85वें अकादमी पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म की दौड में भारतीय परिप्रेक्ष्य में बनी आंग ली निर्देशित "लाइफ ऑफ पाई" 11 नामांकन के साथ दूसरे स्थान पर है भारत केंद्रित एक कहानी पर बनी फिल्म को दूसरा सबसे ज्यादा नामांकन मिला है खास बात ये है कि काफी समय बाद इस फिल्म में इंसान के साथ जानवर भी मुख्य भूमिका में हैं |यह स्थापित तथ्य है इंसान और जानवर अलग होकर वर्षों तक नहीं जी सकते और शायद इसीलिये हिन्दी फिल्मों में जानवर लंबे समय तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे. फिल्मों में जानवरों की उपस्थिति 1930 और 40 के दशक में नाडिया की फिल्मों में देखी जा सकती है पर उसके बाद ये सिलसिला बहुत तेजी से आगे बढ़ा जिसमे रानी और जानी, धरम वीर, मर्द, खून भरी मांग, तेरी मेहरबानियां, दूध का कर्ज़, कुली और अजूबा, जैसी फ़िल्में शामिल हैं. अमेरिकी टीवी लेखक रोबर्ट मिगल फिल्मों में उनके चरित्र की व्यापकता को देखते हुए इसे सहनायक या जानवर मित्र की संज्ञा देते हैं. जो वर्षों तक हमारी फिल्मों का प्रभावकारी हिस्सा रहे.वो हमें कहीं हंसा रहे थे तो कहीं भावनात्मक रूप से संबल भी दे रहे थे.पिछले दो दशकों में ऐसी फिल्मों की संख्या में काफी कमी आयी है.यह मनुष्य और प्रकृति के कमजोर होते सम्बन्धों का सबुत है. प्रकृति से हमारा ये जुड़ाव सिर्फ मनोहारी दृश्यों तक सीमित हो गया है.हमें बिलकुल भी एहसास नहीं हुआ कि कब हमारे जीवन में प्रमुख स्थान रखने वाले जानवर सिल्वर स्क्रीन से गायब हो गए.आज फिल्मों में आधुनिकता के सारे नए प्रतीक दिखते हैं.मॉल्स से लेकर चमचमाती गाड़ियों तक ये उत्तर उदारीकरण के दौर का सिनेमा हैं. जहाँ लाईफ इन मेट्रो जैसी फिल्मों की बहुतायत है पर झील के उस पार और हाथी मेरे साथी जैसी फ़िल्में परदे से गायब हैं| इसका एक कारण उदारीकरण के पश्चात जीवन का अधिक पेचीदा हो जाना और मशीनों पर हमारी बढ़ती निर्भरता है.गौरतलब है कि इन मशीनों ने सिनेमा को तकनीकी तौर पर बेहतर किया है अब जानवरों को परदे पर दिखाने के लिए असलियत में उनकी जरुरत भी नहीं इसके लिए एनीमेशन और 3 डी तकनीक का सहारा लिया जा रहा है.दर्शकों की रूचि मानव निर्मित सभ्यता के नए प्रतीकों को देखने में ज्यादा है.उपभोक्तावाद ने हमें इतना अधीर कर दिया है कि विकास का मापदंड सिर्फ भौतिकवादी चीजें और पैसा ही रह गया है.हमारी फ़िल्में भी इसका अपवाद नहीं हैं आखिर सिनेमा को समाज का दर्पण यूँ ही नहीं कहा गया है. वैचारिक रूप से परिपक्व होते हिन्दी सिनेमा में जंगल और जानवरों के लिए जगह नहीं है यह उत्तर उदारीकरण के दौर का असर है या कोई और कारण यह शोध का विषय हो सकता है पर असल जीवन में कटते पेड़ और गायब होते जानवरों के प्रति संवेदना को बढ़ाने का एक तरीका सिनेमा की दुनिया में उनका लगातार दिखना एक अच्छा उपाय हो सकता है|
हिंदुस्तान में 16/01/13 में प्रकाशित लेख
2 comments:
मानव जीवन में जानवरों की उपस्थिति और महत्व दिन ब दिन घटता जा रहा है यह सर्वमान्य सत्य है ! महत्वपूर्ण विषय पर सारगर्भित आलेख ! 'लाइफ ऑफ़ पाई' एक बहुत ही बेहतरीन एवं दर्शनीय फिल्म है और इसमें सभी कलाकारों ने बहुत अच्छा अभिनय किया है ! सबसे अधिक प्रभावित इस फिल्म के टाइगर ने किया !
दुनियां में धीरे-धीरे खत्म हो रही जंगली जानवरों की प्रजाति चिंता का विषय है। दुनिया में कई ऐसे जानवर हैं, जिनके संरक्षण को लेकर कोई कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। इस कारण इनकी संख्या में निरंतर कम होती जा रही है और शायद यही कारण है फ़िल्मी दुनिया से गायब होने का भी ।।
Post a Comment