Sunday, February 23, 2020

प्रकृति की गोद में अनछुआ सौन्दर्य

यात्राएं मुझे हमेशा सुकून देती हैं एक ऐसी ही  यात्रा पिछले दिनों हुई जम्मू कश्मीर के बारे में सबने सुना होगा खासकर  अपने नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य के कारण और  लंबे समय  तक आतंकवाद से पीड़ित राज्य के रूप में |जब जम्मू कश्मीर घूमने की बात  होती है तो दो चार जगह ही ध्यान में आती है,पर राजौरी जैसी बहुत सी जगहें हैं जिनके बारे में लोगों को कम पता है |राजौरी के लिए ट्रेन जम्मू तक ही जाती है वहां से लगभग 165 किमी दूर सडक से ही पहुंचा जा सकता है हालंकि राजौरी में एअरपोर्ट है पर वहां से से नियमित उड़ान का कोई सिलिसला नहीं है वो एअरपोर्ट ज्यादातर भारतीय सेना या मंत्रियों के हेलीकॉप्टर के काम ही आता है |
राजौरी जगह कैसी है बस ख़बरों में ही सुना था शायद इसीलिये मैं ज्यादा उनी कपडे नहीं ले जा रहा था सोचा जम्मू जैसा ही होगा जब जम्मू में ज्यादा ठण्ड नहीं पड़ती तो राजौरी भी ऐसा ही होगा पर हुआ इसका उल्टा राजौरी में अच्छी ठण्ड थी | ट्रेन समय से निकल पडी पन्द्रह घंटे के सफर के बाद हम जम्मू पहुँच जाने वाले थे | दिन के दो बज तक हम  अखनूर पार कर चुके थे और उसके बाद राजौरी जिला शुरू हुआ सुंदरबनी के पी डबल्यू डी गेस्ट हाउस में दोपहर के भोजन की व्यवस्था थी खूबसूरत कमरा था जहाँ मैंने स्नान किया और भोजन पर टूट पड़े | अब रास्ते में सन्नाटा बढ़ रहा था जंगल घने हो रहे थे और एक पहाड़ी नदी लगातार हमारे साथ चल रही थी|
 हम नौशेरा से गुजर रहे थे आर्मी के ट्रकों का आना जाना लगा था उसके बाद तीथवाल पड़ा 1947-48 मे यहाँ पाकिस्तानी कबाइलों ने यहाँ घुसपैठ कर ली थी मैंने इतिहास में पढ़ा था और आज देख रहा था इतिहास को जीना अच्छा लग रहा था |रास्ता लंबा था तो मैंने परवेज से  मिलिटेंसी के दौर की बात शुरू कर दी उस दर्द को शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है और जब जब मैंने जिस किसी से आतंकवाद के उस दौर की बात की तो लगा जैसे वे तटस्थ हो चुके हैं इतना कुछ झेलने के बाद  सुख दुख राग द्वेष सबसे उपर |रास्ते में  आतंकवाद का  एक पहलू एक चायवाले ने बताया कि हमारे जंगल अंधाधुंध काटने से बच गए नहीं तो इतनी हरियाली ना दिखती मेरे कैसे पूछने पर बड़ा मजेदार उत्तर मिला होता यूँ था कि पाकिस्तान से आये आतंकवादी जंगलों में पनाह लेतेथे दिन में अगर कोई लकड़ी काटने वाला जंगल में जाता तो