वैश्विक महामारी कोरोना ने दुनिया के सभी देशों की दिनचर्या बदल को बदल कर रख दिया है | घर और ऑफिस के बीच का अंतर खत्म हो गया है लोग घरों में बंद हैं |भारत भी इससे अछूता नहीं परंतु सभी का ध्यान इस महामारी से बचाव और लॉक-डाउन से दिखने वाले प्रभाव पर है | संस्थान घर से काम करने को प्राथमिकता दे रहे हैं |इस नए तरीके की कार्य पद्धति में भी महिलायें दोहरी चुनौती का सामना कर रही हैं | कोरोनोवायरस लॉकडाउन के इस साइड इफेक्ट में कामकाजी महिलाओं के लिए विडंबना यह है कि उनका बोझ दोगुना हो गया है | प्रोफेशनल प्रतिबद्धता की मांग है कि घर से काम करो, और परिवार चाहता है कि घर के लिए काम करो |
भारत में सामाजिक मानदंडों के कारण घर के काम और बच्चों की परवरिश को महिलाओं का कार्य माना जाता है | पुरुषों का घरेलू काम करना सामजिक रूप में हेय दृष्टि से देखा जाता है | कुछ प्रगतिशील पुरुष गर्व से कहते हैं कि वे महिलाओं के काम में हाथ बंटाते हैं, परंतु यह समझ से परे है कि ऐसा कौन सा कार्य है जो महिलाओं का है घर का नहीं ?
पिछले कई दिनों से,घरों में कामकाजी महिलाओं के लिए मदद देने वाली मेड ,कपडा धोने वाली और झाड़ू पोंछा का आना बंद हो चुका है | ऐसे में घर से काम करना साथ ही साथ नौकरानी के बिना, एक बच्चे की देखभाल करना, परिवार के लिए खाना पकाना और स्वच्छता बनाए रखना लगभग असंभव है | जिससे वे बारह घंटे की शिफ्ट के दौरान, भारत की महिलायें अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक बोझ झेल रही है |कारण सीधा है भारतीय परिवारों में यह सहज नियम है कि पुरुष सदस्य से घर के काम करने की उम्मीद नहीं की जाती है | ज्यादातर भारतीय घरों में घरेलू काम काज का बंटवारा नहीं होता है। भले ही पति और पत्नी दोनों घर से काम कर रहे हों, लेकिन भार महिलाओं द्वारा पूरी तरह से वहन किया जाएगा | पर इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए है कि पूरी तरह से घरेलू काम काज करने वाली महिलायें बेहतर स्थिति में हैं | उनके पास ससुराली रिश्तों की मांगों को पूरा करना एक बड़ी जिम्मेदारी है जैसे पति के माता -पिता, या ननद, देवर आदि का अतिरिक्त काम होता है | ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ इकोनोमिक कोऑपरेशन एंड डेवेलपमेंट 2015 के एक सर्वे के अनुसार एक भारतीय महिला अन्य देशों के मुकाबले हर दिन औसतन छह-घंटे बगैर भुगतान का घरेलू श्रम करती है |सर्वे में भारत के बाद मेक्सिको की महिलायें इस लिस्ट में हैं जो औसतन छ घंटे तेईस मिनट का बगैर भुगतान घरेलू श्रम करती हैं जबकि जापान, फ्रांस और कनाडा की महिलायें क्रमशः तीन घंटे चौआलीस मिनट ,तीन घंटे तैंतालीस मिनट बगैर भुगतान का घरेलू श्रम करती हैं |दूसरी ओर, भारतीय पुरुष इस मोर्चे पर सबसे खराब हैं, वे प्रत्येक दिन एक घंटे से भी कम बावन मिनट का घरेलू काम करते है | घरेलू मामले में ज्यादातर फैसले महिलाओं को लेने होते है | जैसे खाना क्या बनेगा , खाना पकाना, सब्जियाँ खरीदना और फिर बच्चों को खाना खिलाना ऐसी परिस्थिति में घरेलू काम वाली मेड ही वह कड़ी थी जो थोडा बहुत शक्ति संतुलन साधती थी पर अब वह कड़ी भी टूटी हुई है |
