Thursday, December 30, 2010

For happier times

प्रिय मित्र साल २०११
आखिर तुम आ ही गए और मेरे जाने का वक्त आ ही गया पर चलने से पहले कुछ बातें तुम से बाँट लूँ वैसे तुम आते ही व्यस्त हो जाओगे खुशियाँ मानाने में तो मैंने सोचा चलने से पहले एक चिट्ठी तुम्हारे लिए लिख दूँ मित्र मैंने एक साल में जीवन के कई रंग देखे कुछ अच्छे थे कुछ बुरे कई जगह मुझे इस बात का पछतावा हुआ कि मैं बेहतर कर सकता था पर चीजें देर से समझ में आयीं अब देखो न ये ३ जी स्पेक्ट्रम अगर आ गया होता तो कमुनिकेसन कितना फास्ट हो गया होता लेकिन मेरे रहते तो ये हो न सका वैसे जब भी हम कोई नया काम सम्हालते हैं तो लोगों से हमें बहुत उम्मीदें रहती हैं और हमें लगता है कि ये खुशियाँ ऐसी ही रहेंगी पर वास्तव में ऐसा होता नहीं जब मैं आया था तो लोगों ने खूब खुशियाँ मनाई और मैंने भी इनका खूब आनंद लिया लेकिन धीरे धीरे खुशियाँ कम हुईं और लोगों की अपेक्षाएं बढ़ने लगीं मैं कुछ पूरी कर पाया और कुछ नहीं शिक्षा और बुनियादी ढाँचे पर काम हुआ लोग डेवलपमेंट इस्सुएस पर अवेयर हुए .महिला आरक्षण पर हम लोग एक कदम आगे बढे पर अभी मंजिल नहीं मिली .जो काम मैंने शुरू किया उसे तुम्हें आगे बढ़ाना है हमारा देश यूथ के लिहाज से दुनिया का सबसे बड़ा देश है आज का यूथ ज्यादा स्मार्ट और अवेयर है पर उसकी एनर्जी को सही डायरेक्सन देने की जरुरत है इसका अगर ख्याल रहोगे तो परेशानी कम होगी .
तुम जब आओगे तो खूब खुशियाँ मनाओगे ठीक भी है पर ये मत भूल जाना कि ये साल तुम्हारे लिए अवसर भी लाएगा और चुनोतियाँ भी अगर चुनोतियों को अवसर में बदल लोगे तो तुम्हारी जय  होगी फ़ूड सिक्यूरिटी और हेल्थ इन्सुरेंस पर लोगों को तुमसे बहुत उम्मीदें हैं अगर ऐसा हो पाया तो देश में कोई भूख से नहीं मरेगा और बीमार होने पर अच्छी देखभाल होगी .जब मैं छोटा था तो मुझे लगता था कि मैं सही हूँ और जो बड़े लोग कहते हैं वो सही नहीं है  या शायद वे  मुझे समझते नहीं पर उम्र के इस मुकाम पर आकार मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं गलत था जो भी मुझसे बड़े मेरे लिए कहते थे वो सही थे पर मेरे पास अनुभवों को वो खजाना नहीं था कि मैं उनकी बातों को समझ सकूँ हो सकता तुम्हें मेरी बातें समझ में न आ रही हों या बुरी लग रही  हों पर दोस्त जब जिंदगी सिखाती है तो अच्छा ही सिखाती है अब ये तुम्हारे ऊपर है तुम मेरी बात को ठोकर खा कर  समझो या पहले से ही जान लो कहाँ सम्हल कर चलना है ,मैंने अपनी जिंदगी में यही सीखा है लोगों को साथ ले कर चलो सुनो सबकी इस छोटे से जीवन में मुझे लगता है कमसे कम ये काम तो हम कर ही सकते हैं खुशियों को सर पर न चढ़ने दें आखिर एक दिन तुम्हें भी जाना है तो सकारात्मक सोच के साथ काम करोगे तो ठीक रहेगा इस बार अयोध्या का फैसला मेरे लिए बड़े तनाव का वक्त था पर मैंने सोचा कि इस बार बहुत से चीजें बदल चुकी हैं हम आगे बढ़ चुके हैं बस इस सोच के साथ मैं आगे बढ़ता रहा और सब शांति से बीत गया दुनिया तो बहुत तेजी से बदल रही है कल मैं नया था आज पुराना हो गया हूँ ऐसा तुम्हारे साथ भी होगा इस लिए ये अपने आने वाले कल को सोच कर अपना आज मत खराब मत कर लेना अगर कुछ गलत हो भी जाए तो उसे इस सोच के साथ एक्स्सेपट करना कि चलो कुछ तजुर्बा ही हुआ जिसे तुम आगे आने वाली पीढ़ी को बता सको .हमारी सभ्यता इसी तरह विकसित हुई है और आगे भी होती रहेगी .तुम आ रहे हो और मैं जारहा हूँ मैं इस आने जाने के प्रोसेस को नोर्मल्ली ले रहा हूँ तुम अगर आने वाले वक्त को इस तरह लोगे तो अपनी एनर्जी का सही इस्तेमाल कर पाओगे.तुम्हें ये पत्र लिखना तो सिर्फ एक बहाना था जिसे मैं तुमसे अपनी बात कह सकूँ क्योंकि बात से बात चलती है तो अंत में इस बात को हमेशा ध्यान रखना लोगों की बात सुनते रहना और अपनी बात रखते चलना ये प्रोसेस बन्द मत करना मैं थोडा बहुत अगर सफल रहा तो यही कारण था कि मैंने हमेशा लोगों को सुना.इस उम्मीद के साथ मैं चलता हूँ कि आने वाले साल में तुम खुद भी खुश रहोगे और लोगों को खुश रखोगे
अलविदा
बहुत सारी शुभकामनाओं के साथ
तुम्हारा दोस्त
२०१०
आई नेक्स्ट में ३० दिसंबर २०१० को प्रकाशित 

