Wednesday, June 18, 2014

पुलिस में जातिगत दबदबा


समाजवादी पार्टी की वर्तमान सरकार  इस धारणा को पुष्ट ही करती है कि जब-जब सपा सरकार में रही प्रदेश में अपराधियों और दबंगों के हौंसले ऊँचे रहते हैं.अखिलेश सरकार चौतरफा आलोचना का शिकार हो रही है पर कानून व्यवस्था के मामले में सरकार की विफलता एक पूरी प्रक्रिया का परिणाम है. इस सरकार का भविष्य तो उसी दिन तय हो गया था जब शपथ ग्रहण के दौरान समाजवादी कार्यकर्ताओं ने हंगामा किया था, फिर झांसी में पत्रकारों की पिटाई का प्रकरण हो या कुंडा में सीओ हत्याकांड घटनाओं की एक लंबी फेहरिस्त है.मुज्जफरनगर के दंगों का दर्द अभी कम नहीं हुआ था कि बदायूं का लौमहर्षक बलात्कार हत्या कांड  और फिर दो पुलिस कर्मियों की हत्या.घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं.सरकार आंकड़ों का हवाला देकर कह रही है कि अन्य प्रदेशों के मुकाबले उत्तर प्रदेश में हालात बेहतर हैं पर कानून व्यवस्था के मामले में मुख्यतः लोगों का भरोसा ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. जिसमें उन्हें लगता है कि सब ठीक है पर उत्तरप्रदेश में लोगों का यह मानना है कि सरकार अपराध पर लगाम नहीं कस पा रही है.आंकड़े इस तथ्य की पुष्टि करते हैं नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार उत्तर प्रदेश में हिंसक अपराधों में लगातार वृद्धि हुई है साल 2012 में कुल 33,824 घटनाएं दर्ज की गयीं जिनमें दो हजार बलात्कार के मामले और 4,966 हत्या की घटनाएँ थी.केन्द्रीय गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में साल 2012 में दंगों से जुड़ी 118 घटनाएं हुईं जो साल  2013 में बढ़कर  247 हो गयीं जिनमें क्रमशः 39 व 77 लोग मारे गए.अपराध पर नकेल न लग पाने का एक और कारण वोटबैंक पॉलीटिक्स भी है.प्रदेश के 1560 पुलिस थानों में से 800 थानों के प्रभारी एक जाति विशेष से सम्बन्ध रखने वाले अधिकारी हैं.सत्ता में आने के तुरंत बाद अखिलेश सरकार ने अपने गृह जिले और पड़ोसी जिले में पुलिस वालों की तैनाती न होने देने के नियम को बदल दिया जिससे पुलिस में जातियों का दबदबा बढ़ा और पूर्वाग्रह युक्त निर्णय लिए गए.बदायूं कांड इसकी एक मिसाल है जिसमें तीनो आरोपी एक जाति विशेष के हैं और स्थानीय पुलिस वाले भी उसी जाति विशेष से सम्बंधित हैं जिन पर यह आरोप लगा है कि उन्होंने आरोपियों को बचाने की कोशिश की.सरकार ने सात जून को अपना फैसला पलटते हुए पुरानी व्यवस्था को बहाल किया है पर तब तक काफी देर हो चुकी थी.सरकार दंगों और अपराध के वक्त त्वरित कार्यवाही नहीं कर पायी.जिससे यह सन्देश गया कि मुख्यमंत्री खुद निर्णय ले पाने में सक्षम नहीं है.यह धारणा इस लिए भी पुख्ता होती है कि बदायूं कांड के सामने आने के 6 दिन बाद प्रमुख सचिव (गृह) अनिल कुमार गुप्ता का ट्रांसफर किया गया. सरकार में  संगठित अपराध और आतंक से निपटने के लिए पुलिस की दो शाखाएं एस टी एफ (स्पेशल टास्क फ़ोर्स )और ए टी एस (एंटी टेरेरिज्म स्क्वैड ) एक दम निष्क्रिय हो गया है.एस टी एफ पिछले दो वर्षों में दस से भी कम ऑपरेशन को अंजाम दे पाया जिससे संगठित रूप से अपराध करने वालों के हौसले बुलंद हुए हैं और सरकार का जलाल कम हुआ है.
राजस्थान पत्रिका में 18/06/14 को प्रकाशित 


3 comments:

विकास सिंह said...

ये समाजवादी पार्टी का समाजवाद है॥
"अंधेर नगरी अनबूझ राजा"

Unknown said...

MUJHE TO YE SAMAJH NI AATA KI INDIA KI RAJYA SARKARE KB JATIVAAD SE UPR UTH K SOCHENGI
KB YHA K LOG EK MAHFOOZ HWA ME SAANS LENGE OR YE SATTADHARI LOG KB APNI ZIMMEDARIYO KO
SMJHNGE OR PUBLIC WELFARE K LIYE KAM KRNGE.

सूरज मीडिया said...

मौजूदा सरकार में सबसे बड़ी कमी यह है की इस सरकार में अगर कोई पॉलिटिशियन अच्छा काम करने जा रहा होता है। तो दूसरा नेता उसको हाथ पकड़ कर कहता है की ये मत कर इसमें अपना कोई फायदा नहीं । हमारे मुख्यमंत्री जी तो कभी अपने पिता जी, तो कभी चाचा जी से परेशान रहते है। तो राज्य का विकास हो तो कहाँ से हो। एक जातिगत विकास से क्या राज्य का विकास हो पायेगा ?

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