इस साल साहित्य
का नोबेल पुरस्कार ब्रिटिश लेखक काजुओ इशिगुरो को देने का एलान किया गया है वैसे नोबेल किसी साहित्यकार के उत्कृष्ट होने का पैमाना नहीं है
पर भारत में हिन्दी साहित्य कहाँ पिछड़ जाता है?ये सवाल उमड़ते
घुमड़ते मुझे मेरे बचपन में ले गए,एक निम्नवर्गीय
परिवार में पढने के संस्कार क्या होते हैं इसका पता मुझे कभी नहीं चला|यहाँ पढ़ाई का मतलब सिर्फ पाठ्यक्रम की किताबें थीं,या फिर कुछ पत्रिकाएं जो
नियमित अंतराल पर लगातार तो नहीं ही मिलती थीं पर उसमें भी राशनिग थी|गृहशोभा ,मनोरमा जैसी
पत्रिकाएं नहीं पढ़ सकता था|भले ही वो घर में
इधर उधर छितरायीं पडी रहती हों |मैं उस दिन को
याद करके आज भी दुःख से भर उठता हूँ कि मैं अपने जीवन की पहली कविता सम्हाल न सका,शायद तीसरी कक्षा में था गर्मियों की छुट्टी में
स्कूल की बेकार डायरी में कार्बन लगा के अपनी माता जी के ऊपर एक कविता लिखी थी,वो कविता तो मुझे नहीं याद है पर वो थी बहुत अच्छी
क्योंकि घर में सबसे सराहना मिली थी फिर बात आई गयी हो गयी|हमें यही सिखाया गया पढो तो कोर्स की किताबें,क्लास छ में मुझे उपन्यास पढने का चस्का लगा पर
रानू और गुलशन नंदा के उपन्यास पढ़ते हुए जब मैं पकड़ा गया तो घर में काफी ज़लील होना
पड़ा|अपने शैक्षिक जीवन की सीढीयाँ चढ़ते हुए,पाठ्यक्रम में प्रस्तावित साहित्य के अलावा हमारे
जीवन में साहित्य कहीं था ही नहीं|साहित्यक किताबों
पर खर्च पैसे की बर्बादी माना जाता था घर का ऐसा माहौल पता नहीं पैसे की कमी के
कारण था या माता –पिता के कम पढ़े लिखे होने के कारण,या बेटे को किसी तरह एक अदद सरकारी नौकरी के लायक बना
देने के कारण पर आठवीं क्लास तक मेरे लिए साहित्य का मतलब प्रेम चन्द,महादेवी वर्मा आदि ही था वो तो भला हो नवीं कक्षा
में छात्रवृत्ति मिल गयी और मैं भारत के उन गिने चुने विदयालय में पहुँच गया जिसका
पुस्तकालय आज भी मेरे सपने में आता है जिसने दुनिया भर के साहित्य से मेरा परिचय
कराया पर पढने(साहित्य) का संस्कार न होने के कारण लम्बे समय तक इस समस्या जूझता
रहा कि क्या पढूं और पाठ्यक्रम से इतर किताबे पढने से कहीं मैं अपना भविष्य तो
नहीं चौपट कर रहा हूँ | यह शर्म लम्बे
समय तक मुझे द्वन्द में फंसाए रखती थी जिससे उन दिनों मैं कभी पढने का लुत्फ़ नहीं
उठा पाया पर पढने के संस्कार देर से ही सही मिलने लग गए और इस बात का अहसास भी कि
अगर अच्छा लिखना है तो पहले पढना सीखना होगा अब ये तो नहीं पता कि मैं लिखना कितना
सीख पाया हूँ पर पढ़ना जरुर सीख गया हूँ देर से ही सही पर मेरे जैसा भाग्य भारत के
कितने लोगों को नसीब होता है जो कम से कम साहित्य पढने का सलीका ही सीख पायें |
प्रभात खबर में 17/10/17 को प्रकाशित
5 comments:
Apka pahli poem class 3 mein likhna amaze karta hai sir.
Library mein kitaboo ko niharna romanch se bhar deta hai par Kon si book pade sochne mein hi samay beet jata hai... Sahi kaha hai sir apne saleekha nhi sikhaya gaya hame padne ka aur kon sikhayega hame? Agar kuch padne bhi baith jao to lagta hai syllabus ka kuch padna chahiyee jo kam de.Aise mein to noble aane se raha.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन धनतेरस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
परीक्षा के परिणामो में उच्च प्राप्तांक प्राप्त करने की भरकस कोशिश वनस्पत व्यवाहरिक ज्ञान के और उसके बाद एक अदद सरकरी नोकरी हमे साहित्य से दूर कर देती है
sir,
sahitya padhane ka shai salika to mujhe nahi pata par class 11 me pahli bar maine munsi premchand ka prasidh upanyaas 'godaan' padhne ka awasar parapt hua tha...eske bad maine prem chand ke kayi upanyas(vardan,nirmala,gavan) padh....magar aaj naukari ki talas ke dabav me barson se koi bhi upanyas nahi padh saka......
sir sahitya se aaj kl hm log isliye dur hai q k bachpan se hum logo k parents kahte hai k tujhe docter,engineer banna hai aur hum unhi k khe anusaar chalte hai jisse hum log apne carrier parents k anushar chunte hai
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