पिछले दिनों मुझे कई यात्राएं ट्रेन से करनी पडीं,ट्रेन में समय काटने के लिए मैं भी आपकी तरह कुछ किताबें लेकर बैठा था. मैं वी॰ एस॰ नाएपॉल की सन 1964 में प्रकाशित ‘एन एरिया ऑफ डार्कनेस’ पढ़ रहा था जिसके कुछ अंश आपके साथ बांटता हूँ “भारतीय हर जगह मल त्याग करते हैं। ज़्यादातर वे रेल्वे की पटरियों को इस कार्य के लिए इस्तेमाल करते हैं। हालांकि वे समुद्र-तटों, पहाड़ों, नदी के किनारों और सड़क को भी इस कार्य के लिए इस्तेमाल करते हैं और कभी भी आड़ न होने की परवाह नहीं करते हैं.जो नायपाल साहब कई बरस पहले लिख चुके हैं उस वाकये से हम सब आज भी रोज दो चार होते हैं.मैंने जब सुबह ट्रेन से बाहर नजर डाली है लोगों को पटरियों के किनारे फारिग होते देखा है.कैसा लगता है तब शर्म आती है न कि आखिर हम कहाँ रह रहे हैं और लोग ऐसा करते क्यूँ है.तो ऐसी ही एक यात्रा में इस लेख का खाका खिंच गया,बात भले ही गंदी हो पर करनी तो पड़ेगी तो खुले में मल त्याग करने की समस्या को सिर्फ शौचालयों की कमी से जोड़कर देखा जाए या इसके कुछ और भी कारण हैं.19 नवम्बर 2013 को विश्व टॉइलेट दिवस के अवसर यूनिसेफ़ के हवाले से प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का पचास प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा आज भी खुले में मल त्याग करता है.अपर्याप्त सैनीटेशन सुविधाओं की वजह से देश को हर साल लगभग 2.4 ट्रिलियन रुपयों का नुकसान उठाना पड़ रहा है.
यह भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत से भी अधिक है. ऐसा नहीं है कि केवल अपर्याप्त सैनीटेशन सुविधाओं जैसे की शौचालयों की कमी की वजह से ही लोग खुले में मल त्याग करते हैं। इसके पीछे कई सामाजिक और धार्मिक कारक भी हैं। रिसर्च इंस्टीटयूट फॉर कॉम्पसिनेट इकोनोमिक्स द्वारा कराये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग उत्तर भारत के बीस प्रतिशत से भी अधिक वे लोग जो बारहवीं कक्षा तक पढे हैं और जिनके घरों में शौचालय भी हैं वे भी खुले में ही मल त्याग के लिए जाते हैं क्योंकि उन्हें बचपन से ही इसकी आदत डाली गयी है. भारतीय गाँवों में शौचालयों को अशुद्ध समझा जाता है इसलिए भी लोग खुले में ही मल त्याग के लिए जाते हैं.इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि घर में शौचालय बनवाने से घर का वातावरण अशुद्ध एवं अपवित्र हो जाता है.
अशुद्ही और अपवित्रता का यह अवधारणा भी लोगों के खुले में मल त्याग के लिए जाने का एक प्रमुख कारण है। खुले में मल त्याग करना जैसे भारतीय संस्कृति का एक हिस्सा बन गया है. इसे सिर्फ गंदगी-सफाई की शिक्षा के माध्यम से नहीं बदला जा सकता है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.1प्रतिशत ही सैनीटेशन पर खर्च करता है। यह रकम पाकिस्तान और बांग्लादेश के द्वारा इसी मद में खर्ची जाने वाली रकम से भी कम है. ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर भारत में लोग सरकारी शौचालयों में भयंकर गंदगी की वजह से भी उनका इस्तेमाल करना नहीं चाहते हैं। भारत सरकार शौचालय बनवाने पर तो अच्छा-खासा खर्चा कर रही है पर लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए चलाये जाने वाले सूचना एवं शिक्षा अभियानों पर यह खर्च न के बराबर ही है। वित्तीय वर्ष 2013-14 के दौरान जहां भारत में शौचालयों के निर्माण पर 2500 करोड़ से भी अधिक रकम खर्च की गयी वहीं लोगों में इस संदर्भ में जागरूकता पैदा करने वाले कार्यक्रमों पर केवल 209 करोड़ ही खर्चे गए. अतः आवश्यकता इस बात की है की शौचालय निर्माण के साथ ही समाज में व्यावहारिक परिवर्तन लाने पर भी ज़ोर दिया जाये.सरकार तो अपना काम करेगी पर इम्पोर्टेंट है हमारे आपके जैसे लोग इस इस्स्यू को सीरीयसली लें न कि चेहरे पर रुमाल रख कर मुंह फेर लें.लोगों की सायकी तो बदलनी पड़ेगी और ये काम एक झटके में नहीं होगा.स्टड और डूड सिर्फ अच्छी पर्सनाल्टी रखकर नहीं बना जाता बल्कि उसके लिए एक अच्छी सोच भी चाहिए होती है.
आई नेक्स्ट में 30/09/14 को प्रकाशित