उसे मार पीटकर जंगल से भगा देते थे जिससे सेना या पुलिस को उनकी छुपने की जगह का पता नहीं चलता था |इस तरह उन लोगों ने इतना दहशत का माहौल बना दिया कि लोग जंगलों में जाते ही नहीं थे जिससे अवैध कटाई पर पूरी तरह रोक लग गयी|जंगल बचे इंसानी लाशों की कीमत पर , ये भी विकास का एक पहलू था | राजौरी से लगभग तीस किलोमीटर पहले एक चिंगस नाम की जगह ,चिंगस के बारे में बताने से पहले आपको बता दूँ राजौरी का यह इलाका उस रास्ते का हिस्सा है जिस रास्ते से मुग़ल शासक गर्मियों में कश्मीर घाटी जाते थे |मुगलों के द्वारा बनवाई गयी सरायों के अवशेष आज भी मिलते हैं|थोड़ी दूर चलने पर चिंगस नाम की वो सराय आ गयी जिसे मुग़ल बादशाह अकबर ने बनवाया था.आज ये मुख्य सड़क से सटा एक वीरान इलाका है जहाँ मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शरीर का कुछ हिस्सा दफ़न है|
चिंगस को फारसी भाषा में आंत कहते हैं किस्सा कुछ यूँ है कि मुग़ल बादशाह जहाँगीर अपनी बेगम नूरजहाँ के साथ अपने वार्षिक प्रवास के बाद कश्मीर से अपनी सल्तनत की ओर लौट रहे थे |
 चिंगस में उनकी तबियत खराब हुई और उनकी मौत हो गयी|उत्तराधिकार के संघर्ष को टालने के लिए नूरजहाँ इस बात का पता आगरा  पहुँचने से पहले सार्वजनिक नहीं करना चाहती थी|शरीर के वो हिस्से जो मौत के बाद सबसे जल्दी सड़ते हैं उन अंगों को इसी जगह काटकर निकल दिया गया और उनको यहीं दफना दिया गया जिसमें जहाँगीर की आंत भी शामिल थी|आंत और पेट के अंदरूनी हिस्से को निकाल कर उसके शरीर को सिल कर इस तरह रखा गया कि आगरा पहुँचने से पहले किसी को भी इस बात का आभास् नहीं हुआ कि जहाँगीर मर चुके हैं| इस तरह उसकी आँतों को जहाँ दफनाया गया वो चिंगस के नाम से प्रसिद्ध हो गया|यहाँ जहाँगीर की आँतों की कब्र आज भी सुरक्षित है लेकिन यहाँ एकदम सन्नाटा पसरा था लगता है यहाँ ज्यादा लोगों का आना जाना नहीं है हालांकि पुरातत्व विभाग के लगे बोर्ड इस बात की गवाही दे रहे थे कि सरकार के लिए यह स्थल महत्वपूर्ण है|मैंने अपने कैमरे का यहाँ बखूबी इस्तेमाल किया| शाम के पांच बजे हमने राजौरी में प्रवेश किया शांत कस्बाई रंगत वाला शहर जहाँ अभी विकास का कीड़ा नहीं लगा था और ना लोग प्रगति के पीछे पागल थे|जहाँ हमारे रुकने की व्यवस्था की गई थी वो एक सरकारी गेस्ट हाउस था पर उसके कमरे को देखकर लग रहा था जैसे कोई शानदार होटल हो | राजौरी अंधरे में डूब रहा था पहाड़ों पर रौशनियाँ जगमगाने लगी थीं|

