Wednesday, June 17, 2015

लेह में भी एक बिहार बसता है

लेह एक पहाडी शहर जहाँ की भाषा खान पान और वेशभूषा उत्तर भारत के किसी भी शहर से एक दम अलग है ,ऐसे में लेह की किसी गली से गुजरते हुए अगर आपके कानों में “बगल वाली जान मारेली” जैसा भोजपुरी गीत सुनाई पड़े तो कौतूहल होना स्वाभाविक है.ऐसा कुछ मेरे साथ हुआ अपने लेह प्रवास के दौरान जब मैं यूँ ही सड़कों पर गुजरता हुआ वहां के प्राकृतिक द्रश्यों को अपने आँखों में समेट रहा था तभी एक दुकान में चल रहे वार्तालाप ने मुझे अपनी ओर खींच लिया “का चीज ,का बीस रुपये अरे अनपच हो जाई|ये लेह का स्क्म्पारी ईलाका है जहाँ लेह में एक छोटा बिहार बसता है |मैं भी उस बात चीत में शामिल हो गया अपने मुलुक के आदमी से मिल कर उन सबको बहुत अच्छा लगा ,और फिर जो तथ्य हाथ लगे उससे पता पड़ा कि लेह क्यों बिहारी मजदूरों का स्वर्ग है
लेह में कुशल मजदूरों की भारी कमी है जिसकी पूर्ति नेपाली और बिहारी मजदूर करते हैं पर इसमें बड़ा हिस्सा बिहारी मजदूरों का है |लेह में जहाँ कहीं भी निर्माण कार्य चल रहा हो आप वहां आसानी से बिहारी मजदूरों को काम करते देख सकते हैं जिसमें ज्यादा हिस्सा बेतिया जिले का है |बेतिया से यहाँ मजदूरी करने आये हीरा लाल शाह ने कुछ पैसे जोड़कर एक मिठाई की दूकान खोल ली जिससे वे उस स्वाद की भरपाई कर सकें जिसे वो और उनके जैसे सैकड़ों मजदूर भारत के इस हिस्से में नहीं पा पाते हैं |उनकी दूकान पर सुबह शाम उन बिहारी मजदूरों का तांता लगा रहता है जो लिट्टी बाटी या पकोड़ी का स्वाद लेह में चखना चाहते हैं |देवनाथ शाह बताते हैं कि यहाँ आने के लिए वे कई महीने पहले टिकट कटा लेते हैं जिससे दिल्ली से लेह का टिकट ढाई से तीन हजार रुपये में मिल जाता है और फरवरी मार्च में मजदूर यहाँ आ जाते हैं दो चार दिन आराम करने के बाद यहाँ काम मिल ही जाता है |छ महीने पैसा कमाने के बाद दशहरे के आस पास वे फिर अपने गाँव फ्लाईट से लौट जाते हैं |देवनाथ यह बताना नहीं भूलते कि दिल्ली से अपने गाँव का सफर वो ट्रेन के एसी डिब्बे में ही करते हैं |
चूंकि सभी मजदूर एक दूसरे के रिफरेन्स से लेह पहुँचते हैं इसलिए सब एक ही जगह साथ रहना पसंद करते हैं और उन्हीं में से कुछ लोगों ने अपनी दुकाने वहां खोल ली हैं वो चाहे भोजपुरी गाने या फ़िल्में मोबाईल में डालनी हों या सब्जी बेचना सब ही बिहार से आये मजदूर हैं |मजेदार बात यह है कि दुकान साल में छ महीने ही खुलती है ,ठण्ड के कारण ये सभी सर्दियों में अपने घर लौट जाते हैं पर दुकान मालिक को साल भर किराया देना होता है|ऐसे ही एक दिहाड़ी मजदूर देवनाथ बताते हैं यहाँ पैसे ज्यादा मिलते हैं उत्तर प्रदेश या बिहार में जहाँ एक दिन की औसत दिहाड़ी लगभग साढ़े तीन सौ रुपये है वहीं लेह में उतने ही काम के पांच सौ से छ सौ रुपये मिल जाते हैं |
स्थानीय ठेकेदार परवेज अहमद बताते हैं कि बिहारी मजदूर बहुत मेहनती और कुशल होते हैं प्लास्टर और पुताई के काम में इनका कोई मुकाबला नहीं हैं |
लेह के जिलाधिकारी सौगत बिस्वास ने बताया कि इस समय लेह में करीब दस हजार बिहारी मजदूर हैं और अपनी मेहनत  से वे लेह के निवासियों का जीवन आसान बना रहे हैं |

 प्रभात खबर में 17/06/15 प्रकाशित लेख 

1 comment:

ANITA RAJ said...

sahi kha sir aapne Bihar ke log to desh ke kai kone tak chale jate hai kamai ke liye, apna desh sabhi ko pyara hota hai,lekin pet ki bhokh use leh ya desh ke anya sahro me ek chota Bihar basane ko majboor kr deti hai.

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