पुस्तक का नाम : पाकिस्तान में युद्ध
कैद के वे दिन
लेखक :ब्रिगेडियर अरुण बाजपेयी
प्रकाशक :राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट
लिमिटेड
मूल्य :85 रुपये
पकिस्तान मतलब दुश्मन देश और ऐसे
देश में जब कभी कोई भारतीय सैनिक पकड़ लिया जाए तो उसके साथ कैसा व्यवहार होगा. ‘पाकिस्तान में युद्ध कैद के वे दिन’ लेखक के साथ घटित
सच्ची घटना पर आधारित किताब है। घटना को लगभगपचास वर्ष बीत चुके हैं लेकिन लेखक ने यादों के
सहारे इस पुस्तक को लिखते हुए उन दर्दनाक पलों को एक बार पुनः जीया है
और पूरी ईमानदारी के साथ अपने जीवन के कठिनतम अनुभवों का जीवंत चित्रण
किया है। 1965 के भारत-पाक युद्ध में लेखक पाकिस्तान
के सिन्ध प्रान्त में सीमा रेखा के 35 किलोमीटर भीतर युद्ध
कैदी बने और भारतीय सेना के दस्तावेजों में लगभग एक वर्ष तक लापता ही घोषित रहे।
एक दुश्मन देश में एक वर्ष की अवधि युद्ध कैदी के रूप में बिताना कितना त्रासद और
साहसिक कार्य था तथा वहाँ उन्हें किन-किन समस्याओं से रू-ब-रू होना पड़ा, इसकी बानगी इस किताब में समाहित है . वो लिखते हैं “पाकिस्तानी
चिकित्सा कोर के मेजर साहब ने मेरी वर्दी उतरवा कर मुझे अस्पताल में पहनने के साफ़
कपडे दिए |हाँ यह जरुर था कि उन कपड़ों के पीछे बड़े काले
अक्षरों में लिखा था : पी. डब्ल्यू (प्रिजनर ऑफ़ वार ) यानी युद्ध कैदी |
साफ़ और स्वाच कपडे पहनकर पहली बार पिछले दस दिनों में मुझे ऐसा लगा
कि मैं भी इंसान हूँ क्योंकि पहले युद्ध, जिसमें पानी का
पूर्ण अभाव था और फिर पाकिस्तानी कैद, सब उसी एक वर्दी में
ही चलता रहा था” |
1965 के पाकिस्तान के हालात का सटीक
चित्रण करती है कि उन दिनों पाकिस्तानी सेना कैसे काम करती थी .वो लिखते हैं “मुझे
उनके सैनिक अस्पताल में वही खाना मिलता था जो कि एक पाकिस्तानी सेना के अफसर ओहदे
के मरीज को मिलता था .देखभाल भी सही थी .इसका मुख्य कारण था कि उस समय की
पाकिस्तानी सेना आजकल की कट्टरपंथी पाकिस्तानी सेना नहीं थी .पकिस्तान को स्वतंत्र
हुए अभी १८ वर्ष ही हुए थे. पाकिस्तानी सेना के वरिस्थ अफसर और जे सी ओ ओहदे के
अफसर पहले भारतीय सेना में काम कर चुके थे,जब पाकिस्तानी
सेना का जन्म नहीं हुआ था .अत: दोनों सेनायें १९६५ में
दुश्मन जरुर थी पर एक दुसरे से घृणा नहीं करती थी” .
पुस्तक सिलसिलेवार तरीके से ब्रिगेडियर अरुण बाजपेयी के पकडे जाने और उनके एक साल पाकिस्तान में
युधबंदी जीवन का सिलसिलेवार वर्णन करती है.किसी युधबंदी का ऐसा आँखों देखा हाल
हिन्दी में कम ही पढने को मिलता है. किसी कैदी के घर जाने की खुशी को अगर महसूस
करना हो तो जरा इन पंक्तियों को पढ़ें : ‘ जून 1966 के अंत में
या जुलाई के महीने के आरम्भ में करीब सुबह दस बजे एकाएक पाकिस्तानी कैम्प कमान्डेंट
साहब हमारे पास आ धमके .उनके चेहरे पर मुस्कान खेल रही थी. आने के साथ उन्होंने हम
सबसे मुखातिब होते हुए कहा ,ब्वायज यू आर गोईंग होम .हम
लोगों को यह खबर मिलने की कत्तई अपेक्षा नहीं थी .हमें युद्ध कैदी बने करीब दस
महीने गुजर चुके थे .इस घटनाचक्र ने हम सबकी जिन्दगी कुछ सकारातमक और कुछ
नकारात्मक रूप से प्रभावित की थी .कुछ छापें तो अमिट थी .
यह पुस्तक जहाँ एक तरफ पाकिस्तानी
सैनिकों की क्रूरता को बताती हैं वहीं कुछ ऐसे किरदारों का जिक्र भी करती जो
देवदूत जैसे थे .जैसे वो नर्स जो ब्रिगेडियर अरुण
बाजपेयी की घायल टांग का इलाज कर रही थी जिसकी वजह से उनकी टांग कटने से बच
गयी .
युद्ध के ऊपर लिखी गयी कुछ पठनीय
पुस्तकों में से एक यह पुस्तक एक सैनिक के जीवन कई दुर्लभ पक्षों पर प्रकाश डालती
है .
आई नेक्स्ट में 27/04/16 को प्रकाशित