लैंगिक समानता के हिसाब से आज की दुनिया में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर का
अधिकार मिल चुका है पर जमीनी हकीकत कुछ और ही है| जेंडर इनेक्वेलिटी इंडेक्स 2016 की रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत का 159 देशों में 125 वाँ स्थान है|यह
एक बानगी भर है जो महिला सशक्तिकरण
से जुड़े मुद्दों के बारे में हमें चेताती है|देश में महिलाओं की भूमिका, उनकी,शिक्षा, स्वतंत्रता, एवं देश के विकास में उनकी भागीदारी जैसे मुद्दे
मुखरता से केंद्र में रहते हैं पर इन सबके बीच एक गौर करने वाला आंकड़ा कहीं
पीछे छूट जाता है वह आंकड़ा है कार्य क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी यानि रोजगार
देने वाली वह जगहें वहां महिलाओं की भागीदारी कितनी है और उन आंकड़ों की नजर में
भारत के कुल कामगारों में महिलाओं की भागीदारी निरंतर कम होती जा रही है।2011
की जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर
यह निष्कर्ष निकले हैं| ब्रिक्स देशों
जिसमें ब्राज़ील, रूस , चीन एवं दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं वहां
भी कुल कामकाजी महिलाओं की संख्या में भारत सबसे पीछे है। यहाँ तक की
सोमालिया जैसा देश भी इस मामले में हमसे कहीं आगे है। वर्ष 2011 में श्रमिक बल में महिलाओं की कुल भागीदारी कुल
25 प्रतिशत के आसपास थी।
ग्रामीण क्षेत्रों यह प्रतिशत 30 के लगभग एवं शहरी
क्षेत्रों में यह प्रतिशत केवल 16 के लगभग था।
ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के ज्यादा होने का
कारण उनका कृषि से सम्बन्धित कार्यों में जुड़े होना जो ज्यादातर कम आय के होते हैं
और ग्रामीण ढांचे में महिलाओं से उनको करने की उम्मीद की जाती है | महिलाओं के कार्यक्षेत्र में कम भागीदारी के
बड़ी वजहें हमारे समाजशास्त्रीय ढांचे में है जहाँ महिलाओं के ऊपर परिवार का ज्यादा
दबाव रहता है जिसमें शामिल है महिलाओं की आगे की पढ़ाई,शादी, बच्चों का
पालन-पोषण एवं पारिवारिक दबाव। अर्थशास्त्रीय नजरिये से ग्रामीण भारत में जो
महिलाएं काम करती भी हैं उनमें से अधिकतर वही होती हैं जो आर्थिक रूप से निर्बल
होती है और उनके पास और कोई चारा नहीं होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग अस्सी
प्रतिशत कामगार महिलाएं कृषि से संबंधित कार्यों में संलग्न हैं जबकि केवल 7.5
प्रतिशत के आसपास महिला कामगार औद्योगिक
उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक महिला कामगार घरेलू सेवाओं
से जुड़ी हुई हैं। भारत में अधिकतर महिला श्रमिक असंगठित क्षेत्रों से जुड़ी हुई
हैं। यह वह क्षेत्र है जहां पुरुष कामगारों का भी हद से अधिक शोषण होता है तो
महिला कामगारों की तो बात ही छोड़ दी जानी चाहिए । शहरी क्षेत्रों में भी सेवा
क्षेत्र जैसे विकल्प जहां महिलाओं के हिसाब से काफी काम होता है वहां
भी उनकी संख्या नगण्य है। यदि यान्त्रिकी अथवा वाहन उद्योग की भी बात की जाये तो
वहाँ कोई महिला कामगार शायद ही मिले। शहरी क्षेत्रों में काम करने वाली अधिकतर
महिलाएं अप्रशिक्षित हैं। साथ ही लगभग एक तिहाई शहरी महिला कामगार अशिक्षित हैं
जबकि उसी सापेक्ष पुरुषों की बात की जाए तो ऐसे पुरुषों की संख्या महज
ग्यारह प्रतिशत है। श्रमिक बल में महिलाओं की घटती संख्या का एक प्रमुख कारण है
तकनीकी एवं व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में उनकी बेहद ही कम संख्या का होना भी है ।
