Friday, October 5, 2018

जिन्दगी और पॉलिटिक्स

देश में  चुनाव का मौसम आने वाला है,वैसे  राजनीति को एक नकारात्मक शब्द  माना जाता है.हम जब कार्यस्थल  या रिश्तों में फंस जाते हैं तो बस बेसाख्ता मुंह से निकल ही  जाता हैबहुत पॉलीटिक्स है” . ये राजनीति इतना बुरा शब्द भी नहीं है जितना हम समझते हैं.देश के चुनाव का मौसम पांच साल में एक बार आता है जब हम अपनी पसंद से किसी को वोट देते हैं.कभी किसी को जिताने के लिए और कभी कभी किसी को हराने के लिए भाई यही तो पॉलीटिक्स है.यानि सारा खेल बस इसी पसंद का है कि हम जिस तरह का देश समाज चाहते हैं वैसे ही लोग चुनकर आयें पर जब ऐसा नहीं होता है तो शुरू होता है द्वंद ,इस वैचारिक द्वंद का फैसला चुनाव के वक्त होता है पर जब बात जिंदगी की होती है तो पसंद  का मामला और भी महत्वपूर्ण  हो जाता है.जिंदगी कोई देश नहीं है कि एक बार अपनी पसंद  बता दी और पांच साल की छुट्टी यहाँ तो रोज हर वक्त पॉलीटिक्स है,क्यूंकि हम सभी  अपनी जिंदगी को बेहतर और खूबसूरत बनाना चाहते हैं और ये तभी हो सकता है जब देश और समाज अच्छा होगा यहाँ तक तो ठीक है पर जब बात जिंदगी और रिश्तों की होती है और चीजें हमारे हिसाब से नहीं होती तब एक और तरह का द्वंद  शुरू होता है तब हम परिस्थितियों का सामना करने की बजाय  बहुत पॉलीटिक्स है” कहकर समस्याओं से भागने लग जाते हैं.
जब रिश्ते की राजनीति  में फंसें तो पहले यह तय कीजिये कि आप क्या चाहते हैं और उसी तरह से निर्णय लीजिए.अपनी जिंदगी के पन्ने पलटिए थोडा पीछे मुड़कर देखिये कि आप जिन्द्गी में सफल या असफल क्यूँ हुए बात सीधी है.अगर आप सफल रहे हैं तो आपने फैसले सही किये अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट रखी जिससे आपको और दूसरों को भी आपके बारे में निर्णय लेने में आसानी हुई.पर अगर आप लगातार असफल हो रहे हैं तो जिंदगी की पॉलीटिक्स यही कहती है कि आप भ्रम के शिकार हैं जिंदगी और रिश्तों को लेकर आपका नजरिया स्पष्ट नहीं हैं. जैसे देश के चुनाव में हम भ्रम का शिकार होकर गलत  प्रत्याशी   को वोट देकर जीता देते हैं वैसे ही जिंदगी और रिश्तों में गलत फैसले लेकर अपने आप को परेशानी में फंसा लेते हैं.चुनाव के वक्त आपने भी सुना होगा बहुत से दल ये दावा करते हैं कि उनके आते ही विकास की गंगा बहने लगेगी अब आप इस तरह की बातों पर भरोसा कर लेते हैं तो समझ लीजिए कि आप जिंदगी और रिश्तों के बारे में भी आपकी समझ नहीं है. इतना तो आप भी मानते हैं कि दोस्ती या रिश्ते एकदम से क्लोज नहीं होते रिश्तों को पकने में वक्त लगता है और इसके पीछे सिलसिलेवार तरीके से आपके द्वारा लिए गए निर्णय जिम्मेदार  होते हैं उसी तरह से देश में बदलाव एक झटके में नहीं हो सकता है.
समस्या  का समाधान तो तभी होगा जब हम उनके बारे में सोचेंगे,आपने कभी सोचा कि बचपन का वो दोस्त जो आपको सबसे प्यारा लगता था आज उससे बात करने पर वो मजा नहीं आता क्योंकि आपने अपनी प्राथमिकताएं बदल ली हैं.आज आपको उसकी उतनी जरूरत नहीं क्यूंकि आपका जीवन आगे बढ़ चला है.बात देश की हो या अपनी अपनी जिंदगी की पॉलीटिक्स की सारा खेल पसंद  का है पर जैसे देश आपसे वोट की उम्मीद करता है जिंदगी और रिश्ते भी करते हैं.देश का वोट उंगली पर लगी स्याही से दिखता है.जिंदगी और रिश्तों का  वोट प्यार  और त्याग  के रूप में दिखता है .
प्रभात खबर में 05/10/18 को प्रकाशित 

1 comment:

Anonymous said...

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