Wednesday, June 3, 2015

हाथ से निकल न जाए दूध बाजार


देश के अन्य उद्योगों की तरह भारतीय दुग्ध  उद्योग की भी अपनी खामियां हैं । इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इस उद्योग की संरचना बहुत संगठित नहीं है । देश में काम कर रहे तकरीबन सभी को-ऑपरेटिव फेडरेशन लघु  एवं मध्यम सेक्टर से सम्बन्ध  रखते हैं |मध्यस्थों की बढ़ती दखलंदाजी और आपूर्ति श्रृंखला के बीच तालमेल के अभाव की वजह से काफी समस्याएं  आती हैं । इससे दूध की गुणवत्ता और आपूर्त्ति श्रृंखला की कार्यप्रणाली पर प्रभाव  पड़ता है । इस श्रृंखला में कई कमजोर कड़ियां होती हैं, इसके अलावा अनावश्यक मानवीय दखल होता है जिससे गलतियों की संभावना बढ़ती है |भारत में दुग्ध एवं दुग्ध उत्पादों का बाजार हमेशा से ही असंगठित रहा है अमूल जैसे प्रयोगों को अगर छोड़ दिया जाए तो  इनके बाजार पर डेयरी सहकारिता संस्थानों एवं दलालों का कब्ज़ा है| इस क्षेत्र को संगठित करने के सरकार एवं संगठित क्षेत्र की निजी कंपनियों के प्रयासों को दूध के ठेकेदारों के भारी विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है| पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग, भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष १९९१-९२ के दौरान हमारे देश में दूध का उत्पादन लगभग ५ करोड़ साठ लाख टन था जो कि वर्ष २०१२-१३ के दौरान बढ़कर १३ करोड़ २० लाख टन से भी अधिक हो गया| भारत में दूध एवं दुग्ध उत्पादों का बाजार काफी तेज़ी से बढ़ रहा है। इसी वजह से बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी अब इस क्षेत्र में दिलचस्पी लेने लगी हैं| भारत में अभी इनका बाजार ४.४० लाख  करोड़ रूपये का है और साल २०२० तक इसके दुगने हो जाने की संभावना है| इस तथ्य के बावजूद कोई भी एकलौती भारतीय कम्पनी इस बाजार पर पूरी तरह  अपना सिक्का नहीं जमा पायी है|यानि भारत में दूध का कारोबार बाजार की बयार से एकदम अछूता रहकर परम्परा गत तरीके से आगे बढ़ रहा है |आवश्यक निवेश न होने से इसका सीधा असर दूध की गुणवत्ता और कीमतों पर पड़ रहा है |दुग्ध उद्योग में आई सी टी अर्थात इन्फोर्मेशन कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी का बहुत कम इस्तेमाल हो रहा है जबकि अन्य  उद्योगों में इसके इस्तेमाल से गुणवत्ता बेहतर की गयी और कीमतों को नियंत्रण में रखा गया है |जबकि असंगठित दुग्ध उद्योग में अभी भी ज्यादातर सारा काम हाथों द्वारा हो रहा है |
                 इसी लिए इस क्षेत्र में कार्यरत विदेशी एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस मलाईदार बाजार में अपना हिस्सा सुनिश्चित करना चाहती हैं| सरकार ने  भी इस क्षेत्र की महत्ता को समझते हुए राष्ट्रीय डेयरी योजना लागू की है जिसका कि उद्देश्य देश में दुधारू जानवरों की उत्पादकता बढ़ाकर देश में बढ़ती हुई दुग्ध एवं दुग्ध उत्पादों की मांग की पूर्ति को सुनिश्चित करना है और दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में लगे हुए ग्रामीणों को संगठित क्षेत्र के दुग्ध प्रसंस्करण संस्थानों तक उनकी पहुँच को सुगम बनाना। पिछले तीस वर्षों में अर्थव्यवस्था की तरक्की से भारत में माध्यम वर्ग का बहुत तेजी से विस्तार हुआ और यह विस्तार अभी जारी है |जैसे-जैसे भारत में मध्य वर्ग का दायरा बढ़ता जा रहा है दुग्ध एवं दुग्ध उत्पादों पनीर, दही,मक्खन की मांग बढ़ती जाएगी | 
हालाँकि भारत दुनिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादकों में से एक है फिर भी दुनिया की बीस  बड़ी दुग्ध उत्पादक कंपनियों में अमूल को छोड़कर किसी भी कंपनी की शुमारी नहीं है| फिच समूह की संस्था इण्डिया रेटिंग्स एंड रिसर्च  के अनुसार भारत के सात  करोड़ ग्रामीण परिवारों द्वारा उत्पादित दूध में से केवल पच्चीस प्रतिशत ही संगठित क्षेत्र के बाजार में बिकता है शेष पचहत्तर प्रतिशत  फुटकर विक्रेताओं द्वारा | इससे  इस क्षेत्र में मौजूद अपार अवसर का अंदाज़ा लगाया जा सकता है|निजी कम्पनियां इस क्षेत्र  में साल 2010 से अब तक पंद्रह समझौतों के साथ पहले ही 862 करोड़ रुपये का  निवेश भी कर चुकी हैं| पिछले साल जनवरी 2014 में ही विश्व की सबसे बड़ी दुग्ध क्म्पनी  ग्रुपी लेक्टेल्स एस ए(Groupe Lactalis SA) ने हैदराबाद की त्रिमुला मिल्क प्रोडक्ट्स को सत्रह सौ पचास करोड़  रू में खरीद लिया| जापानी दुग्ध कम्पनी मेजी (Meiji) भी भारत के बाज़ार में प्रवेश करने के लिए तैयार है| यदि सरकार और निजी कम्पनियाँ मिलकर भारतीय डेयरी बाजार को एक संगठित उद्योग में परिवर्तित कर सकेंगी तो न केवल ग्रामीण जनता का विकास होगा बल्कि दुग्ध उत्पादों के दामों में भी भारी कमी आएगी और उनकी गुणवत्ता भी बढ़ेगी| साथ ही रोज़गार के नए अवसर पैदा होंगे और सरकार की कमाई में भी इज़ाफ़ा होगा पर देखना यह है कि   क्या ये निजी कम्पनियां विश्व की सबसे बड़ी सहकारी समिति अमूल का भारत में  मुकाबला कर पाएंगी| इस क्षेत्र  में गुंजाइश बहुत है और स्वास्थ्य सम्बन्धी उत्पाद इसे एक नया आयाम देकर उद्योग की शकल हमेशा के लिए  बदल सकते हैं| 
अमर उजाला में 03/06/15 को प्रकाशित 

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