Friday, February 20, 2015

बुरी नजर के साए में है हमारे बच्चे

बच्चे मन के सच्चे यूँ ही नहीं कहा जाता सच ही तो है बच्चे आमतौर पर छल कपट से दूर होते हैं उनका भोलापन ही बचपने की पहचान है पर जब समय से पहले उनका भोलापन छीना जा रहा हो तो चेतने की जरुरत हो जाती हैभारत में लगभग चार करोड तीस लाख  (430 मिलियन) बच्चे हैंजो देश की  कुल आबादी का एक-तिहाई हैं। यह संख्या विश्व की कुल बाल आबादी का पांचवा हिस्सा हैं। जब संख्या इतनी ज्यादा हो तो उनकी जरूरतों और उम्मीदों पर समाज में जागरूकता होनी चाहिए पर भारत में कम से कम ऐसा हो नहीं रहा है |वे यौन शोषण का शिकार होकर अपना बचपना खो रहे हैं और बहुत सी मनोवैज्ञानिक समस्याओं का शिकार भी हो रहे हैं |
संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के मुताबिक : “एक बच्चे और उम्रदराज़ अथवा ज्यादा समझदार बच्चे अथवा वयस्क के बीच संपर्क अथवा बातचीत (अजनबीसहोदर अथवा अधिकार प्राप्त शख्सजैसे अभिभावक अथवा देखभाल करने वाला)के दौरान जब बच्चे का इस्तेमाल एक उम्रदराज़ बच्चे अथवा वयस्क द्वारा यौन संतुष्टि के लिए वस्तु के तौर पर किया जाए। बच्चे से ये संपर्क अथवा बातचीत ज़ोर-जबरदस्तीछल-कपटलोभधमकी अथवा दबाव में की जाए।
महिलाओं के प्रति यौन अपराधों के विरोध में एक सशक्त जनमत का निर्माण हो रहा है और महिलायें भी अब पहले से ज्यादा मुखरता से अपने प्रति हुए अपराधों पर खुलकर सामने आ रही हैं पर हमारे समाज में बच्चों के प्रति होने वाली यौन हिंसा के बारे में लोगों का रवैया उदासीन है | तथ्य यह भी है कि किसी समाज की  संवेदनशीलता का स्तर उसके अपने बच्चों के साथ किये गए व्यवहार से परिलक्षित होता है|यौन हिंसा किसी भी सामजिक स्थिति में स्वीकार्य नहीं होती है,पर जब बात बच्चों की हो तो समस्या की गंभीरता बढ़ जाती है|
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक देश में बाल यौन उत्पीडन  के मामले तीन सौ छत्तीस प्रतिशत बढ़ गए हैं | साल 2001 2011 के बीच कुल 48,338 बच्चों से यौन हिंसा के मामले दर्ज किये गए,साल 2001 में जहाँ इनकी संख्या 2,113 थी वो 2011 में बढ़कर 7,112 हो गई ` |महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये ऐसे मामले हैं जो रिपोर्ट किये गए हैं|रिपोर्ट के मुताबिक़ बच्चों के प्रति बढ़ती यौन हिंसा बहुत तेज बढ़ रही है| हमारा सामाजिक ताना बाना और सेक्स शिक्षा के अभाव में किसी भी पीड़ित बच्चे के साथ ऐसा कुछ भी होता है तो उसे समझ ही नहीं आता कि वो क्या करे|
बच्‍चों के साथ हुए ऐसे कृत्य के परिणाम बहुंत गंभीर होते हैं जिससे पूरा समाज प्रभावित होता है| तथ्य यह भी है कि हमारी समाजीकरण प्रक्रिया में अभी तक बच्चों के पास इस पाशविक व्यवहार के लिए कोई शब्द विज्ञान या भाषा ही नहीं है उनके पास महज हाव भाव ही होते हैं और हर अभिभावक इतना जागरूक और पढ़ा लिखा हुआ हो ये जरूरी नहीं|
