संयुक्त राष्ट्र महा सभा की 70वीं वर्ष गाँठ पर अमेरिका में बोलते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने पर्यावरण का
जिक्र करते हुए कहा था कि अगर हम जलवायु परिवर्तन की चिन्ता करते हैं तो यह
हमारे नीजि सुख को सुरक्षित करने की बू आती है, लेकिन
यदि हम क्लाइमेट जस्टिस की बात करते हैं, तो गरीबों को
प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखने का एक संवेदनशील संकल्प उभरकर आता है। क्योंकि
जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा इन्हीं निर्धन व वंचित लोगों पर होता
है। जब प्राकृतिक आपदा आती है, तो ये बेघर हो जाते हैं, जब भूकम्प आता है, तो इनके घर तबाह हो जाते है।सच
यही है कि बरसों पहले जलवायु परिवर्तन पर
की गई मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी अब सही साबित होती महसूस होने लगी है|आज वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं से विस्थापित
लोगों का औसत युद्ध और हिंसा द्वारा हुई विस्थापनों से कहीं अधिक है|इस तथ्य की पुष्टि संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट
में दिए गए आंकड़ों से होती है | रिपोर्ट में 148 देशों पर किये सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष दिया गया है कि
इन देशों में कुल 2.8 करोड़ विस्थापित हुए
हैं | जिन में 61प्रतिशत (1.75 करोड़) जलवायु परिवर्तन द्वारा जबकि 39प्रतिशत (1.08 करोड़) युद्ध और हिंसक संघर्षों की वजह से हुए हैं|जलवायु
परिवर्तन पर इंटर गर्वमेंतल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने भी अपनी एक रिपोर्ट में यही चेतावनी दी है कि जैसे जैसे प्राकृतिक
आपदाओं की संख्या और तीव्रता बढ़ेगी अनेक लोगों को अपना घर और देश छोड़ने को मजबूर
होना पड़ेगा|इसी सन्दर्भ में वर्ल्ड बैंक ने 2018 में दिए हुए अपने अनुमान में कहा है कि अगर तुरंत कोई कार्यवाही नही की तो 2050 तक पृथ्वी के तीन बड़े हिस्सों (उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण एशिया, लैटिन अमेरिका) में 14.3 करोड़ से ज़्यादा लोगों को जलवायु परिवर्तन की वजह से अपना घर छोड़ कर
विस्थापित होना पड़ेगा|आमतौर पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले
विस्थापन को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता जबकि अब वक्त आ गया है कि लोगों को
जलवायु परिवर्तन के कारण शरणार्थी बनाने वाली वजहों को मानव तस्करी के बराबर माना
जाना चाहिए क्योंकि दोनों ही कारण लोगों को विस्थापित होने पर मजबूर करते हैं|एक अन्य संस्थान , अंतर्राष्ट्रीय आंतरिक
विस्थापन निगरानी केंद्र (IDMC) के अनुसार 2018 के अंत तक 16 लाख से अधिक लोग जलवायु
परिवर्तन की वजह से अपने घरों को छोड़ कर राहत शिविरों में पड़े हुए हैं|वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट के अनुसार ये परिद्रश्य भारतीय उपमहाद्वीप के
देशों के लिए अधिक चिंतनीय है| इंटर गर्वमेंतल पैनल ऑन
क्लाइमेट चेंज ने अपनी रिपोर्ट में ये भी कहा है कि भारत अपने विशाल तटीय भूगोल की
वजह से इस परिदृश्य में सबसे कमज़ोर देशों में से एक है|जहाँ
पिछले 2 वर्षों में हर महीने कम से कम एक
प्राकृतिक आपदा अवश्य हुई है| भारत के पूर्व में
सुंदरवन जैसी जगहों पर समुद्र के स्तर में वृद्धि का खतरा है, तो उत्तर भारत में पहाडी बाढ़, बादल
फटने और भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ी है। बंगाल की खाड़ी में 2009 का आयला चक्रवात या उत्तराखंड में 2013 की
केदारनाथ बाढ़ इस तथ्य के प्रमाण हैं।दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साईंस इन्वायरमेंट
(CSE) भी 9 फरवरी 2020 को प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में इस तथ्य की पुष्टि करती है|2019 में एशिया में हुई 93 प्राकृतिक आपदाओं
में नौ अकेले भारत में हुई जो कुल मौतों का अडतालीस प्रतिशत हिस्सा थी|इस रिपोर्ट में एक और चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है 2018 की तुलना में 2019 में प्राकृतिक आपदाएं
तो कम हुईं पर 45 प्रतिशत अधिक लोगों ने 2019 में अपनी जान गंवाई |देश के राष्ट्रीय आपदा
प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार इस समय भारत के 37 प्रदेश
एवं केन्द्रशासित राज्यों में से 27 आपदा ग्रस्त
हैं|भारत और पूरे विश्व के लिए जलवायु परिवर्तन एक गंभीर
मुद्दा है| गरीब से लेकर अमीर देश सब इस की चपेट में
हैं| अब यही समय है जब दुनिया माने की विस्थापन
समस्या एक राजनीतिक गर्म मुद्दा नहीं बल्कि एक गंभीर समस्या है जिसमें जलवायु
परिवर्तन की एक बड़ी भूमिका है |इस समस्या के मानवीय पक्ष को
देखते हुए अब हम सब को तय करना होगा इन विस्थापित लोगों को फिर से स्थापित करने के
लिए हमें क्या करना चाहिए|इनमें से ज्यादातर ऐसे गरीब
लोग हैं जिन के पास अपना घर, खेत छोड़ने के अलावा कोई
विकल्प ही नहीं था |इनमें से ज्यादातर के पास रोजगार
का कोई नियमित साधन नहीं है और वे सभी उस भूमि पर आश्रित थे जिन्हें जलवायु
परिवर्तन के कारण उन्हें छोड़ना पड़ा |विचारणीय प्रश्न यह भी
है कि इन ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं को फिर से स्थापित करने के लिए सरकार क्या कर
सकती है |
अमर उजाला में 02/03/2020 को प्रकाशित
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