आंकड़े बताते हैं कि इस तरह के पाठ्यक्रमों में शामिल महिलाओं का प्रतिशत मात्र सात
है। जो महिलाएं इन पाठ्यक्रमों में आती भी हैं वे महिलाओं के लिए पारंपरिक
रूप से मान्य पाठ्यक्रमों जैसे सिलाई-कढ़ाई एवं नर्सिंग आदि में ही दाखिला लेती
हैं। शहरी क्षेत्रों में केवल 2.9 प्रतिशत महिलाओं
को ही तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त है। जो कि पुरुष कामगारों की तुलना में आधे से भी
कम है। अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण की वेबसाईट पर दिए गए आंकड़ों के अनुसार स्नातक स्तर के पाठ्यक्रमों
में महिलाओं की लगभग तिहत्तर प्रतिशत संख्या है जबकि स्नातकोत्तर
पाठ्यक्रमों में यह प्रतिशत घटकर मात्र सत्ताईस ही रह जाता है। ऐसी
स्थिति में महिला कामगारों के संगठित क्षेत्रों में काम करने की संभावनाएँ
काफी कम हो जाती हैं। इंडियास्पेण्ड्स वेबसाइट के आंकड़ों के अनुसार कई राज्यों में
उच्च शिक्षा को बीच में ही छोड़ने वाली महिलाओं की संख्या में इजाफा हो रहा है।
अपेक्षाकृत अमीर राज्य जैसे केरल एवं गुजरात भी इस चलन से अछूते नहीं हैं यानि
आर्थिक रूप से अगड़े राज्य भी लैंगिक असमानता के शिकार हैं । भारत सरकार के नीति
आयोग के अंतर्गत कार्य करने वाले इंस्टीट्यूट फॉर अप्लाइड मैनपावर एंड रिसर्च के
द्वारा कराये गए शोध के अनुसार तकनीकी
पाठ्यक्रमों में कम भागीदारी एवं उच्च-शिक्षा को बीच में ही छोड़ देने की बढ़ती
प्रवृत्ति के कारण ही महिलाओं के तकनीकी श्रमिक बल में योगदान में भी कमी आ रही
है।मातृत्व की भूमिका, चूल्हे-चौके की
ज़िम्मेदारी, सामाजिक एवं
सांस्कृतिक प्रतिबंध एवं पितृसत्तात्मक मान्यताओं और परम्पराओं की वजह से भी
श्रमिक बल में महिलाओं की संख्या घटती जा रही है। शिक्षा जारी रखने एवं
विवाहोपरांत प्रवसन भी कुछ हद तक कामगारों में महिलाओं की घटती संख्या के लिए
जिम्मेदार हैं। महिलाओं का रोजगार उनके आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान का एक महत्वपूर्ण
कारक है। श्रमिक बल में महिलाओं की घटती संख्या नीति निर्धारकों के लिए भी चिंता
का विषय है क्योंकि यदि यही स्थिति रही तो महिला सशक्तिकरण, लिंगभेद उन्मूलन एवं महिलाओं को समाज में
बराबरी का हक देने की सारी सरकारी और गैर सरकारी कोशिशें व्यर्थ हो जाएंगी ऐसे में
जिस भारत का निर्माण होगा वैसे भारत की कल्पना तो किसी ने भी न की होगी । अतः यह आवश्यक है की न सिर्फ
असंगठित बल्कि संगठित क्षेत्रों के कामगारों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए
उचित कदम उठाएँ जाएँ।
आई नेक्स्ट में 25/10/17 को प्रकाशित
12 comments:
शिक्षा वही अच्छी जो साक्षर के साथ जीविकोपार्जन में सहायक भी हो
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गणेश शंकर विद्यार्थी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
बहुत अच्छी जानकारी प्राप्त हुई
भारत सदियों से पुरुष प्रधान रहा है इसलिए बदलाव में अभी और समय लगेगा। हमारे यहा पर राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी महिलाऐ रह चुकी है।आईएएस परीक्षा में टीना डाबी एक महिला टॉप कर चुकी हैं हमे यह नहीं भूलना चाहिए। लैंगिक समानता आ रही है गांव के प्रधान पद तक महिला आसीन हो रहीं है। बदलाव की बयार चल चुकी है जो लैंगिक समानता लाकर ही रूकेगी इस बदलाव मे इनरनेट ने बहुत बदलाव कर रहा है। संविधान का अनुच्छेद 14 और 15 ने इस दशा में सराहनीय है। ईपीसी 1860 सहित अनेक कानून है जो इस बदलाव में महत्वपूर्ण है। