Monday, December 10, 2018

इंटरनेट का बढ़ता दुष्प्रभाव

पिछले तकरीबन एक दशक से भारत को किसी और चीज ने उतना नहीं बदलाजितना मोबाइल फोन ने बदल दिया है। संचार ही नहींइससे दोस्ती और रिश्ते तक बदल गए हैं। इतना ही नहींदेश में अब मोबाइल बात करने का माध्यम भर नहीं हैबल्कि यह मनोरंजन और खबरोंसूचनाओं वगैरह के मामले में परंपरागत संचार माध्यमों को टक्कर दे रहा है।डिजिटल इंडिया के बढ़ते कदमों के साथ यह चर्चा भी देश भर में आम है कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है। इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीअब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है। कई देशों के न्यूरो वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिकलोगों पर इंटरनेट और डिजिटल डिवाइस से लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। मुख्य रूप से इन शोधों का केंद्र युवा पीढ़ी पर नई तकनीक के संभावित प्रभाव की ओर झुका हुआ हैक्योंकि वे ही इस तकनीक के पहले और सबसे बड़े उपभोक्ता बन रहे हैं। कहा जाता है कि मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही हैजो न खाया जा सकता हैन पिया जा सकता हैऔर न ही सूंघा जा सकता है। चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिकइंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है। वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं। इसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24मिनट। इसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमोयानी फियर ऑफ मिसिंग आउटसोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैडयानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डर। इसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता हैदेश में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या इस साल जून तक 50 करोड़ पार कर गयी है इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया तथा केंटार आईएमआरबी द्वारा संयुक्त रूप से तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इंटरनेट उपभोक्ताओं   की संख्या वार्षिक  आधार पर 11.34 प्रतिशतसे  बढ़कर दिसंबर 2017 में अनुमानित 48.1 करोड़ हो गईभारत में इंटरनेट-2017 शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार  देश में कुल इंटरनेट घनत्व दिसंबर 2017 के अंत में जनसंख्या का पैंतीस  प्रतिशत रहां |
लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है।नतीजतनहमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैजहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता है। भारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही हैऔर उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं। कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैंजो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैं। वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है। वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैंजिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलतातो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है। साल 2011 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही हैक्योंकि वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैंबाकी के लिए इंटरनेट का सहारा लेते हैं। इसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है।
इसी दिशा में कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर शोध किया है। कैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना कीजिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेनफ्रांसजर्मनीइटलीस्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गया। शोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को याद रखने के तरीके तक पहुंच गया है। शोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा हैज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिएजो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैंइंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत है,बल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका है। इसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया है। यानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते है। इस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं।
एक यह तथ्य भी सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है। ज्यादा प्रयोग के कारण डिजिटल डिवाइस से हमारा एक मानवीय रिश्ता सा बन गया हैपर तकनीक पर अधिक निर्भरता हमें मानसिक रूप से पंगु भी बना सकती है। यही इंटरनेट एडिक्शन बहुत से लोगों की मौत का कारण भी बना जब ब्लू व्हेल जैसे खतरनाक ओनलाईन खेल खेलते हुए लोगों ने अपनी जाने दीं |
 इसलिए इंटरनेट का इस्तेमाल जरूरत के वक्त ही किया जाए।इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए।
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 10/12/18 को प्रकाशित 

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-12-2018) को "जातिवाद में बँट गये, महावीर हनुमान" (चर्चा अंक-3182) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

प्रतिभा सक्सेना said...

दिमाग़ इन्टरनेट पर इतना निर्भर हो गया ,इधर ऑर्टिफ़िशल इन्टेलिजेंस भी चर्चा में है;आगे-आगे देखिये होता है क्या .

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