Sunday, December 26, 2010

उम्मीदें बढ़ाने वाले वर्ष का खबरनामा


साल २०१० जा रहा है लेकिन मीडिया के लिए ये वर्ष कई मायनों में अनोखा रहा कई मुद्दों पर मीडिया को अपनी पीठ थपथपाने का मौका भी मिला तो कुछ मौकों पर उसकी विश्वसनीयता पर संकट भी उठता दिखा एक तरफ राष्ट्र मंडल खेल , आदर्श सोसायटी भूआवंटन घोटालों को सबकी नज़र में लाने का श्रेय उसे मिला वहीं साल के अंत में २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में नीरा राडिया के साथ लोब्ब्यिंग के खेल में कई दिग्गज मीडिया हस्तियों के सामने आने के बाद मीडिया को भी शर्मसार होना पड़ा लेकिन तथ्य यह भी है कि मीडिया से जुड़े कई लोगों के नाम होने के बावजूद इतने बड़े घोटाले को बेनकाब करने का श्रेय भी मीडिया को ही जाता है इस व्यवसाय में बढ़ती प्रर्तिस्पर्धा का उजला पक्ष यही रहा कि खबर दबाई नहीं जा सकती .अयोध्या विवाद में समाचार पत्रों और चैनलों ने जिस जिम्मेदारी का परिचय दिया वो ये बताता है कि हमारा मीडिया धीरे धीरे ही सही पर परिपक्व हो रहा है .मीडिया एक विषय के रूप में लोगों के बीच चर्चा का केंद्र बिंदु बना और हर समस्या में मीडिया की भूमिका को भी देखा जाने लग गया शायद यही कारण रहा कि पहली बार भारतीय सिनेमा में मीडियाको केंद्र में रखते हुए फिल्मों का निर्माण पहली बार  हुआ
 की  को केंद्र बिंदु रखते हुए फ़िल्में बनीं ,रण जहाँ मीडिया के परदे के पीछे की हलचलों और मीडिया के पूंजी उन्मुखी होते रुख की बात करती है वहीं पीपली लाइव किसान और पत्रकार दोनों के दर्द को सामने लाती है विज्ञापनों की बात करें तो वर्ष २०१० को इंडियन रेलवे और आईडिया जैसे नवाचारी विज्ञापनों के लिए याद किया जाएगा .भारतीय  रेल का विज्ञापन जिसमे कई लोग एक कड़ी के रूप में जुड़ते है काफी प्रभावशाली रहा देश का मेल इंडियन रेल जैसी टैग लाइन के साथ इंडियन रेलवे के नेटवर्क को बखूबी दिखाया गया कैडबरी का शुभ् आरम्भ भी लोगों द्वारा खूब पसंद किया गया .एक नयी प्रवर्ति जो तेजी से उभर कर सामने आयी है वो मीडिया पर नज़र रखने वाले वेब पोर्टल का सामने आना इनके कामों को फेसबुक और ट्विट र जैसी सोसल नेट वर्किंग साईट की सहायता से और तेजी मिली यानी दुनिया भर के ऊपर नज़र रखने वाले लोगों के ऊपर भी एक नए मीडिया का उदय हुआ .मीडिया पर सेंसर शिप के लिए उठती आवाजों के बाद आखिर मीडिया के ही कुछ लोगों ने आगे आकर इसके नीति निर्देशक सिद्धांत निर्धारित किये .वहीं इंटर नेट और ब्लोग्स ने मुख्या धारा की मीडिया पर लगातार कोड बरसाने का काम किए .संतोषजनक बात यह रही कि इस कोड़े की फटकार का प्रतिकार न करके सुधार के प्रयास किये गए .
संचार माध्यमों में आयी क्रांति से इंटर नेट मीडिया की आवक तेज हुई .इस वर्ष के बड़े खुलासों में इस ऑनलाइन मीडिया की बड़ी भूमिका रही .वैश्विक स्तर पर विकिलिक्स के खुलासों ने तो बवंडर ही मचा डाला .विकिलीक्स के खुलासों ने दुनिया के दादा अमेरिका को बहुत शर्मसार किया .विकिलीक्स के इस पर्दाफास से एक नया परिद्रश्य भी उभरा और वेब मीडिया की अपनी पहचान भी बननी शरू हुई .ऐसा पहली बार हुआ जब किसी वेब साईट की खबर को अखबारों ने प्रमुखता से छापा और इलेक्टोनिक मीडिया ने भी उसे खूब तवज्जो दी.
भारतीय मीडिया से सीधे तौर पर कोई ताल्लुक न रखने वाली नीरा राडिया मीडिया के बदनुमा चेहरे के रूप में सामने आयी और मीडिया के कई स्वनामधन्य स्तंभों की नींव हिला दी.इस बवंडर में यू पी ए गठबंधन सरकार में मंत्री रहे ए राजा को अपनी कुर्सी छोडनी पडी .बिहार विधान सभा चुनावों में पैड न्यूज़ को लेकर इस बार भी हो हल्ला मचा पर समाचार पत्रों ने अपनी विश्वसनीयता बरक़रार रखने के लिए बाकायदा अपने समाचार पत्रों में विज्ञापन छाप कर पेड न्यूज़ से परहेज़ करने की घोषणा की .
ऑन लाइन मीडिया पर लोगों के बढते रुझान के कारण कई समाचार पत्रों ने अपने ऑन लाइन संस्करण लांच किये ब्लोगिंग ने भारतीय मीडिया के क्षेत्र में जो बड़ा परिवर्तन किया उसने सिटिज़न जर्नलिस्म की अवधारणा को बहुत तेजी से आगे बढ़ाया इसमें एक बड़ा हाथ तेजी से सस्ते होते मल्टी मीडिया मोबाईल का भी है जिसकी सहायता से कोई भी स्टिंग कर सकता है .अगर आप कुछ कहना चाह रहे तो दुनिया में बहुत से लोग आपकी बात सुनने को तैयार हैं इसका एहसास इस साल लोगों को शिद्दत से हुआ .फिल्मों के मामले में छोटे बजट की और लीक से हटकर बेहतर फिल्मों में लव सेक्स और धोखा इश्किया वेलडन अब्बा तेरे बिन लादेन फंस गया रे ओबामा आशाएं ने अपनी पहचान स्थापित की वहीं काएट्स गुज़ारिश और रावण जैसी फिल्मों को बड़े नामों के बावजूद नकार दिया गया .साल के चर्चित गानों में मंहगाई डायन मुन्नी बदनाम शीला की जवानी और धन्नों जैसे
 गाने लोगों की जबान पर चढ़े .रिअलिटी टीवी पर बिग बॉस और कौन बनेगा करोड पति का जलवा रहा ,रहा करोड पति में अमिताभ ने अपना पुराना जादू चलाया बिग बॉस पर अश्लीलता फ़ैलाने के आरोप भी लगे .कलर्स चैनल ने एक अभिनव प्रयोग करते हुए समाज की हर कुरीतियों को अपने सीरिअल का विषय बनाया .बालिका वधु से शुरू हुआ ये सफर प्रथा  तक जारी रहा. साल का तो अंत हो रहा है पर भारतीय मीडिया में एक नए युग का सूत्र पात हो रहा है सूचना प्रौधिगिकी के बढते कदम से आज का मीडिया ज्यादा इंटर एक्टिव हुआ आने वाले साल में ३जी तकनीक से मीडिया का चेहरा और भी बदल जाने की उम्मीद है
डॉ. मुकुल श्रीवास्तव

 दैनिक हिन्दुस्तान के संपादकीय पृष्ठ पर २६ दिसंबर को प्रकाशित 

Monday, December 6, 2010

अरे ये खुशबू कहाँ से आयी ......

