आज कई सालों बाद कबाड़ी की आवाज सुनी तो सोचा क्यों न घर का कुछ कबाड़ निकाल दिया जाए ,कबाड़ तो काफी निकला पर कबाड़ी के लेने लायक कुछ नहीं था सिवाय कुछ किलो अखबारी कागज़ के .कबाड़ में ज्यादातर प्लास्टिक की बोतलें,खराब मोबाईल बैटरी,कबाड़ी तो अखबार लेकर चला गया और मैं प्लास्टिक
की अधिकता वाले कबाड़ के उस ढेर में बैठा –बैठा सोचने लगा अपने बचपन के दिन और कबाड़ी वालों के साथ अपने अनुभव के बारे में. बात ज्यादा पुरानी नहीं है.नब्बे के दशक तक हमारे घर के कबाड़ में खूब सारे रद्दी कागज़ हुआ करते थे कांच की बोतलें, शीशियाँ और कपडे .कांच की वही बोतलें शीशियाँ बेची जाती थीं जिनका घर में किसी तरह से इस्तेमाल नहीं हो सकता था, मतलब कुछ बोतलों में पानी भर के मनी प्लांट लगा दिया जाता था.कबाड़ में वही बोतले और शीशियाँ जाती थी जिनका कुछ प्रयोग नहीं हो सकता था.
अखबार और किताबें खूब आती थी जब वो कबाड़ा में जाती तो उनका फिर से कागज़ बनाकर इस्तेमाल हो जाया करता था ,वैसे हमने अपने बचपन में अखबार से लिफाफे भी बनाये हैं .पेंट ख़राब हुई थो काटकर हम जैसे बच्चों की नेकर बन जाया करती थी.नेकर भी खराब हुई तो पोंछा बनने का विकल्प खुला था .चादर खराब हुई तो
कथरी बन गयी या झोला अगर फिर भी कसर बची हो तो पावदान के रूप में उसका इस्तेमाल हो सकता था .उसके बाद भी अगर घर में कपडे बचे रह गए तो होली दीपावली उन कपड़ों को देकर बर्तन लिए जा सकते थे .यह अपने आप में कबाड़ को नियंत्रित करने का सतत चक्र था जो पर्यावरण अनुकूल था . फिर वक्त बदला हम विकास के रोगी हुए उदारीकरण यूज एंड थ्रो का कल्चर लाया. ‘रिसाइकिल बिन’ घर की बजाय कंप्यूटर में ज्यादा अच्छा लगने लगा .मेरा घर जहाँ स्टील और कांच की बनी चीजें बहुतायत में थी वो धीरे –धीरे कम होती गयीं .जाहिर है मेरे मिडिल क्लास माता इतना नहीं पढ़े लिखे थे कि वो पर्यावरण की महत्ता को समझें बस वे सस्ता महंगा और टिकाऊ होने के नजरिये से चीजों को घर में जगह देते थे .हालाँकि हम भाई भी पढ़ लिख कर घर के खर्चे में हाथ बंटाने लगे.आमदनी तो बढ़ी पर घर में बेकार कपड़ों के झोले चादर के पावदान और पैंट काट कर नेकर बनाने का दौर नहीं लौटा . कांच की बोतलों की जगह प्लास्टिक की बोतलें आ गयीं और धीरे –धीरे हम प्लास्टिक मय होते चले गए.बोतल शीशी से लेकर पैकेट तक सब जगह प्लास्टिक जिसे न तो हम घर में रिसाइकिल कर सकते थे और न ही कबाड़ी उनकी ओर टक टकी लगाकर देखता था .किचन से लेकर बाथ रूम तक हर जगह एक ही चीज दिखने लग गयी वो थी .प्लास्टिक.बात चाहे किचन में रखे जार की हो या कैरी बैग की सब जगह प्लास्टिक ही प्लास्टिक.ये चीजें जब अपना जीवन चक्र पूरा कर लेती तो कूड़े के रूप में हमारे घर से निकल कर कूड़ेदान और रोड तक हर जगह दिखने लग गयीं.न तो इनकी कोई रीसेल वैल्यू थी और न ही इनके कबाड़ को नियंत्रित करने की स्वचालित व्यवस्था.हम समय की कमी का बहाना बना कर प्रकृति से कटे और उसकी कीमत हम न जाने कितने रोगों के रोगी बन कर दिखा रहे हैं और प्रकृति को जो चोटिल किया है उसको ठीक करने में न जाने कितना वक्त लगे.शायद यही विकास है .
प्रभात खबर में दिनांक 31/12/2019 को प्रकाशित
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