मई लगते ही सूरज अपने तेवर दिखाना शुरू कर देता है। स्कूल
कॉलेज की छुट्टियाँ जहाँ समर कैंप्स की रौनक बढ़ा देती है वहीं आर्थिक रूप से
समर्थ लोग किसी हिल स्टेशन पर सुक़ून भरे समय की तलाश में निकल पड़ते हैं। जब ऐसे
ज़्यादातर लोग गर्मियाँ एंज्वॉय कर रहे होते हैंठीक उसी समयकिसी सुदूर गाँव में
हमारा अन्नदाता अपनी अपनी नंगी झुलसी चमड़ी पर सूरज का तापमान माप रहा होता है।
लहलहाती पकी फ़सल को देखकर आंखो में चमक के साथ चेहरे पर चिंता की झुर्रियां उसके
किसान होने का प्रमाण देती हैं। एक ऐसे देश का किसान जिसके खुरदुरे कंधों पर टिकाकर हम तरक्की की सीढ़ियाँ
चढ़ रहे है। पर खुद उसकी आजीविका अभी भी सूर्य और इंद्रदेवता की मेहरबानी पर टिकी
है|गाँव तो बेचारा है यादों में रहने वाले गाँव की हकीकत उतनी
रूमानी नहीं है इस तथ्य को समझने के लिए
किसी आंकड़े की जरुरत नहीं है| गाँव में वही लोग बचे हैं जो पढ़ने शहर
नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है| दूसरा
ये मिथक कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है फिर क्या
गाँव धीरे धीरे हमारी यादों का हिस्सा भर हो गए हैं | जो एक दो दिन पिकनिक
मनाने के लिए ठीक है | शायद इसीलिये गाँव खाली हो
रहे हैं और शहर जरुरत से ज्यादा भरे हुए |आखिर समस्या कहाँ है |गाँव को पुरानी
पीढ़ी ने इसलिए पीछे छोड़ा क्योंकि तरक्की
का रास्ता शहर से होकर जाता था | फिर जो गया उसने मुड़कर गाँव की सुधि नहीं
ली |क्योंकि गाँव के लोग शहर जाकर कमा रहे
थे पर गाँव आर्थिक रूप से पिछड़े ही रहे |एक तरफ 6 लाख छोटे
गाँव और दूसरी तरफ 600 शहर, कोई भी
जागरूक और धन से संपन्न ग्रामीण शहर ही जाना चाहेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही| दुनिया
की हर विकसित अर्थव्यवस्था ऐसे ही आगे बढ़ी है जिसमे कृषि क्षेत्र की उत्पादकता को
बढ़ाया गया और बची श्रम शक्ति को औद्योगिकी करण में इस्तेमाल किया गया|भारत के गाँव के सामने विकल्प हैं पर यदि समय रहते इनको आज़मा लिया जाए|गाँव
से पलायन इसलिए होता है कि वहां सुविधाएँ नहीं है सुविधाएँ के लिए धन की जरुरत है,
और वो दो तरीके से आ सकता है| पहला सरकार
द्वारा दूसरा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप से|सरकार अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से
काम करती है| इसमें अगर तेजी लानी है तो पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा
देना होगा| अब यहाँ समस्या ये है कि गाँव ,जनसंख्या के
अनुपात में शहरों से काफी छोटे होते हैं|
इसलिए आधारभूत सेवाओं के विकास में लागत बढ़ जाती है और इनकी वसूली में भी देर
होती है| जिससे निजी निवेशक पैसा लगाने से कतराते हैं| दूसरी समस्या ग्रामीण
जनसँख्या का आर्थिक रूप से कमज़ोर होना भी
है क्योंकि जो जनसंख्या वर्ग दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा हो |उसे सुविधाओं की जरूरत
बाद में होगी |इसी मानक को आधार बना कर शहरों की ओर ज्यादा ध्यान दिया जाता है| जिससे गाँव विकास की दौड में पीछे छूट जाते हैं |
इससे ग्राम पलायन के एक ऐसे दुष्चक्र का निर्माण होता है जिससे देश आज तक जूझ रहा
है| सुविधाओं के अभाव में जिसको मौका मिलता है वो लोग गाँव छोड़ देते हैं| क्योंकि
शहर में बिजली पानी और सडक की स्थिति गाँव
से बेहतर है | ऐसे लोग दुबारा गाँव नहीं लौटते|खेती
छोटे और मझोले किसानों के लिए अब फायदे का सौदा नहीं रही |जोत छोटी होने के कारण खेती
में लागत ज्यादा आती है और लाभ कम होता है , एक और कारण गाँव
में आधारभूत सुविधाओं का अभाव समस्याओं को बढाता है और ये दुष्चक्र चलता रहता है |ग्रामीण
अर्थव्यवस्था इस हद तक खेती के के इर्द गिर्द घूमती है कि कोई और विकल्प उभर ही
नहीं पाया, हमारे खेत और गाँव के
