तेजी से हो
रहे जलवायु परिवर्तन की समस्या ने ‘हवा-पानी’
रहित खतरनाक भविष्य का खाका खींचना शुरू कर दिया है। समय रहते
समाधान नहीं किया गया तो आने वाला कल कैसा होगा इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है।
यह समस्या अंतरराष्ट्रीय
समस्या का रूप ले चुकी है। विकसित या विकासशील देश ही नहीं, पूरा
विश्व इसकी चपेट में है। इसलिए तमाम देश व संयुक्त राष्ट्र संघ इस समस्या से निजात
पाने के लिए गंभीरता से विचार कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के प्रमुख मुद्दों में कूड़ा प्रबंधन
भी है। कूड़ा पृथ्वी के लिए ही नहीं बल्कि समुद्रों के लिए भी बड़ा खतरा बनता जा
रहा है। आमतौर पर यह मान्यता है कि सागर बहुत विशाल है, इसमें
कुछ भी डाल दिया जाए तो पर्यावरण पर इसका फर्क नहीं पड़ेगा। पर वास्तविकता इसके
उलट है। धरती
पर उपलब्ध पानी का लगभग 97 प्रतिशत सागर में
है। सागर हमारी धरती के लगभग 71 प्रतिशत हिस्से पर है। सागर
की उपस्थिति पर धरती का अस्तित्व निर्भर करता है। परंतु विगत कुछ वर्षो से धरती पर
मौजूद अन्य जलाशयों की भांति ही मनुष्यों ने सागर को भी अपने अविवेकपूर्ण एवं लापरवाह
आचरण का शिकार बनाना शुरू कर दिया है और अधिक
चिंताजनक विषय यह है कि इस ओर हमारे पर्यावरणविदों का ध्यान न के बराबर ही
है। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए भोजन, रोजगार और ऊर्जा
मुहैया कराने का दारोमदार भी अब समुद्रों पर है। तीन दशक पूर्व बड़े देश अपना कचरा
जहाजों में भरकर समुद्रों में डालते रहे हैं।
1998 में ऐसे
ही कचरे के कारण नाइजीरिया भीषण त्रासदी से गुजरा, जिसके
कोको बंदरगाह में इटली की एक कम्पनी 3800 टन खतरनाक कचरा
छोड़ गई। कचरे में रेडियो एक्टिव पदार्थ होने से लोग मरने लगे। कोको में बचे लोगों
को स्थानांतरित करना पड़ा। लेकिन भारी तादाद में समुद्री जीव-जंतुओं, मछलियों के नुकसान की भरपाई नहीं हो सकी। बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण भूमि
संसाधनों पर निरंतर बढ़ते जा रहे दबाव से यह तो तय है कि आने वाले वक्त में हमें
अपनी भूख और प्यास मिटाने के लिए सागर की ही शरण में जाना पड़ेगा। इसलिए यह आवश्यक
है कि हम अपने सागर का संरक्षण करें। सागर में हम प्लास्टिक से लेकर रेडियोधर्मी
कचरे तक सब कुछ डाल रहे हैं। सागर के लिए सबसे बड़ा खतरा है प्लास्टिक। बदलती जीवन
शैली, ‘प्रयोग करो और फेंको’ की
मनोवृत्ति और सस्ते प्लास्टिक की उपलब्धता ने प्लास्टिक का उत्पादन और कचरा दोनों
ही बढ़ाया है। प्लास्टिक कचरे के निस्तारण की पर्याप्त व्यवस्था अभी सभी देशों के
पास उपलब्ध नहीं है। पर्यावरण संस्था
ग्रीन पीस के आंकलन के मुताबिक हर साल लगभग 28 करोड़ टन
प्लास्टिक का उत्पादन होता है जिसका बीस प्रतिशत हिस्सा सागर में चला जाता है। कितना
प्लास्टिक हमारे सागर के तल में जमा हो चुका है इसका वास्तविक अंदाजा किसी को नहीं
है। उल्लेखनीय है कि ये कचरा सागर के ऊपर तैरते कचरे से अलग है। प्लास्टिक की वजह
से समुद्री खाद्य श्रृंखला पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। प्लास्टिक की वजह से न
केवल समुद्री जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है,
बल्कि पूरे के पूरे समुद्री पारितंत्र के भी बिखरने का खतरा उत्पन्न
हो गया है। पेयजल, ठंडे मीठे पेय की पैठ सुदूर अंचलों तक हो