जाड़ों का मौसम मुझे हमेशा पसंद  रहा है उसके पीछे मेरे पास ज्यादा कारण नहीं वैसे आप चाहे तो कई कारण बता सकते हैं जैसे इस मौसम में काम करने की क्षमता बढ़ जाती है ,साग सब्जियों की ज्यादा वैरायटी उपलब्ध होती है ,ठण्ड में क्राईम कम हो जाता है अब आप इसे यूँ समझे जितने मुंह उतनी बातें पर मेरे पास ठण्ड को पसंद करने का एक अनोखा कारण है मुझे अपने बचपन से ही फूलों पत्तियों पर गिरी ओस बहुत अच्छी लगती है और इस द्रश्य को देखने और महसूस करने का सबसे अच्छा मौसम है जाड़ा कुहरे में फूलों पर गिरी ओस न  जाने कितने क्रियटिव लोगों का इन्स्पीरेसअन बनी है और मुझे भी इन्स्पैएर किया है बचपन में जब हम जाड़े की शामों में  सैर पर निकलते थे तो चारों ओर फूल ही फूल दिखते  थे   फूल अपने आप में इस दुनियाकी सबसे खूबसूरत कृतियों  में से एक हैं प्रकृति के इस अनोखे रूप को महसूस करने हिंदी फिल्म के गीतकारों ने अपने अपने तरीके से महसूस किया है अब जब बात फूलों की छिड़ ही गयी है तो कुछ याद आया अरे नहीं याद आया तो सुनिए ये गाना फिर छिड़ी रात, बात फूलों की,रात है या बारात फूलों की (बाजार )कुदरत का अनमोल तोहफा हैं फूल। फूल न होते, तो दुनिया इतनी रंगीन नहीं होती। फूल ही हैं, जो हमें करवाते हैं नजाकत और नफासत का एहसास। जितने कोमल फूल होते हैं उतनी ही कोमल होती हैं हमारी भावनाएं देखिये एक भाई अपनी बहन के लिए प्यार जताने के लिए क्या गा रहा है फूलों का तारों का सबका कहना है एक हजारों में मेरी बहना है” (हरे राम हरे कृष्णा) .जरा सोचिए फूलों से हमारा कितना गहरा रिश्ता है इंसान के पैदा होने से लेकर उसके मरने तक हर खुशी हर गम में फूल हमारा साथ देते हैं इस सीख के साथ जिंदगी कैसी भी हो खूबसूरत तो हैं न खुशबू दिखती नहीं पर महसूस की जा सकती है पर उसके लिए नाक का होना जरूरी है उसी तरह जिंदगी में खुशियाँ हर मोड पर  बिखरी है पर क्या हम उन खुशियों को खोजना जानते हैं  .फूल कोमलता ,शांति और प्यार का प्रतीक होते हैं जहाँ प्यार शांति , का जिक्र होगा वहां फूलों का जिक्र होना लाजिमी है फिर हम भी तो ये ही चाहते हैं एक ऐसी दुनिया हो जहाँ चारों ओर शांति हो प्यार हो तो जब फूल खिलते हैं तो दिल भी खिल जाता है , एक प्यारा सा गाना रोटी फिल्म का जो मेरी ही बात की तस्दीक कर रहा है फूलों के साथ दिल भी खिल जाते बाबूजब फूलों की बात चली है तो गुलाब का जिक्र होगा ही उसे फूलों का राजा यूँ ही तो नहीं कहा जाता और गानों में सबसे ज्यादा इसी फूल का जिक्र हुआ है लाल गुलाब जहाँ प्यार का प्रतीक है वहीं सफ़ेद गुलाब मैत्री और शांति का . प्यार की कोमल भावनाओं को व्यक्त करता हुआ  कुछ ऐसी कहानी बयान कर रहा है ये गाना  फूल गुलाब का लाखों हजारों में एक चेहरा जनाब का (बीवी हो तो ऐसी ) बचपन की शरारतों के बाद जब हम जवान होते हैं तो हमारे जेहन में कुछ सपने होते हैं कुछ उम्मीदें होती हैं इन्ही सपनों में एक सपना अपने घर का भी होता और घर जब फूलों के शहर में हो तो क्या कहना देखो मैंने देखा है एक सपना फूलों के शहर में है घर अपना” (लव स्टोरी ) पर अगर आपको सपने में फूल ही फूल दिखें तो ऐसे ख्वाब को क्या कहेंगे चलिए मैं आपको गाना ही बता देता हूँ देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए दूर तक निगाह में गुल खिले हुए” (सिलसिला ) पर फूल सिर्फ कोमल ही नहीं होता अगर आपकी इस कोमलता का सम्मान नहीं करेंगे तो ये अंगारा भी बन सकता है फूल कभी जब बन जाए अंगारा” (फूल बने अंगारे ) जिंदगी में हर चीज़ की अपनी अहमियत होती है और ये बात रिश्तों पर भी लागू होती है फूल को बढ़ने के लिए खाद पानी की जरुरत होती है रिश्तों को संबंधों की गर्मी और अपनेपन के एहसास की तो जाड़ों  के इस मौसम मे गर्मी का एहसास करने के लिए गर्म कपडे पहनने के अलावा  कुछ फूलों के पेड़ लगाइए, नए रिश्ते बनाइये पुराने रिश्तों पर जम गयी गर्द को झाडिये क्योंकि रिश्ते भी फूलों की तरह नाजुक होते हैं .आइये महसूस करते हैं अपने आसपास बिखरी हुई फूलों की खुशबू रिश्तों में बसी अपने पन  की महक और जाड़े के मौसम में इठलाते फूलों की सरगोशियाँ हमारी राह तक रही हैं .जाड़े का स्वागत अगर महकते हुए और महकाते हुए किया जाए तो इससे अच्छा भला और क्या हो सकता है .
आई नेक्स्ट में ६ दिसंबर को प्रकाशित 

Sunday, November 21, 2010

Wednesday, November 17, 2010

गुस्सा तो जीवन का हिस्सा है

खुश रहो न यार , छोडो न यार सब चलता है , गुस्साने से क्या होगा ये कुछ ऐसी सीख हैं जो जिंदगी के किसी न किसी मोड पर आपको जरुर मिली होगी चलिए थोड़ी देर ये मानकर देखते हैं कि ये सब बातें सही हैं मतलब गुस्साने से कोई फायदा नहीं होता ज्यादा गुस्सा शरीर के लिए नुकसानदायक होता है गुस्सा क्या है? गुस्सा एक साइकोलोजिकल स्टेट ऑफ माईंड, जब हम अपने आस पास की चीजों और व्यवहार से संतुष्ट नहीं होते हैं तब गुस्सा आता है अब जरा मेडिकल साइंस की बात कर ली जाए गुस्सा आना आपके नोर्मल होने की निशानी है पर ज्यादा गुस्सा आना ठीक नहीं है लेकिन अगर आपको गुस्सा आता ही नहीं है तो ये गुस्सा आने से ज्यादा खतरनाक है गुस्सा दबाना शरीर और दिमाग पर बुरा इफेक्ट डालता है जिससे नींद कम हो जाती है  गुस्से को दबाने का शरीर और मन, दोनों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। नींद नहीं आती, थकान होती है, एकाग्रता कम होती है और इन सबका परिणाम अवसाद, चिंता और अनिद्रा के रूप में सामने आ सकता है जिनसे कई गंभीर बीमारियाँ हो सकती हैं पर गुस्से के कई पोसिटिव अस्पेक्ट भी है बात न तो नयी और न ही अनोखी हाँ बस जरा सा नजरिया बदला है .इस दुनिया में बहुत कुछ बुरा है पर जो कुछ अच्छा है या हो रहा है वो कुछ लोगों के गुस्से के कारण ही है जो स्टेटस-को मेंटेन नहीं रखना चाहते हैं जो गलत बात के आगे झुकना नहीं चाहते हैं आइये देखते हैं गुस्सा किस तरह दुनिया और समाज को बदल रहा है अब जरा उन दिनों को याद करिये जब आपके घर में टीवी नहीं था और आपको पड़ोसी के घर टीवी देखने जाना पड़ता था तब कैसा लगता था  बहुत गुस्सा आता था न लेकिन आपके गुस्से ने घर वालों को एहसास कराया कि घर में टी वी की जरुरत है .आइये थोडा पीछे चलते हैं बात महात्मा गाँधी की साऊथ अफ्रीका में उन्हें इसलिए ट्रेन से उतार दिया जाता है कि वो एक हिन्दुसतानी हैं उन्हें भी गुस्सा आया था पर इस गुस्से को व्यक्त करने का तरीका उनका थोडा अलग रहा नॉन वायलेंस का इस्तेमाल करके उन्होंने देश को आज़ाद कराने की कोशिश की जिसमें वो कामयाब भी रहे .अक्सर गुस्से का सम्बन्ध संतुष्टि के स्तर से जुड़ा होता है अब अगर आप संतुष्ट हो गए तो जो चीजें हमें मिली हैं हम उन्हें वैसे ही स्वीकार कर लेंगे फिर न विकास की कोई गुंजाईश होगी और न बदलाव की पर इसका मतलब ये मत निकालिए कि हमें बेवजह गुस्सा करने का हक मिल गया है कई बार गुस्सा हमारी सोच के गलत होने के कारण भी आता है जिस चीज को आप पसंद नहीं करते अगर आप वही दूसरों के साथ कर रहे हैं तो इसका मतलब आपकी सोच सही नहीं है ऐसे में आप के द्वारा यूँ ही लोगों पर सिस्टम पर गुस्सा करना गलत है इसलिए गुस्सा  करते वक्त अपने दिमाग को खुला रखिये अगर आपका दिमाग कह रहा है कि आप सही हैं तो बिलकुल आपको गुस्सा करने का हक है ऐसे में अपने गुस्से को निकालिए पर हाँ सभ्यता से गुस्से में आपको कुछ भी करने या बोलने का हक नहीं मिल जाता आपके बॉस ने आपको डाटा आप बॉस का कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो ऑटो वाले पर अपना गुस्सा निकाल दिया ये सही तरीका नहीं है अपने एंगर का मैनजमेंट सही तरीके से अगर आप कर पायेंगे तो आपको लगेगा कि दुनिया को बेहतर बनाने में आपका योगदान दूसरों से कहीं ज्यादा होगा क्या कहेंगे आप इस गुस्से के किस्से पर .............
आई नेक्स्ट में १७ नवंबर को प्रकाशित 