उत्पाद अपनी ब्रांडिंग करने में असफल रहे. खेती में नवचारिता वही किसान कर पाए
जिनकी जोतें बड़ी थीं और आय के अन्य स्रोत थे| ऐसे लोग आज भी सफल हैं और अक्सर
मीडिया की प्रेरक कहानियों का हिस्सा बनते हैं किन्तु ऐसे लोगों की संख्या
बहुत कम है.सहकारी आंदोलन की मिसाल लिज्जत पापड और अमूल दूध जैसे कुछ गिने चुने
प्रयोगों को छोड़कर ऐसी सफलता कहानियां दुहराई नहीं जा सकीं.जिसका परिणाम ये हुआ
कि गाँवों को शहर लुभाने लग गए और गाँव शहर बनने चल पड़े गाँव शहरों की संस्कृति
को अपना नहीं पाए पर अपनी मौलिकता को भी नहीं बचा पाए जिसका परिणाम ये हुआ कि अपनी
चिप्स और सिरका दोयम दर्जे के लगने लग गए पर यही ब्रांडेड चीजें अच्छी पैकिंग में
हमें लुभाने लग गयीं हम अपनी सिवईं को भूल कर नूडल्स को दिल दे बैठे आखिर इनके
विज्ञापन टीवी से लेकर रेडियो तक हर जगह हैं पर अपना चियुड़ा,गट्टा किसी और देश का लगता है पारम्परिक कुटीर उद्योग और कला ब्रांडिंग और मार्केटिंग के अभाव में
रोजगार का अच्छा विकल्प नहीं बन पाए तो पर्यटन के अवसरों को कभी पर्याप्त दोहन
किया ही नहीं गया नतीजा एक ऐसे गाँव में रहना जहाँ सुविधाएँ नहीं वहां के लोग
शहर जाकर मजदूरी करना बेहतर समझते हैं बन्स्बत अपने गाँव में रहकर खेती करना,
सुविधाएँ किस तरह लोगों को आकर्षित करती हैं इसको पंजाब के खेतों
में देखा जा सकता है |जहाँ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव के किसान,खेतों मजदूरी और अन्य कार्य करने हर साल आते हैं|पर
अब तस्वीर थोड़ी बदल रही है हर बदलाव जहाँ कुछ चुनौतियाँ लाता है वहीं कुछ अवसर भी
उदारीकरण की बयार से गाँव के लोगों की क्रय शक्ति बढ़ रही है|नेशनल सैम्पल सर्वे संगठन और क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण
भारत शहरी भारत के मुकाबले ज्यादा खर्च कर रहा है|, यानि
गाँव उस दुष्चक्र से निकलने की कोशिश में कामयाब हो रहा है जो उसकी तरक्की में
सबसे बड़ी बाधा रही है ग्रामीण भारत की क्रय शक्ति बढ़ रही है| गाँव में अब बिजली की उपलब्धता अब सहज है |सड़कों
से अब सभी गाँव का जुड़ाव है | उन्नत भारत अभियान योजना तहत गाँव को उन्नत
बनाने के लिए वहां के बुनियादी विकास और शिक्षा पर ज़ोर दिया गया है। शिक्षण
संस्थानों द्वारा गाँव के विकास से सम्बंधित स्थानीय आर्थिक, समाजिक व अन्य समस्याओं का भी समाधान
किया जाएगा। इस अभियान के अंतर्गत उच्च शिक्षा संस्थानों को गाँव से जोड़ा जा रहा
है जहाँ वो अपने ज्ञान के आधार पर गाँव के विकास में भागीदार बन सकें। उच्च शिक्षा
संस्थान ज्यादा से ज्यादा जिलों में पहुंचकर विकास कार्यों को आगे बढ़ा रहे हैं ।
ये संस्थान अनेक प्रकार के प्रोग्राम जैसे कि मशरुम खेती ,धुआं
रहित चिमनी, ग्रामीण ऊर्जा , हस्त
शिल्प ,स्वास्थ्य सेवा और जल प्रबंधन, ग्रामीण
आवास , और अन्य विकासात्मक पहलुओं में सहायता प्रदान कर रहे
हैं।
पहले विभिन्न खतरनाक रोगों से गांव के गांव ही समाप्त हो जाते थे। लेकिन चिकित्सा
विज्ञान में हुई अभूतपूर्व क्रांति एवं ग्रामीणों में अपने स्वास्थ्य के प्रति
बढ़ती जागरूकता से ग्रामीणों के स्वास्थ्य स्तर में सुधार हुआ है। इसके अतिरिक्त गाँवों में इंटरनेट की पहुँच ने शहर और गाँव के बीच के अंतर
को काफी हद तक कम किया है |ग्रामीण उत्पाद अब इंटरनेट के माध्यम से दुनिया के किसी
भी कोने में पहुंच रहे हैं |
आधुनिक तकनीक और जीवन-शैली की धमक वहां साफ सुनाई देने लगी है। गांवों में अब भी बहुत कुछ शेष है। गांव का विकास एक सुखद
अनुभूति है। लेकिन हमें कोशिश करनी होगी कि विकास की प्रक्रिया में गांवों की
आत्मा नष्ट न होने पाए, तभी गांव से
जुड़ी सुखद अनुभूतियां जिंदा रह पाएंगीं।
आकाशवाणी लखनऊ में दिनांक 08/12/2021 को प्रसारित रेडियो वार्ता
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