अगले दिन हम राजौरी को एक्सप्लोर करने निकल पड़े| पहला पड़ाव था राजौरी से तीस किलोमीटर दूर बाबा गुलाम शाह की दरगाह इन्हीं संत के नाम पर राजौरी में एक विश्वविद्यालय भी है|इसे शाहदरा शरीफ भी कहा जात है  | पहाड़ों के चक्कर लगते हुए हम कई गाँवों से गुजर रहे थे पहाड़ों से निकालने वाले चश्मे आस पास के दृश्यों  की सुंदरता में चार चाँद लगा रहे थे|चश्मे प्राकृतिक पानी के ऐसे स्रोत हैं जो पहाड़ों से निकलते हैं | दो घंटे के सफर के बाद हम दरगाह पहुँच चुके थे|ऊँचाई पर बनी दरगाह लगभग २५० साल पुरानी है जहाँ चौबीस घंटे लंगर चलता है|जिसमें चावल दाल और मक्के की रोटी प्रसाद में मिलती है| हमने पहले दरगाह में सजदा किया और चादर चढ़ाई सबकुछ व्यवस्थित और शांत दरगाह का प्रबंधन सरकार द्वारा स्थापित ट्रस्ट करता है| जो भी चढावा आता है उसकी बाकायदा नाम पते के साथ रसीद दी जाती है| एक खास बात ये थी कि इस दरगाह पर सभी मजहब के लोग आते हैं जिनकी मन्नत पूरी हो जाती हैं |उनमें कुछ मुर्गे और पशु भी चढाते हैं पर उन पशुओं का वध दरगाह परिसर में नहीं किया जाता है उन्हें जरूरतमंदों को दे दिया जाता है|दरगाह के लंगर में सिर्फ शाकाहारी भोजन ही मिलता है यहीं नमकीन कश्मीरी चाय भी पीने को मिली | दरगाह में दो घंटे बिताने के बाद हम चल पड़े पर्यटक स्थल देहरा की गली (डी के जी)देखने |दरगाह से एक घंटे की यात्रा के बाद हम यहाँ पहुंचे क्या नज़ारे थे| इस जगह पर हमारे सिवा कोई नहीं था| सिर्फ बर्फ से ढंके पहाड जो पाक अधिकृत कश्मीर में थे| अक्तूबर के महीने में  हालाँकि धूप तेज थी पर ठण्ड थी|एक पहाड़ी पर कुछ लकड़ी की झोपडियां बनाई गयी हैं जिनको गरम रखने के लिए सोलर एनर्जी का इस्तेमाल किया जाता है| जिससे पर्यावरण को नुक्सान ना पहुंचे इसी पहाड़ी के समीप एक व्यू पॉइंट बनाया गया है| जहाँ से पूरे राजौरी का नजारा लिया जा सकता है|हमारे पीछे पूँछ शहर दिख रहा था और उसके पार पाक अधिकृत कश्मीर सब कुछ एक था पर बीच में नियंत्रण रेखा भारत और पाकिस्तान को अलग अलग कर रही थी|दिन के भोजन की व्यवस्था यहीं की गयी थी|भुना चिकन खाने के बाद एक लड्डू जैसा मांस का व्यंजन परोसा गया जो भेंड के मांस  से बना था जिसे रिस्ता कहते हैं | जिसमें भेंड के मांस को लकड़ी के बर्तन में गुंथा जाता है फिर दही के साथ पकाया जाता है| राजौरी में बहुत सारी ऐसी जगहें जो एकदम अनछुई हैं| ऐसे में मेरे जैसे इंसान के लिए जो भीड़ भाड़ कम पसंद करता है उसके लिए ऐसी जगहें जन्नत से कम नहीं हैं|खाना खा कर हम वहीं घूमें फोटोग्राफी की शांति इतनी कि हम अपनी साँसों की आवाज़ को सुन सकते थे|शाम हो रही थी अब लौटने का वक्त रास्ते में दिखते चीड के पेड़ों पर जब सूर्य की किरणें पड़ती तो वो हरे पेड भी सुनहली आभा देते और बगल में बहने वाले पानी के चश्मे चांदी जैसे चमकते बहुत सी किताबों में इस तरह के द्रश्यों के बारे में पढ़ा था पर अपनी आँखों से प्रकृति के सोना चांदी को पहली बार देखा रहा था|लौटते वक्त परवेज ने बताया कि इन गावों में रहने वाले काफी लोग मध्यपूर्व के देशों में बेहतर जीवन की तलाश में चले गए हैं उनके भेजे हुए पैसों से गाँव के घरों में छत टिन की बनने लग गयी है मिट्टी या सीमेंट की छत बर्फबारी में घर की रक्षा नहीं कर पाती और ये टिन की छतों वाले घर सूर्य की किरणों से ऐसे चमक रहे थे जैसे पहाड पर अनगिनत शीशे रख दिए गए हों |जहाँ हम रुके थे वहां से दो  किलोमीटर की ऊंचाई पर  वह किला पुराना था पर जिसे धरनी धार किले  के नाम से जाना जाता है पर अब वहां  सेना का ठिकाना  है और किले में खरगोशों की पूरी कॉलोनी बसी हुई थी कुछ छोटे, कुछ बड़े और कुछ एकदम बच्चे, रात घिर रही थी राजौरी बिजली में जगमग कर रहा था हवा ठंडी थी सूरज डूब रहा था |मेरा मन भारी हो रहा था कल मुझे अपनी दुनिया में लौटना है आज की रात राजौरी की आखरी रात थी । यह सब कुछ तो सपने जैसा लग रहा है अब वापस लौटने का वक़्त था |
दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 23/02/2020 को प्रकाशित 

2 comments:

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा said...

बेहतरीन अनुभूति हुई इसे पढ़कर । धन्यवाद आदरणीय

Raj Kamal Srivastava said...

बहुत सुंदर.. ..

पसंद आया हो तो