विकास जब अपने संक्रमण काल में होता तब सामजिक समस्याएं ज्यादा गंभीर होती हैं,कुछ ऐसी परिस्थितियों से भारतीय समाज भी गुजर रहा है |आंकड़े बताते हैं कि समाज के हर क्षेत्र में महिलाएं तेजी से आगे बढ़ रही हैं|उच्च शिक्षा में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी रोजगार के अवसरों को बढ़ा रहे हैं|महिलायें कार्यक्षेत्र में पुरुषों के वर्चस्व को तेजी से तोड़ रही हैं|आमतौर पर ऐसी तस्वीर किसी भी समाज के लिए आदर्श मानी जायेगी जहाँ स्त्रियाँ तरक्की कर रही हों पर भारतीय परिस्थितयों में ये स्थिति महिलाओं के लिए स्वास्थ्य संबंधी कई परेशानी पैदा कर रही है|वैश्वीकरण की बयार,शिक्षा के प्रति बढ़ती जागरूकता ने पूरे देश को प्रभावित किया है|धीरे धीरे ही सही अब इस धारणा को बल मिल रहा है कि कामकाजी महिला घर और भविष्य के लिए बेहतर होगी पर हमारा पितृ सत्तामक सामजिक ढांचा उन्हें घर परिवार के साथ साथ रोजगार सम्हालने की भी अपेक्षा करता है जिसका नतीजा महिलाओं में बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में सामने आ रहा है|स्वास्थ्य संगठन मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर लिमिटेड द्वारा देश के चार महानगरों दिल्ली, कोलकाता, बंगलुरु और मुंबई में रहने वाली महिलाओं के बीच किये गए इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि युवा महिलाओं में डायबिटीज और थायरॉयड जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं| जिसकी वजह से महिलाओं को थकान, कमजोरी, मांसपेशियों में खिंचाव और मासिक चक्र में गड़बड़ी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ रहा है|रिपोर्ट के अनुसार,चालीस से साठ साल के बीच की की उम्र वाली महिलाओं में इन दोनों बीमारियों के होने की आशंका बढ़ी है| महतवपूर्ण तथ्य यह भी है कि अब कम उम्र की महिलाएं भी इन बीमारियों की चपेट में आ रही हैं| अर्थव्यवस्था में तेजी आने से रोजगार के अवसर बढे जिसके कारण गाँवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा जिसका नतीजा बढ़ते एकल परिवारों के रूप में हमारे सामने आ रहा है|सामजिक रूप से बढ़ते एकल परिवार कोई समस्या की बात नहीं हैं पर संयुक्त परिवारों की तुलना में एकल परिवार में कामकाजी महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा बढ़ा है जिससे महिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र और घर दोनों को सम्हालने के लिए पुरुषों से ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है जिससे तनाव बढ़ता है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जिससे अन्य बीमरियों के होने की आशंका बढ़ जाती है|अब वो दौर बीत चुका है जब ये माना जाता था कि महिलायें सिर्फ घर का कामकाज देखेंगी अब महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर जीवन की हर चुनौतियों का सामना कर रही हैं,उनके काम का दायरा बढ़ा है पर परिवार से जो समर्थन उन्हें मिलना चाहिए,वह नहीं मिल रहा है| जबकि पुरुषों का कार्यक्षेत्र सिर्फ बाहरी कामकाज तक सीमित है|भारत के सम्बन्ध में यह समस्या इसलिए महत्वपूर्ण है जहाँ अभी तक महिलायें घर की चाहरदीवारी में कैद रही हैं पर अब उनको स्व्वीकार्यता तो मिल रही है पर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है|
