इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक, देश के 24 राज्यों में इंटरनेट उपयोगकर्ता मतदान में तीन से चार प्रतिशत तक का बदलाव लाएंगे। इस बार के लोकसभा चुनाव इस मायने में अनूठे हैं कि वर्चुअल वर्ल्ड प्रचार का नया सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। गूगल ने चुनाव समर्पित एक इलेक्शन हब विकसित किया है। प्रचार के पारंपरिक तरीकों के साथ तकनीक जुड़ रही है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक शोध के मुताबिक, इस बार चुनाव में पांच अरब रुपये खर्च किए जाएंगे, जो पिछले चुनाव के खर्च का तीन गुना है। राजनीतिक दल अपनी ऑनलाइन उपस्थिति के ऊपर अपने बजट का दो से पांच प्रतिशत खर्च कर रहे हैं।पहली बार हो रहा यह प्रयोग चुनौतियां व समस्याएं भी ला रहा है। माना जाता है कि सोशल मीडिया टीवी व अखबार से ज्यादा लोकतांत्रिक और निरपेक्ष हैं, पर इस नवजात मीडिया के रेवेन्यू मॉडल का आधार भी विज्ञापनों से होने वाली आय है। इस मुद्दे को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार और उस पर होने वाले व्यय के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इंटरनेट की व्यापकता और पहुंच देखते हुए इन दिशा-निर्देशों से बचकर प्रचार किया जा सकता है, जिससे आयोग को खर्च का वास्तविक आंकड़े मिलना मुश्किल है। हैश टैग और फीड को प्रमोट करने के लिए फर्जी अकाउंट का इस्तेमाल खूब किया जा रहा है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के ग्लोबल प्लेटफॉर्म को आधार बनाकर छोटी कंपनियां कमेंट और लाइक का कारोबार कर रही हैं, जिसमें काले धन को खपाया जा रहा है। एक रिपोर्ट में फेसबुक ने खुद माना है कि उसके कुल एकाउंट में से 5.5 प्रतिशत से लेकर 11.2 प्रतिशत तक फर्जी एकाउंट हैं।फेसबुक के कुल प्रयोगकर्ताओं में भारत का स्थान दूसरा है। चुनाव के बाद ऑनलाइन विज्ञापन पर किए गए सारे खर्च का ब्यौरा राजनीतिक दलों को देना होगा। लेकिन इंटरनेट पर बहुत से राजनीतिक दलों के समर्थक अपने-अपने तरीके से अभियान चला रहे हैं, अगर इस अभियान के लिए कोई राजनीतिक दल उन्हें अनाधिकारिक रूप से पैसा दे रहा है, तो फिर उसका हिसाब कैसे लिया जाएगा? फर्जी एकाउंट जहां राजनीतिक दलों के लिए अंडरकवर एजेंट की तरह कार्य कर रहे हैं, वहीं नफरत व सामाजिक वैमनस्य बढ़ने वाले वक्तव्य का इस्तेमाल वोटों के ध्रुवीकरण और गलत जनमत निर्माण में किया जा रहा है। चुनाव के वक्त जहां बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ हो, वहां ऑनलाइन समर्थन से किसी भी प्रत्याशी की स्थिति को बेहतर बताकर उसके पक्ष में वोट जुटाए जा सकते हैं।
आदर्श आचार संहिता के निर्देश राजनीतिक दलों या प्रत्याशियों के लिए है। ऐसे में, वे अपने समर्थकों का इस्तेमाल करके इस आचार संहिता से बच सकते हैं। बेहतर निगरानी तंत्र से ही इससे निपटा जा सकता है। यह काम चुनाव आयोग को करना ही होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
हिन्दुस्तान में 18/04/14 को प्रकाशित
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