Sunday, October 31, 2010

मीडिया को पढ़ने वाले ,मीडिया को पढाने वाले(हिन्दुस्तान सम्पादकीय )

                                                                      सीबीएसई ने अपने पाठ्यक्रम में ११ वीं और १२ वीं के छात्रों के लिए मीडिया का पाठ्यक्रम देने की बात कही. यह पाठ्यक्रम अगले सत्र से शुरू हो जायेगा. आम तौर देखा जाये तो इसमें कोई नई बात नहीं है. अन्य पाठ्यक्रमों  की तरह यह भी पढाया जायेगा पर जरा गौर करने पर इसके बड़े निहितार्थ निकलते हैं भारत में मीडिया शिक्षण का विकास ऊपर से नीचे की ओर हुआ यानि यह पाठ्यक्रम विश्वविद्यालयों , महाविद्यालयों से होते हुए स्कूल  तक पहुंचा है एक विषय के रूप में इतने वक्त में समय का पूरा पहिया घूम गया इसे समय की मांग कहा जाए या शिक्षा को बाजारोन्मुखी बनाना इसका आंकलन किया जाना अभी बाकी है  आजादी के बाद देश में तकनीकी दक्षता के लोगों की ज़रुरत को पूरा करने के लिए आई आई टी  जैसे संस्थान  खोले गए. इन संस्थानों से निकले लोगों की बदौलत हमने देश की बुनियादी संरचना सुधारी साथ ही विश्व में अपने आइटी पेशेवरों के माध्यम से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया . इसी तरह बेहतर प्रबंधन कर्मियों के लिए स्थापित किये गए आई आई एम् संस्थानों ने भी देश और दुनिया  को बेहतरीन पेशेवर प्रबंधक दिए , पर तस्वीर का दूसरा रुख भी है देश में रोजगार परक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आई टी आई और पोलीटेक्निक जैसे संस्थान खोले गए जहाँ कई रोजगार परक पाठ्यक्रम चलाये गए पर वे संतोषजनक परिणाम न दे सके . वर्तमान में मीडिया पाठ्यक्रम भारत के लगभग हर विश्व विद्यालय में चलाये जा रहे हैं इसके अतिरिक्त सैकड़ों की तादाद में निजी संस्थान भी देश के भावी पत्रकारों की पौध को तैयार करने में लगे हैं फिर भी आमतौर पर ये माना जाता है आज के जनमाध्यमों ने अपनी विश्वसनीयता खोयी जबकि आज प्रशिक्षित पत्रकारों का युग है और जनसंचार एक विषय के रूप में स्थापित हो चुका है फिर भी विश्वसनीयता का संकट है .विभिन्न संस्थानों से डिग्री धारी पत्रकार तो निकल रहे हैं पर जब वे नौकरी की तलाश में मीडिया संस्थानों में पहुँचते हैं तो अपने आपको एक अलग ही दुनिया में पाते हैं जहाँ उस   ज्ञान का कोई महत्व नहीं है जो उन्होंने अपने संस्थानों में सीखा है .सी बी एस ई द्वारा शुरू किये गए इस पाठ्यक्रम के बहाने ही सही पर अब वक्त आ चुका है कि हम अपनी मीडिया शिक्षा प्रणाली  पर एक बार फिर गौर करें .इंटर स्तर पर मीडिया शिक्षण की शुरुवात के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है की इस से छात्रों में संचार कौशल तथा जनमाध्यमों के प्रति उनकी समझ बढ़ेगी इसमें कोई शक नहीं है स्कूल स्तर पर मीडिया शिक्षण का फैलाव होने से लोगों में मीडिया के प्रति फैले हुए कई दुराग्रहों को दूर करने में मदद मिलेगी आजकल ये फैशन सा चल पड़ा है हर समस्या के लिए मीडिया को दोषी ठहरा देना .हमारी  शिक्षा प्रणाली में संचार कौशल सिखाने  के लिए कहीं कोई जगह ही नहीं थी यह प्रयास शायद इस खालीपन को भर पाने  में सहायक होगा अक्सर विद्यार्थी अपने आपको ठीक तरह से व्यक्त न कर पाने के कारण रोजगार की दौड में पिछड़ जाते हैं.इसके अतिरिक्त यह पाठ्यक्रम उनके व्यक्तित्व निर्माण में भी सहायक होगा .

 पत्रकारिताफिल्मरेडियो,मल्टीमीडिया ,विज्ञापन और जनसंपर्क जैसे विषयों के रूप में उन्हें नए क्षेत्रों का ज्ञान होने से वे अपने भविष्य की रूप रेखा बेहतर तरीके से बना पायेंगे पर  मीडिया शिक्षा में कुछ और भी चुनौतियाँ हैं सिद्धांत और व्यवहार में अक्सर अंतर आ जाता है स्नातक और स्नाकोत्तर स्तर पर मीडिया शिक्षा योग्य शिक्षकों के अभाव से जूझ रही है .विश्वविद्यालय अनुदान आयोग मीडिया शिक्षा को अन्य पारम्परिक पाठ्यक्रमों की तरह ही देखता है, कोई भी छात्र जब मीडिया  विषय का चुनाव करता है तो उसके दिमाग में एक मात्र लक्ष्य पत्रकारिता  या इस से जुड़े अन्य क्षेत्रों में रोजगार पाना होता है पर विश्व विद्यालय अनुदान आयोग (यू जी सी ) की गाईड लाइन मीडिया  शिक्षकों से  ये अपेक्षा करती है कि वे शोधपत्र लिखेंगे तथा मीडिया शोध को बढ़ावा देंगे जैसा कि अन्य विषयों में होता है यह बाध्यता शिक्षकों की व्यक्तिगत पदोनात्ति में भी लागू होती है अधिकारिक तौर पर किसी भी विश्वविद्यलय में मीडिया शिक्षक बनने की योग्यता का आधार यू जी सी की राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट ) है इस परीक्षा में चयन का आधार किताबी ज्ञान और विश्लेषण शक्ति होती है इस स्थिति में ज्यादातर शिक्षक व्यावहारिक ज्ञान में दक्ष नहीं होते हैं और उनके द्वारा दी गयी शिक्षा में सिद्धांत और प्रयोग का सही मिश्रण नहीं होता और इसीलिये हमारे मीडिया संस्थान मीडिया बाजार की मांग के अनुरूप प्रोफेसनल तैयार नहीं कर पा रहे हैं .
और वहीं भारत के भावी पत्रकारों की पौध तैयार करने वाले संस्थानों के ज्यादातर शिक्षक मीडिया को अपना सक्रिय योगदान नहीं दे पाते हैं सिद्धांत और व्यवहार का यह अंतर छात्रों की गुणवत्ता पर असर डालता है  मीडिया के उच्च मानदंडों की प्राप्ति के लिए यह जरूरी है कि ऐसी पहल का स्वागत किया जाए पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मीडिया अपने आप में एक व्यापक शब्द और विषय है इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से सिर्फ तकनीकी ज्ञान की अपेक्षा नहीं की जाती उनसे यह उम्मीद भी की जाती है कि उनमे देश दुनिया की बेहतर समझ भी हो जिसके लिए अन्य विषयों का भी ज्ञान आवश्यक है समाज , राजनीति , अर्थशास्त्र ,संस्कृति को समझे बगैर कोई भी अच्छा जन संचारक नहीं हो सकता  भारत में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के फैलाव ने इसमें बहुत सारा ग्लैमर दे दिया है और छात्र सिर्फ तकनीक को समझ कर तुरंत  पत्रकार होना चाहता है यह एक बड़ा कारण है कि नयी पीढ़ी की जो पौध आज इस क्षेत्र में आ रही है उसमे गंभीरता का अभाव दिखता है इसलिए यह आवश्यक है की  पत्रकरिता  के पाठ्यक्रमों में बौद्धिक विषयों और अन्य सामयिक मुद्दों को ज्यादा जगह दी जानी चाहिए.भारत में मीडिया शिक्षण अभी भी दोराहे पर है जिसमे शोध और व्यवसायिकता का संतुलन नहीं कायम हो पाया है दूसरी ओर लगातार बदलती तकनीक ने इस विषय में बदलाव की गति को बहुत तेज कर दिया है . स्कूल स्तर पर इस  पाठ्यक्रम की शुरुवात ने एक अच्छा संकेत तो दिया है पर यह बदलाव मीडिया की उच्चशिक्षा को कितना बदल पाता है इसका फैसला समय को करना है .
*हिन्दुस्तान में दिनांक ३१ अक्टूबर २०१०  को प्रकशित 


