मौसम बदल
रहा है बारिश आने को है और हम सब एक और बदलते मौसम के गवाह बन रहे हैं वो है
सिनेमा का मौसम जो बहुत तेजी से बदल रहा है.ये सिनेमा है उस बदलते भारत
का जिस पर अक्सर ये तमगा लगता था की हमारी फ़िल्में गीत संगीत और प्रेम सम्बन्धों
के आगे सोच ही नहीं पाती .जिन्दगी उतनी रंगीन है नहीं जितनी फ़िल्मी परदे पर दिखती
है पर अब हकीकत को जानने देखने और महसूस करने का
वक्त है वो दौर बीत गया जब फ़िल्में कोरे मनोरंजन का साधन मात्र हुआ करती
थीं आजका सिनेमा हार्ड कोर है अगर धंधा गन्दा है तो कहने में क्या हर्ज़ है
ये बोल्डनेस सिनेमा को दी है यांगिस्तानियों ने जो नए तरीके की फ़िल्में बना
भी रहे हैं और देख भी रहे हैं.सत्तर के दशक में लोगों का गुस्से को अमिताभ ने
आवाज़ दी पर उनकी समस्याओं का समाधान एकदम काल्पनिक रहा करते थे गीत संगीत से भरी
ऐसी फ़िल्में हमें एक ऐसे वर्चुअल वर्ल्ड में ले जाती थीं जिनका जिन्दगी की सच्चाई
से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं हुआ करता था “रिश्ते में
तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं नाम है शहंशाह”
या फिर “मोगेम्बो खुश हुआ” .ये बदलाव वक्त का है जो फिल्मों में दिख रहा है .आज का यूथ ज्यादा
क्यूरियस और रीयलिस्टिक है उसके लिए ये ज्यादा इम्पोर्टेंट है कि क्या
और कैसे दिखाया जा रहा है..नब्बे के दशक में जो उदारीकरण की बयार चली वो अच्छी थी
या बुरी हम इस बहस में नहीं पड़ते हैं पर उस बयार को जब इन्टरनेट का साथ मिला तो
अभिव्यक्ति के नए अंदाज़ ए बयां सामने आये. फ़िल्में सिनेमा हाल्स से निकल
कर मल्टीप्लेक्स तक पहुँच गयीं .दर्शक बदल गए उनकी रुचियाँ बदल गयीं और इसमें बड़ा
रोल प्ले किया यांगिस्तानियों ने ,ज्यादा
पुरानी बात नहीं हम सिर्फ पिछले दस साल की फिल्मों के कंटेंट पर नज़र डालें तो पता
चल जाएगा की हमारा सिनेमा कितना मेच्युर हो रहा है.आप भी सोच रहे होंगे की कैसे ? तारे
ज़मीन पर, ब्लैक, पिपली लाइव,पान
सिंह तोमर, विकी डोनर, खोसला का घोसला, चक
दे इंडिया,धोबी घाट, और गैंग्स आफ
वासेपुर जैसी फिल्में ज़हन में पैदा नहीं होती हैं. वो
बारीक रिसर्च से जुटाए गए तमाम पहलुओं से बनती हैं, और इन
जीवन के इन पहलूवों को समझने के लिए जीवन को बहुत गौर से समझना होगा इनमे से कुछ
फिल्मों के नाम ही अंग्रेजी में है पर इनमे बाकी सब कुछ देसी है मतलब
हमारे आस पास का ये उन लोगों की कहानी है जो आम हैं पर उनकी कहानियां खास
हैं कंटेंट भी कैसे कैसे स्पर्म डोनर की कहानी विक्की डोनर , एक छोटे शहर का वीडियो ग्राफर शंघाई फिल्म को नयी ऊँचाइयों पर ले
जाता है ,इलेक्ट्रोनिक मीडिया कैसे ख़बरों से खेलता है उसका उदहारण
पीपली लाईव, इन फिल्मों के कितने कैरेक्टर हमारे इर्द गिर्द
के मामूली लोग हैं जिनकी समस्याओं और व्यक्तित्व को हम नज़रंदाज़ कर देते हैं पर
जब इन्हीं केरेक्टर्स को सिनेमा के परदे पर उतारा जाता है तो वे इम्मोर्टल
हो जाते हैं क्यूंकि जिंदगी जब मायूस होती है तभी महसूस होती है और आज की फिल्मों
को लोग महसूस कर रहे हैं.चाहे वो फेरारी की सवारी हो या शंघाई .इन फिल्मों में
प्रोब्लम्स को देखने का एक विजन है और मुद्दों की गंभीरता भी . पचास के दशक
में मुद्दों पर आधारित फ़िल्में ज़रुर बनी पर उनमें आम आदमी का इतिहास कम
कहा गया है और ऐसा भी नहीं कि ये किसी खास वर्ग या ग्रुप को ध्यान में रखकर बनाई
जा रही हैं बच्चों के लिए “चिल्लर पार्टी, और आई एक कलाम है यांगिस्तानियों के एटीट्यूड को दिखाती देल्ही बेली भी है
और हाँ इंटरटेनमेंट का तडका भी है आजकल भाषण कौन सुनता है यार डाइरेक्ट दिल से और
तभी तो इनके डायलोग्स भी मक्कारी की जमीन से उगे हुए कमीनेपन के पौधे की बजाय सीधे
चोट करते हैं और गैंग्स ऑफ वासेपुर का डायलोग याद आ जाता है फट के फ्लावर हो जाना
.
आई नेक्स्ट में 27/06/12 को
प्रकाशित