Monday, June 15, 2015

मजबूत होती मानसिक अवसाद की जकड

कहा जाता है एक स्वस्थ तन में ही स्वस्थ  मष्तिस्क का वास होता है पर अगर  मष्तिस्क स्वस्थ नहीं होगा तो तन भी बहुत जल्दी रोगी हो जाएगा |शरीर में अगर कोई समस्या है तो जीवन के बाकी के कामों पर सीधे असर पड़ता है और इसे जल्दी महसूस किया जा सकता है पर बीमार मस्तिस्क के साथ ऐसा नहीं है |
वैसे भारत एक खुशहाल देश दिखता है और इसकी पुष्टि आंकड़े भी करते हैं साल 2014 में खुशहाली के सर्वेक्षण में देश अपने नागरिकों को लम्बा और खुशहाल जीवन देने के मामले में 151 देशों में भारत चौथे पायदान पर रहा है  |पर वास्तविकता  के धरातल पर तस्वीर काफी अलग है |
 विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत छत्तीस प्रतिशत की अवसाद दर के साथ दुनिया के सर्वाधिक  अवसाद ग्रस्त देशों में से एक है मतलब ये कि भारत में मानसिक अवसाद से पीड़ित लोगों की जनसँख्या लगातार बढ़ रही है |मानव संसाधन के लिहाज से ऐसे आंकड़े किसी भी देश के लिए अच्छे नहीं कहे जायेंगे जहाँ हर चार में से एक महिला और दस में से एक पुरुष इस रोग से पीड़ित हों जिसकी पुष्टि मानसिक अवसाद रोधी दवाओं के बढ़ते कारोबार से हो रही है |
देश में ही 2001 से 2014 के बीच 528 प्रतिशत अवसाद रोधी दवाओं का कारोबार बढ़ा है|जो यह बता रहा है कि मानसिक रोग कितनी तेजी से देश में अपना पैर पसार रहा है | फार्मास्युटिकल मार्केट रिसर्च संगठन एआईओसीडी एडब्लूएसीएस के अनुसार भारत में अवसाद रोधी दवाओं का कारोबार बारह प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है | ”डेली”(डिसेबिलिटी एडजस्ट लाईफ इयर ऑर हेल्थी लाईफ लॉस्ट टू प्रीमेच्योर डेथ ऑर डिसेबिलिटी ) में मापा जाने वाला यह रोग विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ 2020 तक बड़े रोगों के होने का सबसे बड़ा कारक बन जाएगाअवसाद से पीड़ित व्यक्ति भीषण दुःख और हताशा से गुजरते हैं|
उल्लेखनीय है कि ह्रदय रोग और मधुमेह जैसे रोग अवसाद के जोखिम को तीन गुना तक बढ़ा देते हैं|समाज शास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो यह प्रव्रत्ति हमारे सामाजिक ताने बाने के बिखरने की ओर इशारा कर रही है|बढ़ता शहरीकरण और एकल परिवारों की बढ़ती संख्या लोगों में अकेलापन बढ़ा रहा है और सम्बन्धों की डोर कमजोर हो रही है|रिश्ते छिन्न भिन्न हो रहे हैं तेजी से
 बदलती दुनिया में विकास के मायने सिर्फ आर्थिक विकास से ही मापे जाते हैं यानि आर्थिक विकास ही वो पैमाना है जिससे व्यक्ति की सफलता का आंकलन किया जाता है जबकि सामाजिक  पक्ष को एकदम से अनदेखा किया जा रहा हैशहरों में संयुक्त परिवार इतिहास हैं जहाँ लोग अपने सुख दुःख बाँट लिया करते थे और छतों का तो वजूद ही ख़त्म होता जा रहा हैफ़्लैट संस्कृति अपने साथ अपने तरह की समस्याएं लाई हैं जिसमें अकेलापन महसूस करना प्रमुख है |
इसका निदान लोग अधिक व्यस्ततता में खोज रहे हैं नतीजा अधिक काम करना ,कम सोना और टेक्नोलॉजी पर बढ़ती निर्भरता सोशल नेटवर्किंग पर लोगों की बढ़ती भीड़ और सेल्फी खींचने की सनक इसी संक्रमण की निशानी है जहाँ हम की बजाय मैं पर ज्यादा जोर दिया जाता है आर्थिक विकास मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर किया जा रहा है |
