Monday, November 6, 2017

विचार मंथन से आशंका और उम्मीदों का जन्म

विमर्श के कई आयाम होते हैं और हर विमर्श नए विचार  का स्वागत बाँहें फैला करे यह जरुरी तो नहीं है ,पर यह यह संवादी की खूबसूरती ही है कि अभिव्यक्ति के इस आयोजन में  मौका तो था विधाओं के छूटते सिरे पर विमर्श का पर इस विमर्श से जो नए विचार निकले उनमें जहाँ ज्ञान की गंगोत्री थी तो कुछ आशंकाएं भी कुछ चिंता थी तो आने वाला वक्त आज से बेहतर होगा ऐसी एक उम्मीद भी |इस रिपोर्ट को लिखते वक्त मेरे बगल एक युवा बैठा था जो लगातार मंच पर बैठे वक्ताओं के बारे में पूछ ताछ कर रहा था |मुझे ख़ासा गुस्सा आ रहा था क्योंकि उसके सवालों के बीच मैं मंच पर हो रहे वार्तालाप के सिरे को खो दे रहा था |शायद उसका साहित्य से कोई लेना देना न हो पर मैंने उसे डानटा नहीं वो डेढ़ घंटे के इस सत्र में पूरी तल्लीनता से मंच पर मुद्दे को समझने की कोशिश करता रहा |आज भले ही उसे कुछ ख़ास समझ न आया हो पर उसकी जिज्ञासा ने मुझे यह उम्मीद जरुर दी कि संवादी जैसे कार्यक्रम आज के युवाओं में साहित्य के संस्कार के बीज जरुर बो जायेंगे |अगली बार शायद जब मैं उससे मिलूं तो वह सब कुछ न सही थोडा बहुत साहित्य के बारे में जरुर जान गया होगा |बहरहाल विधाओं के छूटते सिरे के बहाने साहित्य की उन विधाओं के बारे में चर्चा हो रही थी जो आजकल लुप्त सी होती जा रही हैं कारण कुछ भी हो सकता है तकनीक का बढ़ता प्रयोग ,उदारीकरण या इंसान का इस मशीनी दुनिया में लगातार अकेले होते जाना |इस चर्चा में भाग ले रहे थे अपनी अपनी साहित्यिक विधाओं के माहिर डॉ विनय कुमार ,डॉ सच्चिदानन्द जोशी, डॉ अजय सोडानी और मनीषा कुलश्रेष्ठ जबकि इस महत्वपूर्ण विषय के संचालन का शानदार दायित्व निभाया लीलाधर मंडलोई  ने |
बात शरू हुई हिन्दी  साहित्य  की विभिन्न विधाओं में आजकल क्या चल रहा है और बात का सिरा पकड़ा डॉ विनय कुमार ने दिनकर को याद करते हुए कि भावनाओं की मरोड़ से छंद पैदा होते हैं और इसी मरोड़ से साहित्य की अन्य विधाएं भी पैदा होती हैं स्रष्टि की शुरुआत में भावनाएं थी विचार नहीं इसलिए कविताएँ फिर समय बढ़ा विचार आये जिससे कहानियां निकलीं फिर उपन्यास और अन्य  विद्याएं |मशीनों ने जीवन की रफ़्तार बढ़ाई तो हमारी इच्छाएं भी तेजी से बढीं पर जब किसी भी चीज की रफ़्तार बढ़ती है तो परिदृश्य छूटने लगते हैं और ऐसा ही साहित्य की छूटती विधाओं के साथ हुआ ,पत्र लेखन की जगह अब ई मेल और व्हाट्स एप ने ले लिया है पर पत्र लिखने के अंत में जो हस्ताक्षर का कमिटमेंट हुआ करता था |अब वह गायब है |डॉ सचिदानंद ने कहा तकनीक केन्द्रित जीवन ने हमारे जीवन की गोलाइयों को खत्म कर दिया है |प्रकृति का संगीत सुनने की बजाय हम तकनीक का संगीत सुन रहे हैं |साहित्य का फ़ॉर्मेट बदल गया है |अखबारों की इस प्रव्रत्ति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा भाव शब्द नाप के व्यक्त नहीं किये जा सकते |
डॉ अजय सोडानी ने कहा समाज का साहित्य पर असर पड़ता है पर साहित्य का समाज पर नहीं बल्कि व्यक्ति पर प्रभाव होता है |इस वक्त का समाज दो मनोविकार से ग्रस्त है पहला विकास का कि जो कुछ पुराना या उपलब्ध है उसे हटाकर नया बनाना है हम मानव सृजित प्रकृति में रहना चाहते हैं दूसरा समयाभाव हम हर चीज की जल्दीबाजी में और अगर ऐसा होगा तो कहानियां तीन सौ शब्दों में लिखी जायेंगी और कविताओं में से लय गायब हो जायेगी |
मनीषा कुलश्रेष्ठ ने माना उनके देखते देखते रेखाचित्र ,ललित निबंध ,पत्र लेखन धूमिल पड़ते गए और ब्लॉग पोर्टल की नई दुनिया ने जन्म ले लिया |विधाएं पग डंडियाँ हैं जो समय के साथ कुछ फॉर लेन  हो गयीं कुछ पर खर पतवार जम गयीं पर विधा एक ऐसी दादी है जो चाहती है कि सब अपने अपने घर बसा लें पर त्योहारों पर घर जरुर लौटें अगर ऐसा होता रहेगा तो विद्याएं आगे बढ़ती रहेंगी |
दैनिक जागरण में 06/11/2017 को प्रकाशित 

2 comments:

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 32वीं पुण्यतिथि - संजीव कुमार - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

M Yasdev said...


bahut achchhi jankari parapt hui

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