चली और जगह-जगह प्लास्टिक के अंबार लगते जा रहे हैं। पानी पाउच, फास्ट फूड पैकेट्स, नमकीन की थैलियां आदि हर गली,
मुहल्ले, रेलवे स्टेशनों और जंगल पहाड़ों से
गुजरते रेल मार्ग और सड़क मार्ग में बिखरी पड़ी हैं। इनके निस्तारण की उचित
व्यवस्था न होने से समुद्र इनके लिए अंतिम शरणस्थली बनते हैं।
प्लास्टिक को
प्रकृति नष्ट नहीं कर सकती, कीड़े खा नहीं सकते, इसलिए समूचे प्रकृति चक्र में यह अपना दुष्प्रभाव फैला रहा है। ग्रीनपीस
संस्था के आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग दस लाख पक्षी और एक लाख स्तनधारी
जानवर समुद्री कचरे के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं। विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 14 हजार करोड़ पाउंड कूड़ा-कचरा सागर में फेंका जाता है। संयुक्त राष्ट्र
पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार समुद्री कचरे का लगभग
अस्सी प्रतिशत जमीन पर इंसानी गतिविधियों तथा बचा हुआ बीस प्रतिशत सागर में इंसान
की गतिविधियों के फलस्वरूप आता है। जापान में 2011 में आई
सुनामी ने प्रशांत महासागर में कूड़े का एक सत्तर किमी लंबा टापू बना दिया। यह तो
केवल एक उदाहरण भर है। विश्व भर में समुद्री कूड़े से बने ऐसे अनेकों टापू हैं और
यदि सागर में कूड़ा डालने की मौजूदा गति बरकरार रही तो वह दिन दूर नहीं जब सागर
में हर तरफ सिर्फ कूड़े के टापू ही नजर आएंगे। समुद्री कचरा जमीनी कचरे की तरह एक
जगह इकट्ठा न होकर पूरे सागर में फैल जाता है। यह पर्यावरण, समुद्री
यातायात, आर्थिक और मानव स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचाता
है। समुद्र में पानी की तरह कचरा भी लगातार बह रहा है। लहरें उन्हें अपने साथ ले
जाती हैं- एक जगह से दूसरी जगह, एक महासागर से दूसरे
महासागर। उत्तर प्रशांत सागर में तो ग्रेट पैसिफिक गार्बेज पैच की बात कही जाती
है। कचरे का यह कालीन मध्य यूरोप के बराबर है। विश्व के कई देशों में इस समस्या का
हल खोजने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। भारत में भी वर्ष 2000
में ठोस कचरे के निस्तारण को लेकर एक नीति बनाई गई थी, पर वह
आज भी कागजों पर ही है। हम अपने सीवेज के केवल तीस प्रतिशत का ही निस्तारण कर पाते
हैं। बाकी का सीवेज वैसे का वैसा ही नदियों में डाल देते हैं जो अंतत: सागर में
जाता है। देश की आठ हजार किमी लंबी तटरेखा सघन रूप से बसी हुई है जिसमें मुंबई,
कोलकाता, चेन्नई, गोवा
और सूरत जैसे शहर शामिल हैं। तथ्य यह भी आर्थिक रूप से विकसित इन शहरों में
जनसंख्या का दबाव बढ़ रहा है और शहर अपने कूड़े को सागर में डाल रहे हैं। अल्पविकसित
देशों के लिए कूड़ा निस्तारण हेतु सागर एक अच्छा विकल्प साबित होते हैं। इससे
समस्या का फौरी तौर पर तो समाधान हो जाता है, पर लंबे समय में
यह व्यवहार पर्यावरण और मानवजाति के लिए खतरा ही बनेगा। विशालता के कारण समूचे
सागर की सफाई संभव नहीं है। इससे बचने का एकमात्र रास्ता जागरूकता और बेहतर
प्लास्टिक कूड़ा प्रबंधन है। इस दिशा में ठोस पहल की जरूरत है। सागर की स्थिति में
स्थाई सुधार के लिए सरकारों और लोगों की सोच में बदलाव आना जरूरी है।
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 24/12/2019 को प्रकाशित
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