       

Wednesday, October 20, 2010

जो महका दे जीवन



पिछले दिनों मैंने जिंदगी का एक नया रंग देखा और हमेशा की तरह उसे फिल्मों की तरह जोड़ दिया हुआ यूँ कि करीब १९ साल के बाद अपने पुराने स्कूल जाना हुआ बगैर किसी कारण बस दिल ने कहा चलो और मैं चला गया वहाँ मुझे अपना एक सबसे प्यारा मित्र मिला जिसे मैंने पिछले १९ साल से नहीं देखा था और न बात की थी  ये अलग बात है कि वो स्कूल के दिनों का मेरा सबसे अच्छा दोस्त था अजय मोगरा  फेस बुक पर जाने से कुछ ही दिन पहले उसने मुझे खोज लिया और जब मैं वहां पहुंचा तो इंसाने रिश्ते का एक नया रंग देखा वो था दोस्ती मुझे लगा ही नहीं कि हम कभी बिछड़े भी थे  और ये फासला १९ साल का हो चुका था उसका प्यार और अपनत्व के आगे मुझे अपने का रिश्ते फीके से लगे . जिंदगी में हमारे पैदा होते ही ज्यादातर रिश्ते हमें बने बनाये मिलते हैं और उसमे अपनी चोइस का कोई मतलब ही  नहीं रहता लेकिन दोस्ती ही एक ऐसा रिश्ता होता है जिसे हम अपनी लाइफ में खुद बनाते हैं  फिर दोस्ती की नहीं हो जाती है दोस्ती तो हो जाती है तो आज बात फिल्म और दोस्ती की फिल्मों ने इश्क ,प्यार और मोहब्बत के बाद किसी मुद्दे पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया है वो दोस्ती है “जाने तू या जाने न”  “रॉक ऑन , 'दिल चाहता है' और 'रंग दे बसंती' जैसी फिल्मों में दोस्ती को ही मुख्य आधार बनाया गया है पर दोस्तों को दुवा देता  ये गाना जब आप सुनेंगे तो निश्चित ही आपको अपने सबसे अच्छे दोस्त की याद आ ही जायेगी  एहसान मेरे दिल पर तुम्हारा है दोस्तों ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों (फिल्म :गबन ) इस दुनिया में शायद ही ऐसा कोई इंसान होगा जो अपने दोस्तों का एहसान न मानता हो क्या कहेंगे आप दोस्ती यानी एक ऐसा रिश्ता है, जिसमें प्यार, तकरार, इजहार, इंकार, स्वीकार जैसे सभी भावों का मिक्सचर है जब दोस्ती पर गानों की बात चली है तो सबसे ज्यादा चर्चित गाना शोले का ही हुआ “ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे ,छोड़ेंगे दम मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे” दोस्ती है ही रिश्ता ऐसा न इसके लिए न समाज की स्वीकृति चाहिए और न ही मान्यताओं और परम्पराओं का सहारा तभी तो कहा गया है बने चाहे दुश्मन जमाना हमारा सलामत रहे दोस्ताना हमारा (दोस्ताना )  जरा सोचिये बगैर दोस्ती के हमारा जीवन कैसा होता आफिस ,स्कूल , सिनेमा हाल , रेस्टोरेंट बगैर दोस्तों के कैसे लगते अगर नहीं समझ पा रहे हों तो अपने स्कूल का पहला दिन याद कीजिये जब आपका कोई दोस्त नहीं था या किसी दिन अकेले कोई फिल्म देखने चले जाइए और उसके बाद कहीं बाहर अकेले खाना कहिये फिल्म खुदगर्ज़ का ये गाना शायद इसी विचार को आगे बढ़ा रहा है “दोस्ती का नाम जिंदगी”, पर कभी ऐसा भी हो सकता है कि आपको दोस्ती करनी पड़ती है तो उस मौके के लिए भी गाना है “हम से तुम दोस्ती कर लो ये हसीं गलती कर लो “ (नरसिम्हा )
पर जिंदगी में रिश्ते हमेशा एक जैसे नहीं होते और ये बात दोस्ती पर भी लागू होती है कभी दोस्तों के चुनाव में भी गलती हो जाती है या गलतफहमियों से दोस्तों से दूरी हो जाती है और तब जो होता उसको बयां करता है ये गाना “दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है उम्र भर का गम हमें इनाम दिया है” (आखिर क्यों ) खैर हर रिश्ता कभी भी एक जैसा नहीं होता और वो बात दोस्ती पर भी लागू होती है  फिर आजकल की भागती दौडती दुनिया में अक्सर इस बात को दोष दिया जाता है कि इस से रिश्तों की संवेदनाएं खतम हो रही हैं पर एक रिश्ता तेज रफ़्तार  दुनिया में आज भी बचा हुआ है वो है दोस्ती क्योंकि ये कुछ मांग नहीं करता दोस्त , दोस्त होते हैं ये शिकायत हो सकती है कि समय की कमी है पर जब दोस्त मिलते हैं तो दोस्ती फिर से जवान हो जाती है तो चलिए किसी दोस्त को याद करते हैं एक एस ऍम एस करके या किसी सोसल नेट वोर्किंग साईट पर जाकर उसे हेल्लो बोलते हैं .
आई नेक्स्ट में २० अक्टूबर को प्रकाशित 

Sunday, September 26, 2010

इंडिया टुडे का नवीनतम अंक अक्टूबर २०१०


आप सभी का शुक्रिया एवं आभार
उम्मीद है भविष्य में सहयोग का सिलसिला जारी रहेगा .
http://indiatoday.intoday.in/site/Story/113858/Cover%20Story/mukul-srivastava-the-newsmaker.html

