आमतौर पर सोशल मीडिया, जैसे फेसबुक, ट्विटर, आदि को सामान्य जनमानस के विचारों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखा जाता है। यह माना जाता है कि सोशल मीडिया सही मायने में एक ऐसा मीडिया है, जो किसी भी तरह के दबाव से मुक्त है। पिछले कुछ समय से जनमत के निर्माण में भी इसकी भूमिका तेजी से बढ़ी है और ट्विटर इसका एक अच्छा माध्यम बनकर उभरा है। लेकिन सूचना साम्राज्यवाद के इस दौर में इंटरनेट भी सूचना के मुक्त प्रवाह का विकल्प बनकर नहीं उभर पा रहा। सोशल मीडिया में चर्चित विषय को रेडियो, टीवी और अखबार भी प्रमुखता से आगे बढ़ाते हैं। भारत कोई अपवाद नहीं है।
वर्ष 2009 में जहां सिर्फ एक भारतीय नेता के पास ट्विटर अकाउंट था, वहीं अभी-अभी समाप्त हुए चुनावों के दौरान देश के अधिकांश बड़े नेताओं ने ट्विटर के माध्यम से अपनी राय रखी। देश के आम चुनाव में सोशल मीडिया ने एक बड़ी भूमिका निभाई। अमेरिकी शोध पत्रिका ‘पलोस’ में छपे ब्रायन कीगन, द्रेव मगरेलिन और डेविड लजेर के शोध पत्र के मुताबिक किसी महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम में ट्विटर जैसी प्रमुख सोशल मीडिया साइट्स में अंतर-वैयक्तिक संवाद का स्थान प्रसिद्ध हस्तियों एवं उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों ने ले लिया, जिससे आम जनता के विचार उनके सामने दब के रह गए। नामचीन लोगों के ट्वीट या उनके विचारों को सोशल मीडिया ने ज्यादा तरजीह दी, जिससे सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय वही मुद्दे बने, जो पारंपरिक मीडिया में अथवा बड़ी हस्तियों द्वारा उठाए गए, न कि वे मुद्दे, जो वास्तव में जनता के मुद्दे थे।
इस शोध में 1,93,532 राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों के दो सौ नब्बे मिलियन ट्वीट को अध्ययन का क्षेत्र बनाया गया। ट्वीट्स के माध्यम से आती हुई सूचना इतनी आकर्षक व भ्रामक थी कि जनता उसमें उलझकर रह गई। लोग यह समझ ही नहीं पाए कि जिन मुद्दों को वे री-ट्वीट के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं, वे वास्तव में किसी और के मुद्दे हैं। जनता का ध्यान आपसी संवाद एवं मुद्दों के विश्लेषण से हटकर विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा किए गए ट्वीटस पर केंद्रित हो गया, जिससे न केवल स्वतंत्र विचारों पर कुठाराघात हुआ है, बल्कि अफवाहों के फैलने की आशंका भी बढ़ गई है।
इस तथ्य के बावजूद कि सोशल मीडिया ज्यादा लोगों की विविध आवाज को लोगों के सामने ला सकता है, किसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम में यह सोशल चौपाल वास्तविक चौपाल के उलट कुछ खास जनों तक सिमटकर रह जाता है। इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक ध्वनियों की अनदेखी हो जाती है, जिससे सही जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले वक्त में इसमें परिवर्तन आएगा और किसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम में विविध ध्वनियां मुखरित होंगी।
हिंदुस्तान में 05/06/14 को प्रकाशित
2 comments:
आपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि विश्व पर्यावरण दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
मुकुल भाई आपका ब्लॉग पढ़ा काफी ख़ुशी हुई ।
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