इन बदली परिस्थितियों में घर में महिलाओं पर अतिरिक्त बोझ आन पड़ा है | घरेलू कार्य, बच्चों की जवाबदेही और घर में रहने के कारण बच्चों और पुरुषों की विभिन्न फरमाइशों के बीच कामवाली बाई की अनुपस्थिति समस्या को और गंभीर बना रहें हैं | घर से दूर बाहर रह कर पढ़ाई करने वाले बच्चे भी लम्बे समय बाद घर में हैं | लेकिन मां की ममता और ख्वाहिशों के बीच सब्जियों की किल्लत रसोई के विकल्पों को सीमित करने के लिए पर्याप्त हैं |
घरेलु माहौल को खुशनुमा बनाये रखने की चुनौती
ज्यादा काम का बोझ और घर के सभी सदस्यों की आशाओं पर खरा उतरने की कोशिश महिलाओं को चिड़चिड़ा बना देती है | लॉक डाउन से पैदा हुई समस्याएं और उससे उपजी दैनिक गतिविधियों में एकरूपता के कारण इसकी संभावना और बढ़ जाती है | जिससे घरेलू माहौल भी प्रभावित होता है | लॉक डाउन से उपजा तनाव, कल क्या होगा जैसी अनिश्चित स्थिति में घर में सामंजस्य बनाये रखने की अलिखित जिम्मेदारी भी महिलाओं की है क्योंकि ये वे ही हैं जिनके इर्द गिर्द पूरा घर घूमता है |
खाना बनाना, कपड़े साफ करना या घर का अन्य कार्य महिलाओं का नहीं घर का काम और जीवन का कौशल है |भारतीय पुरुषों को अब यह समझने का वक्त आ चुका है |जेंडर स्टीरियो टाइपिंग की कैद से जितनी जल्दी हम बाहर निकलेंगे उतना ही परिवार के लिए बेहतर होगा और बच्चे भी अपने पिता से सीखेंगे कि घर का काम करने की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की नहीं होती है बल्कि पुरुष भी इसमें बराबर के भागीदार हैं | इस लॉक डाउन का प्रयोग एक अवसर के रूप में किया जाना चाहिए |बच्चे भी इन जीवन कौशल से जब परिचित होंगे तो आने वाले कल में जब ऐसी परिस्थतियाँ पैदा हों तो वे बेहतर अभिभावक साबित होंगे और ऐसी परिस्थितियों का सामना बेहतर तरीके से करपायेंगे | पिता जब बाहर होते हैं तब बच्चों के अपेक्षाएं भिन्न होती हैं. लेकिन घर पर रहते हुए भी पिता बच्चों पर ध्यान ना दें तो बच्चे उपेक्षित महसूस करते हैं. अतः कार्यालय की जिम्मेदारी रूटीन पूर्वक घर से पूर्ण करें लेकिन दिन में भी बच्चों के लिए भी कुछ समय अवश्य निर्धारित अवश्य करें. कोरोना से सुरक्षा के साथ-साथ पारिवारिक एकजुटता, माधुर्यता, भविष्य की योजनाओं पर भी ध्यान दें.महिलाएं जब घर का कार्य निबटा कर आराम करती हैं तो ऐसा न हो कि बाकि लोग पहले आराम कर लें और उनके आराम के वक्त फरमाइश करने लगें. हम अपनी दिनचर्या को घर की महिलाओं के सुविधानुसार ढाल कर इस बुरे वक्त को अच्छे वक्त में तब्दील किया जा सकता है |
नवभारत टाईम्स में 04/04/2020 को प्रकाशित
2 comments:
That is reality sir
That is realty
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