरा सी भी देर नहीं लगाते जिसकी सरकार बनने वाली होती है और पूरे 5 वर्ष के कार्यकाल में जनता के अपेक्षाओं को दरकिनार कर अपनी सीटों और समर्थन का दबाव बनाकर सरकार से अपने हितों के लिए मोलभाव किया करती हैं ॥
और यूपीए 2 का कार्यकाल इसका बेहतर उदाहरण रहा है जिसकी सजा जनता ने इन्हें इस बार के चुनाव में दी है॥
जनता अब समझदार हो रही है।, यही कारण है कि तीसरा मोरचा पूरी तरह से धराशाई हो गया। सभी राजनैतिक दल अपने अपने स्वार्थ के कारण इस बार पीछे हो गए। सोशल मीडिया में युवा वर्ग को नहीं भाप पाये। जनता की उम्मीदों से कोई मतलब नहीं बस अपनी सरकार बननी चाहिए या अपनी सीटे बढ़नी चाहिए। ताकि हम बनती हुई सरकार से कुछ मोलभाव कर सके आदि। लेकिन देश की जनता अब जागरूक हो रही है। और मौजूदा केंद्र सरकार से बहुत बड़ी आस है।
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