Friday, September 24, 2010

खेल खेल में



खेल हमेशा किसी न किसी वजह से चर्चा में रहते हैं वो चाहे कामन वेल्थ गेम्स हों या क्रिकेट वैसे जिंदगी भी तो एक खेल ही है न कभी आप बहुत मेहनत करते हैं पर फिर भी सफलता नहीं मिलती लेकिन जैसे जिंदगी चलती रहती है वैसे जिंदगी का खेल भी , जिंदगी में अगर खेल महतवपूर्ण हैं तो हमारी फ़िल्में भी इनसे कहाँ अछूती हैं बहुत सी फिल्मों की कहानी खेलों के इर्द गिर्द ही घूमती है फैमली ड्रामा के बाद खेल ही एक ऐसा विषय है जिसमें बॉलीवुड ने अपनी प्रयोगधर्मिता को दिखाया है .१९७७ में बनी  शतरंज के खिलाड़ी हालाँकि प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित थी पर शतरंज के बहाने इस फिल्म ने भारत में अंग्रेजों के आने का समय  और नवाबों के रवैये का अच्छा चित्रण किया था , १९८४ में बनी हिप्प हिप्प हुर्रे ने पहली बार फ़ुटबाल के खेल को बड़े परदे पर उतारा .हार और जीत तो हर खेल के साथ जुडी रहती है पर हार के डर से खेल नहीं छोड़ा जाता है इम्पोर्टेंट है खेल को खेलना अगर ये फिलोस्फी हम अपनी लाइफ में उतार लें तो जिंदगी का खेल टेंशन फ्री हो जाएगा .अस्सी के दशक में खेलों पर आधारित अन्य फिल्मों में बोक्सर(१९८४),आल राउंडर(१९८४),कभी अजनबी थे (१९८५)और मालामाल (१९८८)प्रमुख थी .जिसमें बोक्सर को छोडकर सभी की विषय वस्तु क्रिकेट ही थी आपको याद दिलाता चलूँ यही वह दौर था जब भारत ने १९८३ का क्रिकेट का वर्ल्ड कप जीता था और धीरे धीरे क्रिकेट का जादू लोगों के सर चढ़कर बोलने लगा था .असल में खेलों की दुनिया कभी हार न मानने की ह्यूमन  इंस्टिंक्ट को रीप्रेसेंट करती है और यहीं खेल हमारी जिंदगी से जुड जाते हैं .नब्बे का दशक खेलों के लिहाज़ से ज्यादा बेहतरीन नहीं माना जा सकता सिर्फ दो फ़िल्में ऐसी थी जिनका कथानक खेलों से प्रेरित था अव्वल नंबर (१९९२) क्रिकेट , और जो जीता वही वही सिकंदर (१९९२) सायक्लिंग रेस पर आधारित थी .फिर आया २००० का दशक दुनिया और खेल में बहुत कुछ बदल चुका था खेल रात में फ्लड लाईट में खेले जाने लग गए खेलों को इन्तेरेस्तिंग बनाने के लिए उनके नियम में बदलाव हुआ और यही वक्त था जब हमारी जिंदगी के नियमों को  मोबाईल और मल्टीप्लेक्स बदल रहे थे बदलाव के इस दौर में  फिल्मों को भी बदलना था हमजोली फिल्म के जीतेन्द्र और लीना चंदावर्कर   के बेडमिंटन मैच के बाद से अब तक काफी कुछ बदल चुका था .इस दशक में क्रिकेट को ध्यान में रखकर एक के बाद एक फ़िल्में आयें , जिनमे सबसे पहले लगान(२००३) का जिक्र करना जरूरी है ये वो पहली फिल्म थी जिसने पारम्परिक  भारतीय सिनेमा की ताकत का एहसास दुनिया को कराया .लगान के अलावा स्टम्प्ड (२००३),इकबाल (२००५) हैटट्रिक (२००७) से सलाम इंडिया (२००७), दिल बोले हडिप्पा (२००७ ) ऐसी और फ़िल्में थी.
 क्रिकेट पर ज्यादा फ़िल्में बनने का कारण लोगों में इस खेल के प्रति जुनून की हद तक लगाव है ऐसे में चक दे इंडिया एक नया नजरिया ले कर आयी सिनेमा के रूपहले परदे पर जिसका विषय एकदम नया और अनोखा था महिला होकी फिल्म ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किया और लोगों में होकी के प्रति एक नया जोश भरा .ऐसा नहीं है कि फ़िल्में पोपुलर स्पोर्ट्स को ध्यान में रखकरबनाई जाती हैं तीन पत्ती :ताश , तारा रम  पम :रेसिंग , स्ट्राइकर: कैरम  और लाहौर :किक बॉक्सिंग पर आधारित फिल्में  है, जो डायवर्सिटी खेलों  में है वो हमारी फिल्मों में भी दिखती  है पर जैसे खेल को खेल भावना से खेला जाता है उसी तरह से जिंदगी के खेल को भी खेलिए आज अगर आप हारें तो कल जीत भी सकते हैं और अगर आज जीते हैं तो कल हार भी सकते हैं तो क्या कहते हैं इन फिल्मों के खेल के बारे में आप  बताएगा जरुर

  आई नेक्स्ट २४ सितम्बर २०१० 

Sunday, August 22, 2010

मीडिया की दुनिया के गरीब नत्था :हिन्दुस्तान सम्पादकीय (२२/०८/१० )

हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म पीपली लाइव ने धूम मचा रखी है. दर्शकों और आलोचकों का इस फिल्म को समान प्यार मिला है. फिल्म के मूल में भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया का फटीचरपन दिखाया गया है. वैसे तो फिल्म में मीडिया के अलावा भी समाज के अन्य पहलुवों  को छुआ गया है. पर पूरा फोकस इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर ही है. फिल्म में आपको इलेक्ट्रोनिक मीडिया के हर रूप के दर्शन हो जायेंगे.हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता के भेद और मीडिया नौटंकी आदि  पर पूरी फिल्म में एक ख़ास बात है फिल्म में एक स्ट्रिंगर राकेश की मौत. राकेश जो कि  एक संवेदनशील पत्रकार था. किसी बड़े मीडिया चैनल में नौकरी पाना उसका सपना था. जिसके बलबूते चैनल के संपादकों ने पूरी खबर में लम्पटई मचाई. सब कुछ ख़तम होने के बाद कोई भी राकेश को याद नहीं रखता और वह नेपथ्य में ही गुम हो जाता है . राकेश सबसे पहले नत्था की आत्महत्या की खबर अपने एक छोटे से अखबार में छापता है जिसको आधार बनाकर एक अंगरेजी समाचार चेनल स्टोरी करता है और फिर सारी दुनिया की मीडिया का जमावड़ा लग जाता है ये स्ट्रिंगर मीडिया की दुनिया के नत्था है ये मीडिया की दुनिया की वो गरीब जनता है जिस से मीडिया का जलाल कायम है किसी  भी समाचार को ब्रेक करने का काम इन्हीं मुफ्फसिल पत्रकारों द्वारा किया जाता है ये ऐसी नींव की ईंट होते हैं जिनकी और किसी का ध्यान नहीं जाता देखने वाला तो बस कंगूरा देखता है आमतौर पर स्ट्रिंगर को ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो श्रमजीवी  पत्रकार न होकर आस पास की खबरों की सूचना सम्बंधित समाचारपत्र या चैनल को देता है. बाकि समय वह अपना काम करता है पर समाज के हित से जुडी बड़ी ख़बरें सामने लाने में स्ट्रिंगर की बड़ी भूमिका रही है. मुफ्फसिल पत्रकारों में वो लोग होते हैं जो या तो छोटे समाचार पत्रों में काम करते हैं या भाड़े पर समाचार चैनलों को समाचार कहानी उपलब्ध कराते हैं वो चाहे भूख से होने वाली मौतें हों या किसानों की आत्महत्या की खबर , हर खबर की सबसे पहले खबर इन्हीं को होती है .महानगरों में काम करने वाले पत्रकारों के सामने इनका कोई औचित्य नहीं होता क्योंकि अक्सर इनकी खबरे जमीन से जुडी हुई होती हैं जिन पर पर्याप्त शोध और मेहनत की जरुरत होती है आजकल प्रचलित मुहावरा प्रोफाइल के हिसाब से इनकी खबरें लो प्रोफाइल वाली होती हैं प्रख्यात पत्रकार श्री पी साईनाथ सवालिया लहजे में कहते  ‘पिछले 15 वर्षों में उच्‍च मध्‍यम वर्ग के उपभोग की सभी वस्‍तुएं सस्‍ती हुई हैं। आप एयर टिकटकंप्‍यूटर वगैरह खरीद सकते हैं। ये सब हमें उपलब्‍ध हैं लेकिन इसी दौरान गेंहूंबिजलीपानी आदि गरीबों के लिए 300-500 फीसदी महंगा हो गया है। आखिर ये बातें मीडिया में क्‍यों नहीं आती हैं। भारत शहरों में नहीं गावों में बसता है पर इन गावों को मीडिया ने स्ट्रिंगरों के भरोसे छोड़ दिया गया है देश का सारा प्रबुद्ध मीडिया महानगरों में बसता है कहने का मतलब है कि मीडिया ऐसी बहुत जगहों पर नहीं पहुँच  पा रहा हैजहां पर बहुत सारी रोचक चीजें हो रही हैं।
 यही वजह की कंटेंट के स्तर पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया अक्सर वैचारिक शून्यता का शिकार दिखता है और तब शुरू होता नाग नागिन और भूत प्रेतों का खेल ऐसी कहानियों के लिए किसी वैचारिक तैयारी और शोध की जरुरत नहीं पड़ती और न ही स्ट्रिंगर को अलग से कोई निर्देश देने की आवश्यकता टी आर पी की तलाश में गन्दा है पर धंदा की आड़ में ऐसी हरकतों को जायज़ ठहराने की कोशिश की जाती है .भारत में सन २००० का साल इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए क्रांति का साल था २४ घंटे वाले समाचार चैनल पूरे देश की नब्ज समझने का दावा करने वाले चैनल पर पर उस अनुपात में योग्य पत्रकारों की नियुक्ति न तो की ही गयी और ना ही बाज़ार का अर्थशास्त्र इसकी इजाजत देता है चैनल के पत्रकारों को सेलेब्रिटी स्टेट्स मिलने लग गया ऐसे में बड़े पैमाने पर लोग इस ग्लैमर जॉब (पढ़ें टी वी पत्रकार ) की तरफ आकर्षित हुए  और यहीं से स्ट्रिंगर कथा का आरम्भ हुआ वे इस धंदे का हिस्सा हैं भी और नहीं भी इसी गफलत में अक्सर वे शोषण का शिकार होते हैं चूँकि चैनल की तरफ से उनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था होती नहीं योग्यता के रूप में एक कैमरा होना पर्याप्त है लेकिन चैनल के लिए सालो काम करने के बाद भी चैनल के लिए अनाम रहते है.इन्हे हर बार अपनी पहचान बतानी पड़ती है ।  ब्रेकिंग की मारा मारी में जो सबसे पहले अपने चैनल को दृश्य भेज देता है उसी की जय जय कार होती है पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सूखा या बाढ़  जैसी प्राकर्तिक आपदा हो या कोई अपराध इनकी खबर सबसे पहले देने वाले स्ट्रिंगर ही होते हैं ये चैनल की रक्त शिराओं जैसे होते हैं यूँ तो पत्रकारों के लिए सरकार ने अनेक योजनाएं बनाई हैं जिसे उन्हें सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिलता है पर स्ट्रिंगर उस दायरे में नहीं आते इनको होने वाला भुगतान समय  पर नहीं होता है ऐसे में अक्सर इन पर भष्टाचार में लिप्त होने का आरोप भी लगाया जाता है हर चैनल की यह अघोषित नीति होती है कि स्ट्रिंगर को किसी जगह जड़ न ज़माने दो और अगर जड़ जमा रहा है तो उसका ट्रांसफर ऐसी जगह कर दो कि वो खुद ही अपना इस्तीफ़ा दे दे भारत के सारे प्रादेशिक चैनल इन्हीं स्ट्रिंगर के बूते नंबर वन बने रहने की जंग में लगे हैं इनका हाल भारत के उन किसानों जैसा है जो हमारे लिए अन्न और सब्जियां उगाते हैं लेकिन उनसे बने पकवान खुद नहीं खा पाते हैं .इलेक्ट्रोनिक मीडिया का मूलभूत सिद्धांत है कैमरा उठाने से पहले कागज पर अच्छी तैयारी करें और समाचारों में शोध पर पर्याप्त ध्यान दें लेकिन यहाँ इसका उल्टा होता है पहले विजुअल ले लो स्टोरी का पेग नॉएडा में निर्धारित होगा ऐसे में स्ट्रिंगर को जो कुछ समझ में आएगा कर के भेज देगा आखिर कैमरा और खबर दोनों उसीको करना है इसलिए खबरें अब गैदर नहीं बल्कि कलेक्ट की जाती हैं  .पीपल लाइव के बहाने ही सही कम से कम स्ट्रिंगरों की समस्या पर बहस तो शुरू हुई इनकी हालत बेहतर करने के लिए अब वक्त आ  चुका है कि स्ट्रिंगरों के पर्याप्त प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए ,करने के लिए उनके मेहनताने का समय  पर भुगतान किया जाए .  उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए समय समय पर इनके लिए ओरिएंटेसन कोर्स चलाये जाएँ  इसकी पहल न्यूस ब्रोडकास्टर एसोसीयेसन को करनी होगी अगर ऐसा न हुआ तो ये जगहंसाई का खेल चलता रहेगा राकेश मरते रहेंगे और समाचारों के नाम झाड फूंक भूत प्रेत और चीखना चिल्लाना चलता रहेगा