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य का निर्णय और भी महत्वपूर्ण है जिससे महिलाओं को कार्य स्थल पर यौन शोशण पर रोक व ट्रिपल तलाक़ पर रोक सराहनीय प्रयास है।ईपीसी की धारा 374 का अपवाद 2 को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित किया है जो कि 15 वर्ष से कम आयु की पत्नी से सम्बंध को रेप नही मानता था। आज हमारे देश की रक्षामंत्री भी महिला है और कश्मीर राज्य की मुख्यमंत्री भी एक महिला है अब हमारे देश मे कोई भी महिलाओं को लैंगिक असमानता के जाल में बंद कर के नही रख सकता है। आपका
सुनील कुमार गौतम।
भारत सदियों से पुरुष प्रधान रहा है इसलिए बदलाव में अभी और समय लगेगा। हमारे यहा पर राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी महिलाऐ रह चुकी है।आईएएस परीक्षा में टीना डाबी एक महिला टॉप कर चुकी हैं हमे यह नहीं भूलना चाहिए। लैंगिक समानता आ रही है गांव के प्रधान पद तक महिला आसीन हो रहीं है। बदलाव की बयार चल चुकी है जो लैंगिक समानता लाकर ही रूकेगी इस बदलाव मे इनरनेट ने बहुत बदलाव कर रहा है। संविधान का अनुच्छेद 14 और 15 ने इस दशा में सराहनीय है। ईपीसी 1860 सहित अनेक कानून है जो इस बदलाव में महत्वपूर्ण है। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य का निर्णय और भी महत्वपूर्ण है जिससे महिलाओं को कार्य स्थल पर यौन शोशण पर रोक व ट्रिपल तलाक़ पर रोक सराहनीय प्रयास है।ईपीसी की धारा 374 का अपवाद 2 को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित किया है जो कि 15 वर्ष से कम आयु की पत्नी से सम्बंध को रेप नही मानता था। आज हमारे देश की रक्षामंत्री भी महिला है और कश्मीर राज्य की मुख्यमंत्री भी एक महिला है अब हमारे देश मे कोई भी महिलाओं को लैंगिक असमानता के जाल में बंद कर के नही रख सकता है। विधायिका एवं कार्यपालिक में अवसरों की प्राथमिकता आदि।
बहुत ज्यादा समय अब नही लगेगा महिलाओ को पुरुषो के आगे आने में
बहुत अच्छी जानकारी प्राप्त हुई
अगर महिलाओं को वास्तव में बराबरी का मिले तो भारत मजबूत तथा विकासशील बनेगा क्योकिं देश एक रथ के समान है जिसके दो पाहिये महिला और पुरुष हैं अगर एक कमजोर है तो रथ या देश प्रगति नहीं कर पयेगा
मन्दन कुमार
हमारी कोशिशे व्यर्थ नही हो रही है बस थोडा समय ज़रूर लग रहा ह क्युकि कोई भी बदलाव इतनी जल्दी देखने को नही मिलता।
Yes rightly said, I think we have a long way to go still. It is said that we have given equal rights to women then why cant women do their dream job and men handle houses and kids. It is expected that women are made to sacrifice their dreams for kids house and people. The day when actually men start understanding that a women also have dreams except this 4 walls of house that day we can say that we have got equal rights.
हमारी कोशिशे व्यर्थ नही हो रही है बस थोडा समय ज़रूर लग रहा ह क्युकि कोई भी बदलाव इतनी जल्दी देखने को नही मिलता।
बेहद सही जानकारी सटीक भाषा में .. अनिल जी बात उदाहरण के साथ सही होते हुए भी नंदिनी का मत अनुभूति के करीब है ... कागजी नहीं , मानसिक बदलाव चाहिए महिलाओं को समानता , सम्मान देने के लिए ।
बेहद सही जानकारी सटीक भाषा में .. अनिल जी बात उदाहरण के साथ सही होते हुए भी नंदिनी का मत अनुभूति के करीब है ... कागजी नहीं , मानसिक बदलाव चाहिए महिलाओं को समानता , सम्मान देने के लिए ।
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