आज मोबाइल फोन, डेस्कटॉप, लैपटॉप, टैबलेट आदि हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन गए हैं। नवीनतम तकनीक को अपना लेने की जल्दी में हम कभी इस ओर नहीं सोचते कि जिन उपकरणों को हम इतने उत्साह से खरीद कर घर ला रहे हैं या ऑफिस में इस्तेमाल कर रहे हैं, उनकी उपयोगिता जब खत्म हो जाएगी तब उनका क्या होगा । ई-कचरे के अंतर्गत वे सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आते हैं, जिनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है।देश के जयादातर शहरी घरों में एक दो बेकार मोबाईल फोन या लैपटॉप की खराब बैटरी जरुर मिल जायेगी |वे घर में इसलिए पड़े हुए है क्योंकि उनका किया क्या जाए ये उनके मालिकों को पता ही नहीं है |विकसित देशों में ई कचरे को संगठित रूप से इकठ्ठा करने के लिए उनके शहरों में जगह –जगह ई वेस्ट डस्टबिन लगाये जाते हैं |भारत में यह व्यवस्था कुछ चुनिन्दा शहरों को छोड़कर कहीं भी नहीं है |
यूएस विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट ‘द ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2017’ के मुताबिक भारत में पिछले साल 2016 में 19|5 लाख टन ई-कचरा पैदा हुआ| देश की जनसँख्या के हिसाब से यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति लगभग 1|5 किलो है| इसके अतिरिक्त भारत में विकसित देशों से भी ई-कचरे का आयात किया भी जाता है|
राज्यसभा सचिवालय द्वारा 'ई-वेस्ट इन इंडिया' नाम से प्रकाशित एक दस्तावेज के अनुसार भारत में उत्पन्न होने वाले कुल ई-कचरे का लगभग सत्तर प्रतिशत केवल दस राज्यों से आता है। स्पष्ट रूप से कहें तो कुल पैंसठ शहर देश का साथ प्रतिशत ई-कचरा पैदा करते हैं। भारत में ई-कचरे के उत्पादन के मामले में महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे समृद्ध राज्य तथा मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर अव्वल हैं।
एसोचैम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के लगभग नब्बे प्रतिशत ई-कचरे का निस्तारण असंगठित क्षेत्र के अप्रशिक्षित लोगों द्वारा किया जाता है। इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस कार्य के लिए आवश्यक सुरक्षा मानकों से अनभिज्ञ हैं। इस वक़्त देश में लगभग सोलह कंपनियां ई-कचरे की रीसाइकलिंग के काम में लगी हैं। इनकी कुल क्षमता साल में लगभग छाछठ हजार टन ई-कचरे को निस्तारित करने की है, जो देश में पैदा होने वाले कुल ई-कचरे के दस प्रतिशत से भी कम है।
पिछले कुछ वर्षों में ई-कचरे की मात्रा में लगातार तीव्र वृद्धि हो रही है और प्रतिवर्ष लगभग दो से पांच करोड़ टन ई-कचरा विश्व भर में फेंका जा रहा है। ग्रीनपीस संस्था के अनुसार ई-कचरा विश्व भर में उत्पन्न होने वाले कुल ठोस कचरे का लगभग पांच प्रतिशत है। साथ ही विभिन्न प्रकार के ठोस कचरे में सबसे तेज वृद्धि दर ई-कचरे में ही देखी जा रही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि लोग अब अपने टेलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल, प्रिंटर आदि को ज्यादा तेजी से बदलने लगे हैं। कभी-कभी तो एक ही साल में दो-दो बार।
भविष्य में ई-कचरे की समस्या कितनी विकराल होने वाली है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में विकसित देशों में कंप्यूटर और मोबाइल उपकरणों की औसत आयु घट कर मात्र दो साल रह गई है। घटते दामों और बढ़ती क्रय शक्ति के फलस्वरूप इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों जैसे मोबाइल, टीवी, कंप्यूटर आदि की संख्या और इन्हें बदलने की दर में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।
घरेलू ई-कचरे में, जैसे बेकार टीवी और रेफ्रिजरेटर में लगभग एक हजार विषैले पदार्थ होते हैं जो मिट्टी और भू-जल को प्रदूषित करते हैं। इन पदार्थों के संपर्क में आने पर सिरदर्द, उल्टी, मितली और आंखों में दर्द जैसी समस्याएं हो सकती हैं। ई-कचरे की रीसाइकलिंग और निपटान का काम अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस बारे में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। भारत सरकार ने ई-कचरे के प्रबंधन के लिए विस्तृत नियम बनाए हैं जो 1 मई 2012 से प्रभाव में आ गए हैं। ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन नियम) 2011 के इसकी रीसाइकलिंग और निपटान को लेकर विस्तृत निर्देश जारी किए गए हैं, हालांकि इन दिशा निर्देशों का पालन किस सीमा तक किया जा रहा है, यह कह पाना कठिन है।
इस ई कचरे से होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें अडतीस अलग-अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं |जो काफी हानिकारक होते है। जैसे टीवी व पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर में लगी सीआरटी (केथोंड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है। इस कचरे में लेड, मरक्युरी, केडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं। दरअसल ई-कचरे का निपटान आसान काम नहीं है क्योंकि इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं। इस कचरे को जलाकर इसमें से आवश्यक धातु निकाली जाती है। इसे जलाने से जहरीला धुंआ निकलता है जो काफी घातक होता है। एशिया का लगभग 85 प्रतिशत ई-कचरा शमन के लिए अकेले दिल्ली में ही आता है। परंतु इसके निस्तारण के लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव है। आवश्यक जानकारी और सुविधाओं के अभाव में ई-कचरे के निस्तारण में लगे लोग न केवल अपने स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि पर्यावरण को भी दूषित कर रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक चीजों को बनाने के उपयोग में आने वाली सामग्रियों में ज्यादातर कैडमियम, निकेल, क्रोमियम, एंटीमोनी, आर्सेनिक, बेरिलियम और मरकरी का इस्तेमाल किया जाता है। ये सभी पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। इनमें से काफी चीजें तो रिसाइकल करने वाली कंपनियां ले जाती हैं, लेकिन कुछ चीजें नगर निगम के कचरे में चली जाती हैं। वे हवा, मिट्टी और भूमिगत जल में मिलकर जहर का काम करती हैं। कैडमियम से फेफड़े प्रभावित होते हैं, जबकि कैडमियम के धुएं और धूल के कारण फेफड़े व किडनी दोनों को गंभीर नुकसान पहुंचता है। एक कम्प्यूटर में प्राय: 3|8 पौंड सीसा, फासफोरस, केडमियम व मरकरी जैसे घातक तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत अपने ई-कचरे के केवल पांच प्रतिशत की ही रीसाइकलिंग कर पाता है।
जब तक ई-कचरे का प्रबंधन उत्पादक, उपभोक्ता और सरकार की सम्मिलित जिम्मेदारी नहीं होगी तब तक इस समस्या का समाधान होना मुश्किल है |यह उत्पादक की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह कम से कम हानिकारक पदार्थों का प्रयोग करे और ई-कचरे के निस्तारण का उचित प्रबंधन करे। उपभोक्ता की जिम्मेदारी है कि वह ई-कचरे को इधर-उधर न फेंक कर उसे रीसाइकलिंग के लिए उचित संस्था को दे, जबकि सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह ई-कचरे के प्रबंधन के ठोस तथा व्यावहारिक नियम बनाए और उनका पालन सुनिश्चित करे।
दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में 30/10/18 को प्रकाशित