 भारत आबादी के लिहाज से दुनिया के ऐसे देशों में आगे है जिसकी आबादी का बड़ा हिस्सा युवा वर्ग से बनता है आर्थिक विकास परिप्रेक्ष्य में यह वरदान सरीखा हैलेकिन अपने युवाओं की सही देखभाल न कर पाने से देश  अपने जनसांख्यिकीय लाभ का पूरी तरह फायदा पाने में पिछड सकता है कारण बाल उत्पीडन की संख्या में हो रही लगातार वृद्धि|हालंकि सरकार ने यौन-अपराध बाल संरक्षण अधिनियम(POCSO) लागू कर दिया है  जिसके अंतर्गत  बाल-उत्पीड़न के सभी प्रकारों को पहली बार भारत में विशिष्ट अपराध बना दिया गया लेकिन पर्याप्त जागरूकता के अभाव और संसाधनों की कमी के चलते व्यवहार में  कोई ठोस बदलाव होता नहीं दिख रहा है|बच्चे लगभग हर जगह उत्पीडन के शिकार हैं  अपने घरों के भीतरसड़कों परस्कूलों मेंअनाथालयों में और सरकारी संरक्षण गृहों में भी संयुक्त राष्ट्र की संस्था एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राईट्स के प्रकाशन इंडियाज हेल हाउस यह बताता है कि बच्चे बाल संरक्षण गृहों में भी सुरक्षित नहीं इस रिपोर्ट में कुल 39 मामलों को आधार बनाया गया है इन 39 मामलों में से बाल यौन हिंसा के ग्यारह मामले सरकार द्वारा संचालित बाल संरक्षण गृहों में हुए|
  इस समस्या का एक साँस्कृतिक पक्ष भी है|हम एक युवा आबादी वाले देश में पुरातन पितृसत्तात्मक सोच के साथ बच्चों को पालते हैं और अपनी सोच को उन पर इस तर्क के साथ थोप देते हैं कि ये तो बच्चे हैंपरिणाम बाल विवाह,ऑनर किलिंग और भ्रूणहत्या जिनका समाधान सिर्फ कानून बना कर नहीं हो सकता है|पारिवारिक ढांचे में यह  सच है कि बच्चों की कोई नहीं सुनता वो भी यौन शोषण जैसे संवेदनशील विषय पर तब सम्बन्धों,परिवार की मर्यादा आदि की आड़ लेकर बच्चों को चुप करवा दिया जाता है,इसलिए बाल उत्पीडन के वही मामले दर्ज होते हैं जिसमें शारीरिक क्षति हुई होती है|बाल यौन उत्पीडन एक स्वस्थ बाल मस्तिष्क को हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त कर देता है जिससे बच्चों में व्यवहार संबंधी अनेक तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा हो जाती हैं जिसका परिणाम एक खराब युवा मानव संसाधन के रूप में आता है | प्रख्यात बाल लेखक जैनज़ कोरज़ाक ने कहा  था कि- 'बच्चे और किशोरमानवता का एक-तिहाई हिस्सा हैं। इंसान अपनी जिंदगी का एक-तिहाई हिस्सा बच्चे के तौर पर जीता है। बच्चे...बड़े होकर इंसान नहीं बनतेवे पहले से ही होते हैं,हमें बच्चों के अंदर के इंसान को जिन्दा रखना होगा |

नव भारत टाईम्स में 20/02/15 को प्रकाशित लेख 

3 comments:

Tanupreet Kaur said...

Hume apne baccho ko buri adato se door rakhna chahiye or ye karne me sabae bada haath unke parents ka hota h

Unknown said...

Depend krta hi ki hme apne bacchon ko kyaa seekh dete hi wo parents ke uppar depend krta hi ki wo aapne bacchon ko kaisa banate hi unke sochne ka nazariye kiss trh ka taiyar krte hi her ek acchi baat me khi na kahi burai hoti hi or buri cheez me bhi kuch accha hota hi bs aapni aapni thinking k uppar depend krta hi...

सूरज मीडिया said...

बच्चो को इन सब बुराइयों से दूर रखने में सबसे बड़ा हाथ पेरेंट्स का होता है, पेरेंट्स को चाहिए की वो बच्चो को एक अच्छी सीख दे,उन्हें शिक्षित करे। उनसे एक दोस्त की तरह पेश आये तभी सुधार होगा। और बचपन खेल कूद तभी सकेगा।

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