Wednesday, August 11, 2010

आइये सपनों को बेदखल करें

आराम भला किसे नहीं पसंद होता और जब भी आराम की बात होती है सोना या नींद सबसे ऊपर होती है. खैर, आप अभी-अभी सारी रात आराम करने के बाद, सोकर उठे हैं और मैं फिर से नींद की बात कर रहा हूं. अरे अरे, नाराज मत होइये क्योंकि यह बात जरूरी है. अभी एक नेशनल मैगजीन द्वारा कराये गए सर्वेक्षण में पता चला है कि लगभग 94 प्रतिशत भारतीय नींद संबंधी किसी न किसी समस्या से पीड़ित हैं. कभी-कभी सोचता हूं कि कैसे हमारी जिंदगी से जुड़े सर्वे फटाफट आ जाते हैं. जैसे इधर मेरी नींद हराम हुई उधर सर्वे हाजिर. ऐसा सबके साथ होता है ना? वैसे अगर नींद न आ रही हो तो पहला समाधान यही दिया जाता है की दिमाग शांत करके कोई अच्छा सा गाना सुन लीजिए नींद आ जायेगी. अगर गाना नींद से ही संबंधित हो तो क्या कहने. ये नुस्खा जांचा, परखा और आजमाया हुआ है. जरा अपने बचपन को याद कीजिये, जब मां हमें सुलाने के लिए लोरी गाया करती थीं और हम मीठी नींद सो जाया करते थे. अच्छी नींद और गानों का पुराना संबंध रहा है. ऐसे में सोते वक्त ये गाना कैसा रहेगा कोई गाता, मैं सो जाता-(फिल्म-आलाप). हमारे मानसिक स्वास्थ्य का सीधा संबंध नींद से होता है. अगर आप बहुत प्रसन्न हैं, तो चैन की नींद आयेगी, नहीं तो आपकी रातों की नींद उड़ जायेगी. अब प्रसन्न होने की शर्त तो बहुत बड़ी है भई. जब ऑफिस से लेकर घर तक काम के दबाव हों, जब सरकारें अपनी मनमर्जी कर रही हों, हमारी मर्जी से चुने जाने के बावजूद. जब महंगाई रात-दिन हमारा मजाक उड़ा रही हो, जब करप्शन मुंह फाड़े हमें निगलने को तैयार बैठा हो. जब पूरा शहर विकास के नाम पर खुदा पड़ा हो तो हम प्रसन्न कैसे हो सकते हैं. खैर, मैं कुछ ज्यादा ही भावुक हो गया. नींद पर लौटता हूं. नींद आना और नींद का उड़ जाना सामान्य स्थितियों में हमारे डेली रूटीन पर डिपेंड करता है. अब अगर आप इस गाने की फिलॉसफी पर भरोसा करेंगे कि बम्बई से आया मेरा दोस्त, दोस्त को सलाम करो रात को खाओ-पियो, दिन को आराम करो तो निश्चित ही नींद उड़ जायेगी और आप अनिद्रा रोग के शिकार हो जायेंगे. किसी काम में मन नहीं लगेगा और दिन भर आप उनींदे से रहेंगे. एक्सप‌र्ट्स कहते हैं कि अगर अच्छी नींद लेनी है तो दिन में खूब काम कीजिये और रात को आराम कीजिये नहीं तो आप सारी रात चांद को देखते हुए बिता देंगे. नींद और ख्वाब एक दूजे के लिए ही बने हैं पर ख्वाबों में जागते रहना, बेख्वाब सोने से अच्छा है. यूं ख्वाबों का बड़ा गहरा रोमैन्टिसिज़्म है, लेकिन असलियत ये है कि जब नींद गहरी हो और सपनों-वपनों की इसमें कोई गुंजाइश तक न हो तो सबसे अच्छा है. क्योंकि अगर नींद में लगातार सपने आ रहे हैं तो अच्छी बात नहीं है. ज्यादा सपने देखने का मतलब नींद की सेहत ठीक नहीं है. क्यों आजकल नींद कम ख्वाब ज्यादा हैं (फिल्म-वो लम्हे). हमारी सुबह सुहानी हो इसके लिए जरूरी है हम रात में अच्छी नींद लें. मीठी प्यारी नींद जो हमें हल्का महसूस कराये. सुबह आंख खुलते ही यह गाना अगर हमारे कानों में पड़े तो दिन की शुरुआत इससे बेहतर भला और क्या हो सकती है. निंदिया से जागी बहार ऐसा मौसम देखा पहली बार(हीरो). लेकिन नींद के कई दुश्मन हैं स्ट्रेस, टेंशन. ये सब तब होता है जब हम अपनी प्रजेंट सिचुएशन से सैटिस्फाइड नहीं हो पाते या कोई काम हमारे मन का नहीं होता. इसी वजह से जिंदगी में परेशानी होती है और नींद उड़ जाती है. शरीर में हेल्थ रिलेटेड कई समस्याएं पैदा हो जाती हैं. यानी हम जागते हुए भी सोये-सोये से रहते हैं और जब सोते हैं तो भी जगा-जगा सा महसूस करते हैं. वैसे डॉक्टर्स बताते हैं कि अच्छी नींद के लिये जरूरी है कि रात का खाना थोड़ा जल्दी खा लिया जाए. रात को नहाकर सोने से भी नींद अच्छी आ सकती है. हां, सोने से पहले टीवी देखना या कम्प्यूटर पर काम करने से बचें. सोते वक्त कुछ पढ़ने की आदत भी भली है. लेकिन अगर इन सब उपायों के बाद भी नींद उड़ी ही रहे तो डॉक्टर के पास ही जाना पड़ेगा. सबसे अच्छा तो यही होगा कि हमें डॉक्टर की जरूरत ही न पड़े. इधर हम बिस्तर की ओर बढ़ें और उधर नींद हमारी तरफ. खुद को एक मीठी सी नींद के हवाले करने से सुखद कुछ नहीं हो सकता. है ना? तो आइये अगले सर्वे की रिपोर्ट बदलने की तैयारी करें.
आई नेक्स्ट ११ अगस्त 

Friday, July 16, 2010

ख़ुशी हो या गम याद आये तुम............


 मैं कभी कभी ही खुश होता हूँ और जब खुश होता हूँ तो गाने सुनता हूँ  और जब दुखी होता हूँ तो भी गाने सुनता हूँ आप भी सोच रहे होंगे की ये क्या गड़बड़झाला है मित्रों जिन्दगी में कोई भी प्रोब्लम हो म्युसिक एक ऐसी मेडिसिन है जो सारे स्ट्रेस और टेंशन को भगाने के लिए काफी है पर कभी कभी ऐसा होता है जब सिचुएसन पर हमारा जोर नहीं रहता और कुछ भी अच्छा नहीं होता तब एक और बस एक ही चीज़ याद आती है भगवान् गोड, अल्लाह आप कुछ भी नाम लें मतलब एक है एक सुपर नेचुरल पवार जो हमारा आखिरी सहारा है मै तो फ़िल्मी आदमी हूँ तो फिल्म के डाँयलाग की भाषा में इसे दवा की नहीं दुआ की जरुरत है दुआ मतलब उपरवाला अब सोचिये अगर म्युसिक और गोड को जोड़ दिया जाए तो एक ऐसी मेडिसिन तैयार होगी जिसका कोई मुकाबला नहीं होगा बात सीधी से है पर है थोड़ी टेढ़ी कहते हैं संगीत कि कोई भाषा नहीं होती और आप उसे किसी  भाषा में बाँध भी नहीं सकते अब आप "वाका वाका" को ही ले लीजिये इस शब्द का मतलब भले ही हम न समझें पर गुनगुना तो सारी दुनिया ही रही है  पर जब आप बहुत परेशान और निराश हों तब एक ही गाना याद आता है मुझे जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारों (लावारिस ) ,निराशा भी अक्सर एक मोटिवेटर का काम करती है जब उसे ऊपर वाले यानि गोड, भगवान् या अल्लाह का सहारा मिल जाता है तो बात ये है कि हमारे फ़िल्मी गाने भी एक बड़ा जरिया हैं.                  भगवान् से हमारा सम्बन्ध स्थापित करने का आप न या माने पर ये सच है, जैसे धर्म भले ही अलग अलग हों सबका सन्देश एक ही है प्यार , मानवता , भाईचारा वैसे ही हमरे फ़िल्में गाने किसी एक मज़हब या धर्म की बात नहीं करते नहीं भरोसा हो रहा हो तो बानगी देख लीजिये "अल्लाह तेरो नाम इश्वर तेरो नाम "(हमदोनों ),जयरघुनन्दनजयसियाराम(घराना),वो मसीहा आया है (क्रोधी ) या फिर एक ओंकार सतनाम (रंग दे बसन्ती ). गाने की नज़र से देखें तो ये सिर्फ गाने हैं ख़ास बात ये है कि ये भारत के हर रिलिजन  की बात कर रहे हैं  कोई छोटा है  कोई बड़ा   थोडा और आगे बढ़ें तो ये गाने उसी फ़िल्मी गाने को आगे बढ़ाते हैं तू हिन्दू बनेगा  मुसलमान बनेगाइंसान की औलाद है इंसान बनेगा .वैसे एक बात और बताते चलूँ सूफी संगीत का जन्म ही संगीत और उस रूहानी ताकत के मिलन से हुआ जिसे हम भगवान कहते हैं और जब आप इसको सुनते हैं लगता है ऊपर वाला हमारे सामने है अगर भरोसा  हो रहा तो  ये गाना सुनियेगा अल्लाह के बन्दे हंस दे जो हो कल फिर आएगा  हिंदी फिल्म उद्योग केसंगीतकार अपने गीतों में सूफी संगीत की मधुरता बुन रहे हैं। अल्लाह के बंदेपिया हाजी अलीख्वाजा मेरे ख्वाजाअर्जियां.. जैसे सूफी संगीत में पगे गीतों की सूची बहुत लंबी है.तोजीवन की इन राहों पर अगर आप चलते चलते थक जाएँ तो थोडा रुक कर अगर इन गानों का साथी बन जाया जाए तो मंजिल कुछ करीब दिखने लगेगी और सफ़र की थकनकम होगी लेकिन एक बात मत भूलियेगा जब भी पर्थारना कीजिये पुरे विश्वास  से कीजिये  तो प्यार बाँटते चलिए और निराशाओं को  अपने ऊपर हावी  मत होने दीजिये .कलतो बिलकुल आएगा आशाओं  का उम्मीदों का इसलिए अगर आज थोड़ी मुश्किल है थोडा धीरज रख लीजिये क्योंकि कोई है जो आपके साथ है आप उसे किसी भी नाम से बुलासकते हैं.
आई नेक्स्ट १६ जुलाई    

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