इस तरह अवसाद के एक ऐसे दुश्चक्र का निर्माण होता है जिससे निकल पाना लगभग असंभव होता है |अवसाद से निपटने के लिए नशीले पदार्थों का अधिक इस्तेमाल समस्या की गंभीरता को बढ़ा देता है| भारत में नशे की बढ़ती समस्या को इसी से जोड़कर देखा जा सकता है .आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों में यह समस्या ज्यादा देखी जा रही है |जागरूकता की कमी भी एक बड़ा  कारण है,मानसिक स्वास्थ्य कभी भी लोगों की प्राथमिकता में नहीं रहा है |व्यक्ति या तो पागल होता है या फिर ठीक बीच की कोई अवस्था है ही नहीं है |इस बीमारी के लक्षण भी  ऐसे नहीं है जिनसे इसे आसानी से पहचाना जा सके आमतौर पर इनके लक्षणों को व्यक्ति के मूड से जोड़कर देखा जाता है|अवसाद के लक्षणों में हर चीज को लेकर नकारात्मक रवैया ,उदासी और निराशा जैसी भावना,चिड़ चिड़ापनभीड़ में भी अकेलापन महसूस करना और जीवन के प्रति उत्साह में कमी आना हैआमतौर पर यह ऐसे लक्षण नहीं है जिनसे लोगों को इस बात का एहसास हो कि वे अवसाद की गिरफ्त  में आ रहे हैंदुसरी समस्या ज्यादातर भारतीय एक मनोचिकित्सक के पास मशविरा लेने जाने में आज भी हिचकते हैं उन्हें लगता है कि वे पागल घोषित कर दिए जायेंगे इस परिपाटी को तोडना एक बड़ी चुनौती है |जिससे पूरा भारतीय समाज जूझ रहा है |उदारीकरण के बाद देश की सामाजिक स्थिति में खासे बदलाव हुए हैं पर हमारी सोच उस हिसाब से नहीं बदली है |अपने बारे में बात करना आज भी सामजिक रूप से वर्जना की श्रेणी में आता है ऐसे में अवसाद का शिकार व्यक्ति अपनी बात खुलकर किसी से कह ही नहीं पाता और अपने में ही घुटता रहता है |एक आम भारतीय को ये पता ही नहीं होता कि वह किसी मानसिक बीमारी से जूझ रहा है और इलाज की सख्त जरुरत है | तथ्य यह भी है कि इस तरह की समस्याओं को देखने का एक मध्यवर्गीय भारतीय नजरिया है जो यह मानता है कि इस तरह की समस्याएं आर्थिक तौर पर संपन्न लोगों और बिगडैल रईसजाड़ों को ही होती हैं मध्यम या निम्न आय वर्ग के लोगों को नहीं जबकि मानसिक अवसाद से कोई भी गसित हो सकता है |इस स्थिति में अवसाद बढ़ता ही रहता है जबकि समय रहते अगर इन मुद्दों पर गौर कर लिया जाए तो स्थिति को गंभीर होने से बचाया जा सकता है |तथ्य यह भी है कि देश शारीरिक स्वास्थ्य के कई पैमाने पर विकसित देशों के मुकाबले बहुत पीछे है और शायद यही कारण है कि देश की सरकारें भी मानसिक स्वाथ्य के मुद्दे को अपनी प्राथमिकता में नहीं रखतीं |
देश में कोई स्वीकृत मानसिक स्वास्थय  नीति नहीं है और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधयेक अभी संसद में लंबित है जिसमें ऐसे रोगियों की देखभाल और उनसे सम्बन्धित अधिकारों का प्रावधान है |मानसिक स्वास्थ्य के प्रति बरती जा रही है लापरवाही का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अक्तूबर 2014 से पूर्व मानसिक स्वास्थ्य नीति का कोई अस्तित्व ही नहीं था |इसका खामियाजा मनोचिकित्सकों की कमी के रूप में सामने आ रहा है देश में 8,500 मनोचिकित्सक और 6,750 मनोवैज्ञानिकों की भारी कमी है |इसके अतिरिक्त 2,100 योग्य नर्सों की कमी हैमानसिक समस्याओं को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता इस दिशा में सांस्थानिक सहायता की भी पर्याप्त आवश्यकता है|माना जाता है किसी भी रोग का आधा निदान उसकी सही पहचान होने से हो जाता है  
रोग की पहचान हो चुकी है भारत इसका निदान कैसे करेगा इसका फैसला होना अभी बाकी है |
राष्ट्रीय सहारा में 15/06/15 को प्रकाशित 

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