यह भी कैसी विडंबना है कि तकनीक ने एक तरफ हमारे जीवन को काफी आसान बनाया है, दूसरी तरफ कई स्तरों पर अराजकता भी पैदा कर दी है। आज सूचनाओं के संजाल में यह तय करना मुश्किल है कि क्या सही है क्या गलत। इससे हमारे समाज के सामने एक नई चुनौती पैदा हो गई है। गलत सूचनाओं को पहचानना और उनसे निपटना आज के दौर के लिए एक बड़ा सबक है। फेक न्यूज आज के समय का सच है। पिछले दिनों देश में घटी मॉब लिंचिंग की कई घटनाओं के पीछे इसी फेक न्यूज का हाथ रहा है। केरल में आई बाढ़ के वक्त कई समाचार चैनलों ने पानी से भरे एक विदेशी एयरपोर्ट के विडियो को कोच्चि एयरपोर्ट बता कर चला दिया। फेक न्यूज के चक्र को समझने के लिए मिसइनफॉर्मेशन और डिसइनफॉर्मेशन में अंतर समझना जरूरी है।
मिसइनफॉर्मेशन का मतलब ऐसी सूचनाओं से है जो असत्य हैं पर जो इसे फैला रहा है वह यह मानता है कि यह सूचना सही है। वहीं डिसइनफॉर्मेशन का मतलब ऐसी सूचना से है जो असत्य है और इसे फैलाने वाला भी यह जानता है कि अमुक सूचना गलत है, फिर भी वह फैला रहा है। भारत डिसइनफॉर्मेशन और मिसइनफॉर्मेशन के बीच फंसा हुआ है। जियो क्रांति के बाद सस्ते फोन और इंटरनेट ने उन करोड़ों भारतीयों के हाथ में सूचना तकनीक पहुंचा दी है जो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं। वे इंटरनेट पर मिली हर चीज को सच मान बैठते हैं और उस मिसइनफॉर्मेशन के अभियान का हिस्सा बन जाते हैं। दूसरी ओर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की साइबर आर्मी और ट्रोलर्स कई सारी ऐसी डिसइनफॉर्मेशन को यह जानते हुए फैलाते है कि वे गलत हैं या संदर्भ से कटी हुई हैं। इन सबके पीछे कुछ खास मकसद होता है। जैसे हिट्स पाना, किसी का मजाक उड़ाना, किसी व्यक्ति या संस्था पर कीचड़ उछालना, साझेदारी, लाभ कमाना, राजनीतिक फायदा उठाना, या दुष्प्रचार।
फेक न्यूज ज्यादातर भ्रमित करने वाली सूचनाएं होती हैं। अक्सर झूठे संदर्भ या गलत संबंधों को आधार बनाकर ऐसी सूचनाएं फैलाई जाती हैं। जून 2016 में देश 20 करोड़ जीबी डाटा इस्तेमाल कर रहा था। यह आंकड़ा मार्च 2017 में बढ़कर 130 करोड़ जीबी हो गया जो लगातार बढ़ रहा है। इंटरनेट ऐंड मोबाइल असोसिएशन ऑफ इंडिया और कंटार-आईएमआरबी की रिपोर्ट के अनुसार बीते जून तक देश में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या पांच करोड़ हो चुकी थी, जबकि दिसंबर 2017 में इनकी संख्या 4.8 करोड़ थी। इस तरह छह महीने में 11.34 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इंटरनेट उपभोक्ताओं में इतनी वृद्धि साफ इशारा करती है कि इंटरनेट के ये प्रथम उपभोक्ता सूचनाओं के लिए सोशल मीडिया, वॉट्सऐप और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर निर्भर हैं। समस्या यहीं से शुरू होती है। भारत में लगभग बीस करोड़ लोग वॉट्सऐप का प्रयोग करते हैं जिसमें कई संदेश, फोटो और विडियो फेक होते हैं। पर जागरूकता के अभाव में देखते ही देखते ये वायरल हो जाते हैं। एंड टु एंड एनक्रिप्शन के कारण वॉट्सऐप पर कोई तस्वीर सबसे पहले किसने डाली, यह पता करना लगभग असंभव है।