ऑर्गनाइज़ेशन फोर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलेपमेंट’ (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) द्वारा 2011 में किए एक सर्वे में छब्बीस सदस्य देशों और भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अध्ययन से यह पता चलता है कि भारत ,तुर्की और मैक्सिको की महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पांच घंटे ज्यादा अवैतनिक श्रम करती हैं|भारत में अवैतनिक श्रम कार्य के संदर्भ में बड़े तौर पर लिंग विभेद है, जहां पुरुष प्रत्येक दिन घरेलू कार्यों के लिए एक घंटे से भी कम समय देते हैं| रिपोर्ट के अनुसार भारतीय पुरुष टेलीविज़न देखने, आराम करने, खाने, और सोने में ज्यादा वक्त बिताते हैं| मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर रिपोर्ट के अनुसार नौकरी और घर दोनों सम्हालने वाली अधिकतर महिलायें डायबिटीज और थायरॉयड के अलावा मानसिक अवसाद, कमर दर्द, मोटापे और दिल की बीमारियों से पीड़ित हैं|अधिकतर भारतीय घरों में ये उम्मीद की जाती है कि कामकाजी महिलायें,अपने काम से लौटकर घर के सामान्य काम भी निपटाएं|ऐसे में महिलाओं के ऊपर काम का दोहरा दबाव पड़ता है जबकि पुरुष घर आकर काम की थकान मिटाते हैं वहीं महिलायें फिर काम में लग जाती हैं बस फर्क इतना होता है कि बाहर के काम का आर्थिक भुगतान होता है जबकि घर के काम काज को परम्पराओं ,मर्यादाओं के तहत उसके जीवन का अंग मान लिया जाता है|उल्लेखनीय है कि इस समस्या के और भी कुछ अल्पज्ञात पहलू हैं| घर परिवार मर्यादा नैतिकता और संस्कार की दुहाई के नाम पर महिलाओं को अक्सर घरेलू श्रम के ऐसे चक्र में फंसा दिया जाता है कि वे अपने अस्तित्व से ही कट जाती हैं|
बड़े शहरों में जागरूक माता पिता अपनी लड़कियों की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं ऐसे में वो लड़कियां शादी से पहले ही कामकाजी हो जाती हैं और घर के दायित्वों में सक्रीय रूप से योगदान नहीं देती पर शादी के बाद स्थिति एकदम से बदल जाती हैं|यहीं पुरुष अगर घर के सामान्य कामों को छोड़कर अपनी पढ़ाई या करियर पर ध्यान दें तो यह आदर्श स्थिति मानी जायेगी क्यूंकि समाज उनसे यही आशा करता है पर महिलाओं के मामले में समाज की सोच दूसरी है ऐसे में भी अगर कोई लडकी पढ़ लिख कर कुछ बन जाती है तो भी उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह घर के कामों में ध्यान देगी और तब समस्याएं शुरू होती हैं|समाज का ढांचा तो बदल रहा है पर मानसिकता नहीं और यही समस्या की जड़ है|मानसिकता में बदलाव समाज के ढांचे में बदलाव की अपेक्षा काफी धीमा होता है|इसकी कीमत कामकाजी महिलाओं को चुकानी पड़ रही है|कामकाजी महिलाओं को स्वीकार किया जा रहा है पर शर्तों के साथ |इन खतरनाक बीमरियों पर अंकुश लगाने के लिए यह जरुरी है कि परिवार अपनी मानसिकता में बदलाव लायें और पुरुष घर के काम काज को लैंगिक नजरिये से देखना बंद करें|छोटे बच्चे जब घर के सामान्य कामकाज को अपने पिताओं को करते देखेंगे तो उनके अन्दर काम काज के प्रति लैंगिक विभेद नहीं पैदा होगा ऐसे में जरुरी है छोटे बच्चों का समाजीकरण घरेलू काम में लैंगिक बंटवारे के हिसाब से न हो यानि खाना माता जी ही पकायेंगी और पिता जी ही सब्जी लायेंगे| यदि ऐसा होगा तो आज के बच्चे कल के एक बेहतर नागरिक नागरिक अभिभावक बनेगे|बीमारियों का इलाज तो दवाओं से हो सकता है पर स्वस्थ मानसिकता का निर्माण जागरूकता और सकारात्मक सोच से ही होगा|
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 02/12/2019 को प्रकाशित
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