Wednesday, March 27, 2019

सिर्फ अधिकार नहीं कर्तव्यों की भी हो बात

दिल को खुश रखने को ये ख्याल अच्छा है ,लिखने वाले ने जब ये पंक्तियाँ लिखी होंगी तो ये नहीं सोचा होगा कि  दिल के खुश रखने को क्या ख्याल अच्छा हो सकता है पर दुनिया बहुत तेजी से  बदल रही है अब दिल को खुश रखने को क्या ख्याल अच्छा हो सकता है उसके कई सारे पैमाने है और उन्हीं के आधार पर सारी दुनिया के देशों का खुशहाली का इंडेक्स जारी किया जाता है सामान्य  शब्दों में औसत रूप में दुनिया के सारे देशों के निवासी किस पैमाने पर सबसे ज्यादा खुश हैं यही है खुशहाली का पैमाना संयुक्त राष्ट्र संघ  के वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत 140वें पायदान के साथ दुनिया के सबसे दुखी देशों में शामिल है. इस हैप्पीनेस इंडेक्स के  मुताबिक बांग्लादेशश्रीलंका और पाकिस्तान में लोग भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा खुश हैं. 159 देशों की सूची में साल 2013 में भारत 111वें पायदान पर था इसके बाद साल 2016 में यह 118वें पायदान पर आ गया। 2017 में भारत 122 वें पायदान पर आ गया। इसके बाद 2018 में 133वें पायदान पर और अब 2019 में यह 140वें पायदान पर पहुंच गया।
इस बार लगातार दूसरे साल फिनलैंड पहले नंबर पर है। उसके बाद डेनमार्कनॉर्वेआइसलैंड और नीदरलैंड का स्थान है. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2012 में 20 मार्च को विश्व खुशहाली दिवस घोषित किया था.संयुक्त राष्ट्र की ये सूची 6 पैमानों  पर तय की जाती है. इसमें आयस्वस्थ जीवन प्रत्याशासामाजिक साथ साथ आजादीविश्वास और उदारता शामिल हैं.
संयुक्त राष्ट्र की सातवीं वार्षिक विश्व खुशहाली रिपोर्टजो दुनिया के 156 देशों को इस आधार पर रैंक करती है कि उसके नागरिक खुद को कितना खुश महसूस करते हैं। रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान 67 वेंबांग्लादेश 125 वें और चीन 93 वें स्थान पर है. युद्धग्रस्त दक्षिण सूडान के लोग अपने जीवन से सबसे अधिक नाखुश हैंइसके बाद मध्य अफ्रीकी गणराज्य (155)अफगानिस्तान (154)तंजानिया (153) और रवांडा (152) हैं. दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक होने के बावजूदअमेरिका खुशहाली के मामले में 19 वें स्थान पर है. क्यों दुखी है भारत ऐसा नहीं है कि भारत सभी पैमानों पर इतना पिछड़ा हुआ है । यह ठीक है कि हमारी प्रति व्यक्ति और सकल उत्पाद में वृद्धि हुई है लेकिन आर्थिक उन्नति ही सुखी होने का एकमात्र साधन नहीं है. यह रिपोर्ट अपने आप में अंतिम नहीं है लेकिन यह हमें सोचने पर मजबूर जरूर करती है की आखिर वसुधैव कुटुंबकम की बात करने वाला देश अचानक इतना दुखी क्यों हो गया और दुनिया भर में  आतंक को निर्यात करने वाला देश पाकिस्तान क्या वास्तव में हमसे ज्यादा खुशहाल है   ?ऐसे सारे प्रश्नों के जवाब छिपे हैं दुनिया की आधुनिक व्यवस्था में जहाँ हर चीज बाजार तय करती है और भारत भी अपवाद नहीं है.खुशी एक मानसिक अवस्था है जिसका वास्तविकता से एकदम दो दूनी चार वाला संबंध हो ये जरूरी नहीं है। अनुभव यह बताता है कि  आप खुश किसी भी परिस्थिति में रह सकते हैं और वैसा  दुखी होने के मामले में है ,.फिर भी  इस तथ्य को नाकारा नहीं जा सकता है कि  हम खुशहाली के पैमाने पर फिसले हैं।
आज देश की बहुसंख्यक जनता के साथ -साथ देश को नेत्तृत्व देने वाली सरकारें भी दुबिधा में है की वो किस राह चलें वहीं भारत जैसे विविधता वाले देश में जनता के सामान्य व्यवहार का समान्यीकरण नहीं किया जा सकता। सरकारों के ऊपर जहाँ लोक लुभावन योजनाएं चलाने की मजबूरी रहती है वहीं दूसरी ओर  देश को विकास के पथ पर अग्रसर करने का दायित्व भी।
लोग जहाँ आजादी के नाम पर सिर्फ अधिकारों की बात करते हैं पर जब कर्तव्यों का मामला आता है तो उसकी जिम्मेदारी सरकारों पर छोड़ देते हैं और इस मनोवृत्ति से जो निर्वात उतपन्न होता है ,वह होता है लोगों के दुखों का कारण लोगों को लगता है सरकार उनकी नहीं सुन रही वहीं सरकार चला रहे राजनैतिक दलों  को लगता है की जनता बदलना नहीं चाहती इसलिए जो चल रहा है वही चलाया जाए नहीं तो अगला चुनाव जीतना मुश्किल होगा। यही से शुरू होता है तदर्थवाद और तुष्टिकरण का सिलसिला। जिसकी चरम परिणीति लोगों के दुःख में इजाफा ही करती है |
किसी देश की खुशी का पैमाना वहां के निवासियों के कर्तव्यबोध और सरकारों के जनहितकारी कार्यों के सम्यक संतुलन से निर्धारित हो सकता है पर भारत में यह साम्य दूर की कौड़ी लगता है अमीरी गरीबों के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। ऑक्सफैम के एक शोध के मुताबिक़ भारत की कुल संपत्ति के 73 प्रतिशत  हिस्‍से पर देश के 1 प्रतिशत अमीरों का कब्‍जा है। यह आंकड़ा बताता है कि देश में आय के मामले में असमानता बढ़ती जा रही है। यानी देश के अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और गरीब उस अनुपात में कम नहीं हो रहे हैं  .यह आंकड़ा तस्वीर की हकीकत बयान करने के लिए पर्याप्त है कि आजादी के बाद से देश की सरकारों की नीतियां किस तरह पूंजीपतियों की झोली भरती  चली आईं हैं। दूसरी  तरफ जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा सामजिक आर्थिक आधार पर लगातार पिछड़ता चला जा रहा है और हर चुनाव के बाद वो अपने आप को ठगा हुआ महसूस करता है जो लोग कड़ी मेहनत कर रहे हैंदेश के लिए अन्‍न उगा रहे हैं,  फैक्ट्रियों में काम कर रहे हैंवे अपने बच्‍चों की शिक्षापरिवार के सदस्‍यों के लिए दवाएं खरीदने और दिन में दो बार का खाना जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आय के मोर्चे पर बढ़ती खाई लोकतंत्र को कमजोर करती है और भ्रष्‍टाचार को बढ़ावा देती है।    दूसरा  कारण देश की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से का अभी नागरिक के तौर पर तैयार न हो पाना है जबकि वो अपने लिए उन सभी सुविधाओं की मांग करते हैं जो किसी भी देश के आदर्श नागरिकों को मिलनी चाहिए पर सुविधाओं की  मांग में वे नागरिक के तौर पर अपने कर्तव्य को भूल जाते हैं।
आई नेक्स्ट /दैनिक जागरण में 27/03/2019 को प्रकाशित 

1 comment:

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व रंगमंच दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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