अपनी इसी खूबी के कारण वॉट्सऐप सारी दुनिया में लोकप्रियता हासिल कर रहा है क्योंकि इस चैटिंग ऐप के इस्तेमाल में कभी कोई विज्ञापन नहीं आता। इसके मालिक भी अगर चाहें तो किसी और के संदेश नहीं पढ़ सकते। वॉट्सऐप से शुरू फेक न्यूज का सिलसिला ट्विटर और फेसबुक पर आते ही गति पकड़ लेता है। फेक न्यूज को पकड़ने के लिए गूगल ने बूम लाइव, इंटर न्यूज और डाटालीड्स जैसी संस्थाओं के साथ मिलकर गूगल न्यूज इनिशटिव नामक कार्यक्रम शुरू किया है जो देश भर में अंग्रेजी समेत सात क्षेत्रीय भाषाओं के दो सौ पत्रकारों और पत्रकारिता के शिक्षकों को प्रशिक्षण दे रहा है। ये सभी लोग इस क्रम में अगले एक साल में देश के आठ हजार पत्रकारों और पत्रकारिता के विद्यार्थियों को फेक न्यूज पकड़ने का प्रशिक्षण देंगे। फर्जी चित्रों को पहचानने में गूगल ने गूगल इमेज सेवा शुरू की है, जहां आप कोई भी फोटो अपलोड करके यह पता कर सकते हैं कि कोई फोटो इंटरनेट पर यदि है, तो वह सबसे पहले कब अपलोड की गई है। एमनेस्टी इंटरनैशनल ने विडियो में छेड़छाड़ और उसका अपलोड इतिहास पता करने के लिए यूट्यूब के साथ मिलकर यू ट्यूब डेटा व्यूअर सेवा शुरू की है ।
अनुभव बताता है कि नब्बे प्रतिशत विडियो सही होते हैं पर उन्हें गलत संदर्भ में पेश किया जाता है। किसी भी विडियो की जांच करने के लिए उसे ध्यान से बार-बार देखा जाना चाहिए। यह काम क्रोम ब्राउजर में इनविड (InVID) एक्सटेंशन जोड़ कर किया जा सकता है। इनविड जहां किसी भी विडियो को फ्रेम दर फ्रेम देखने में मदद करता है वहीं इसमें विडियो के किसी भी दृश्य को मैग्निफाई (बड़ा) करके भी देखा जा सकता है। यह विडियो को देखने की बजाय उसे पढ़ने में मदद करता है। मतलब, किसी भी विडियो को पढ़ने के लिए किन चीजों की तलाश करनी चाहिए, ताकि उसके सही होने की पुष्टि की जा सके। जैसे विडियो में पोस्टर-बैनर, गाड़ियों की नंबर प्लेट और फोन नंबर की तलाश की जानी चाहिए, ताकि गूगल द्वारा उन्हें खोज कर उनके क्षेत्र की पहचान की जा सके। कोई लैंडमार्क खोजने की कोशिश की जाए। विडियो में दिख रहे लोग कैसे कपड़े पहने हुए हैं, वे किस भाषा या बोली में बात कर रहे हैं, उसको देखा जाना चाहिए। इंटरनेट पर ऐसे कई सॉफ्टवेयर मौजूद हैं जो विडियो और फोटो की सत्यता पता लगाने में मदद कर सकते हैं। फेक न्यूज से बचने का एकमात्र तरीका है, अपनी सामान्य समझ का इस्तेमाल और थोड़ी सी जागरूकता।
नवभारत टाईम्स में 22/09/2018 को प्रकाशित
1 comment:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन दुर्गा खोटे और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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