Thursday, December 8, 2011

Winds of Change


सर्दी में भी गर्मी का एहसास कैसे होता है अरे ये कोई लाख टके का सवाल नहीं है बस गर्म कपडे पहन कर आग जलाकर है ना पर माहौल को ठंडा होने से कैसे बचाया जाए यूँ तो ठण्ड का मौसम बड़ा अच्छा तभी तक होता है जब आपके पास ठण्ड से बचाव का तरीका हो ,नहीं तो क्या होगा आपको पता है इसीलिए तो देखिये ना ठण्ड में गर्मी की डिमांड बढ़ जाती है गर्म पराठे ,गर्म चाय और ना जाने क्या क्या .अब देखिये ना भले ही ठण्ड का मौसम शुरू हो गया है पर माहौल में अभी काफी गर्मी है. सर्दियों में माहौल  को गर्मी देने की ज़िम्मेदारी मानो डर्टी पिक्चर को दे दी गई है.डर्टी पिक्चर की सफलता ने बताया कि हमारा समाज बदल रहा है. भारतीय फ़िल्मों में सेक्शुएलिटी के प्रदर्शन और महिलाओं के चित्रण को लेकर हमेशा से ग़लत-सही की बहस होती रही है और इस फिल्म के बाद ये बहस और आगे बढ़ी है और फिल्म के संवादों में सत्तर के दशक की फिल्मों वाला पैनापन है जो फेसबुक की वाल पर बहुत से यांगिस्तानियों का स्टेटस अपडेट बना है:  “दिल भले लेफ्ट में होता है, लेकिन उसके फैसले हमेशा राइट होते हैं” . यह ऐसी सशक्त फिल्म है जो पूरी होने के लिए हीरो पर निर्भर नहीं करती. पूरी फिल्म के केंद्र में एक स्त्री है.थोडा सा पीछे ले चलते हैं  आपको  इस तरह के विषयों पर फ़िल्में पहले बनी हैं पर लोगों की महिलाओं से यही अपेक्षा रहती है कि वे पुरुषों की बराबरी ना करें सेक्स सिम्बल के साथ एक नैतिकता का टैग जोड़ दिया जाता था यानि जो सेक्सी है वो मोरालटी के बैकग्राउंड में नहीं आ सकता .सत्तर के दशक में “चेतना” नाम की  फिल्म ने भी ऐसी ही सुर्खियाँ बटोरी थी जिसमे रेहाना सुलतान ने एक सिगरेट ,शराब पीने वाली एक वेश्या का किरदार निभाया था पर इस फिल्म में ऐसा बोल्ड रोल करने के बाद दर्शक उन्हें एक अभिनेत्री के रूप में स्वीकार नहीं कर सके पर डर्टी पिक्चर इस मायने अलग है . डर्टी पिक्चर की नायिका विद्या बालन आज सत्तर के दशक के सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं .जाहिर है समाज बदला है लोग बदले हैं और फ़िल्में भी .हम इस बहस में नहीं पड़ते कि ये बदलाव कैसा है क्योंकि हम जिस सोसायटी में रहते हैं वहां बदलाव का स्वागत हमेशा विरोध के साथ किया जाता है पर बाद में सभी उस बदलाव में शामिल हो जाते हैं इसीलिये तो “बुम्बाट” पूरा देश गा रहा है तो आज की जेनरेशन का मंत्र खुश रहो ना यार जो अच्छा लगे बस उसका हिस्सा बन जाओ क्योंकि जिंदगी जब एक बार मिली है तो उसके लिए दो बार क्या सोचना क्योंकि आज का ये दिन कल बन जाएगा कल तो पीछे मुड के क्या देखना. डर्टी पिक्चर इस मायने में साठ और सत्तर के दशक की उन फिल्मों से अलग जहाँ अभिनेत्रियों और वैम्प के अलग अलग खांचे थे और उसमे मिलन की कोई सम्भावना नहीं थी इसको कुछ यूँ समझिए उस वक्त की अभिनेत्रियों को रोल एक निश्चित में दायरे में ही मिलते थे वे सिर्फ समाज के आदर्श रूप की महिलाओं को चित्रित करते थे वैम्प का काम बुरी महिलाओं को दिखाना है पर ये तो आप सभी जानते ही ना Life isn't black and white. It's a million shades of grey .अच्छा बुरा भी हो सकता है और बुरा अच्छा भी वैसे भी हमारा नजरिया ही चीज़ों को अच्छा या बुरा बनाता है इसलिए तो माना जाता है वल्गैरिटी तो देखने वालों की आँखों में होती है.मौसम भले ही ठंडा हो पर अपने आस पास रिश्तों की, सोच की गर्माहट को बनाये रखिये नयी चीज़ों का स्वागत करें . नई आकाँक्षाओं को पूरा करने के लिए नए संघर्ष ज़रूरी हैं. व्यावहारिकता का तक़ाज़ा भी यही  है कि अतीतजीवी बनकर ना रहा जाए .  वैसे भी नया साल आने को है तो चलते चलते डर्टी पिक्चर का ये डायलोग “जिंदगी जब मायूस होती है, तभी महसूस होती है” मतलब मायूसी भले ही आपको डर्टी लगे पर जिंदगी को करीब से देखने लिए थोड़ी बहुत मायूसी बुरी भी तो नहीं क्योंकि जिंदगी जब सिखाती है तो अच्छा ही सिखाती है.
08/12/11 को आई नेक्स्ट में प्रकाशित 

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