Monday, July 2, 2018

लन्दन की तरह हमें भी इतिहास को सहेजने की जरुरत

थेम्स नदी न तो किसी की माँ है न ये किसी को बुलाती है और न ही लोग इसकी पूजा करते हैं ।मैं तीन घण्टे मैं इस नदी के किनारे चक्कर लगाता रहा न कोई प्लास्टिक न कोई कूड़ा सिर्फ मिला तो उल्लासित जीवन हंसते मुस्कुराते लोग ।ये देश हमसे इतना आगे क्यों है ?इनका एक रुपया पढ़ें पाउण्ड हमारे 93 रुपये के बराबर है और ये हमसे वाकई सौ गुना आगे हैं | इतवार के दिन  लंदन के सारे चर्च खाली थे सदियों पहले चर्च राजकाज से बाहर हो गए थे या कर दिए गए थे ।यहां के चर्च सूने पड़े हैं आने वालों में सैलानी ज्यादा हैं भक्त कम । कुछ भी हो पर भीड़ थी यहां के म्यूजियम में तैंतीस एकड़ में फैले चिड़िया घर और खूब सारे पार्क में जहां स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता है वहीं विज्ञान का साथ भी ।धर्म अब निजी नहीं नितांत व्यक्तिगत मामला हो गया है ।खैर दुनिया भर के लोगों के बीच घूमते हुए एक आज एक और इच्छा पूरी हो गई अपने जासूसी नायक शरलॉक होम्स के घर को देखने की 221B Beker Street  अब हम निकले कैम्ब्रिज शहर की ओर दुनिया के किसी कोने में अगर आप किसी भी पढ़े लिखे इंसान से कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बारे में पूछेंगे तो वो इस जगह की महानता से परिचित होगा बस शिक्षा की दुनिया के ऐसे तीर्थ पर हम भी सज़दा करने आ गए ।ऐसी जगह पर मेरे मेजबान एक ऐसे दोस्त थे जिसने करीब दस साल पहले भारत की नागरिकता छोड़ कर ब्रिटेन की नागरिकता ले ली थी एक ऐसा परिवार जहां के बच्चे हिंदी ब्रिटिश एक्सेंट में बात करते हैं और माता पिता खालिस देशी ,केम्ब्रिज विश्वविद्यालय देखकर इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है वो देश जिसने शिक्षा में निवेश नहीं किया वो.......लंदन दो हजार साल पुराना शहर है ।इस शहर में न जाने कैसे कैसे संग्रहालय और स्मारक हैं नर्सिंग संग्रहालय ,उद्यान संग्रहालय ,युद्ध संग्रहालय दुनिया भर की दुर्लभ पेंटिंग्स का संग्रह और तो और विश्वयुद्ध में मारे गए जानवरों के लिए भी स्मारक ।यह शहर अपने इतिहास पर गर्व तो जरूर करता है पर इतिहास में हुई गलतियों से सीखता भी है और ये संग्रहालय स्मारक आदि उसी का नमूना हैं जो इसे याद दिलाते हैं कि यह कहाँ से चला और अब इसे कहाँ जाना है ।हम भारतीय अपने इतिहास पर सिर्फ गर्व करते है पर न तो उसस कुछ सीखते हैं और न ही आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजते हैं जिससे आने वाला कल बेहतर हो शायद इसीलिए एक पाउण्ड 94 रुपये का है |लंदन में  मुझे बर्मा ,अफगानिस्तान ,पाकिस्तान ,केन्या और एयरपोर्ट पर हिंदुस्तानी भी मिले जिन्होंने वर्षों पहले अपने देश को छोड़ दिया था जहां अंग्रेज कभी राज करते थे ।सबको फिलहाल न तो अंग्रेजों से कोई परेशानी है और न ही इस देश से आधे तो ठीक से अंग्रेजी भी न बोल पाते हैं पर ज़्यादातर सस्ती दुकाने प्रवासी ही सम्हाले हुए हैं ।सबका मानना है ये देश जब उन्हें अपना लेता है तो इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि उनकी चमड़ी का रंग क्या है या वो किस जबान में बात करते हैं वो बस इस देश के नागरिक हैं और यह देश अपने नागरिकों के साथ हमेशा खड़ा है ।चलते चलते यहां मुझे सड़कों पर अंग्रेजी कम सुनाई पड़ी और दुनिया भर की न जाने कितनी बोलियां जिनमें से ज्यादातर को मैं नहीं जानता था ज्यादा सुनाई पड़ी।मुझे भारत याद आ रहा था ।विदा लंदन मैं फिर लौटूंगा।
अमर उजाला लखनऊ में 02/07/2018को प्रकाशित 









1 comment:

radha tiwari( radhegopal) said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-07-2018) को "कामी और कुसन्त" (चर्चा अंक-3021) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

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