इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी
खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो ली, अब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है। कई देशों के न्यूरो
वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक, लोगों पर इंटरनेट और डिजिटल डिवाइस से लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभाव का
अध्ययन कर रहे हैं। मुख्य रूप से इन शोधों का केंद्र युवा पीढ़ी पर नई तकनीक के
संभावित प्रभाव की ओर झुका हुआ है, क्योंकि वे ही इस तकनीक के पहले और सबसे बड़े उपभोक्ता बन रहे हैं। यह चर्चा भी देश
भर में आम है कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है। कहा जाता है कि
मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही है, जो न खाया जा
सकता है, न पिया जा सकता है, और न ही सूंघा जा सकता है। चीन के शंघाई मेंटल
हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिक, इंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने
वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है। वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी
कुछ कहते हैं। इसके अनुसार, एक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या
टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनट, सोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा
इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24 मिनट। इसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमो, यानी फियर ऑफ
मिसिंग आउट, सोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैड, यानी फेसबुक
एडिक्शन डिसऑर्डर। इसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों
की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त
सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता है। इस वक्त भारत में 97.8 करोड़ मोबाइल और 14 करोड़ स्मार्टफोन कनेक्शन हैं, जिनमें से 24.3 करोड़ इंटरनेट पर सक्रिय हैं और 11.8 करोड़ सोशल
मीडिया का इस्तेमाल करते हैं।
लोगों में डिजिटल
तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट
रहा है।नतीजतन, हमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले
जाती है, जहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता है। भारत जैसे देश में समस्या यह है कि
यहां तकनीक पहले आ रही है,और उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं। कैस्परस्की लैब द्वारा इस
वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा
डिजिटल लत के शिकार हैं, जो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैं। वर्चुअल दुनिया
में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है। वास्तविक जिंदगी
की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय
बिताने लगते हैं, जिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं
मिलता, तो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है। इससे निपटने का
एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति
केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए।
साल 2011 में हार्वर्ड
यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष
निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही है, क्योंकि वह
आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैं, बाकी के लिए
इंटरनेट का सहारा लेते हैं। इसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है।
इसी दिशा में
कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर
शोध किया है। कैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना की, जिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह
शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी,इटली, स्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गया। शोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन
तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को
याद रखने के तरीके तक पहुंच गया है। शोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा
है, ज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिए, जो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैं, इंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत है, बल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन
चुका है।
इसे कैस्परस्की
लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया है। यानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को
भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके
लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों
में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए
वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते है। इस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि
अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं।
एक यह तथ्य भी
सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं
और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है। ज्यादा प्रयोग के कारण डिजिटल डिवाइस से
हमारा एक मानवीय रिश्ता सा बन गया है, पर तकनीक पर अधिक निर्भरता हमें मानसिक रूप से पंगु भी बना सकती है। इसलिए
इंटरनेट का इस्तेमाल जरूरत के वक्त ही किया जाए।
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