आप अपने मोबाइल और लैपटॉप में क्या रखते हैं , ये जानने का अधिकार पहले केवल आपको था लेकिन अब ये केवल आपका अधिकार नहीं रह गया है. विगत बीस दिसंबर को गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर दिल्ली पुलिस कमिश्नर, सीबीडीटी, डीआरआई, ईडी, रॉ, एनआई जैसी 10 एजेंसियों को देश में चलने वाले सभी कंप्यूटर की निगरानी करने का अधिकार दे दिया है. कई सवाल आम लोगों के मन में सरकार के उस आदेश के बाद उठ रहे हैं, जिसमें उसने देश की सुरक्षा और ख़ुफिया एजेंसियों को सभी के कंप्यूटर में मौजूद डेटा पर नज़र रखने, उसे सिंक्रोनाइज (प्राप्त) और उसकी जांच करने के अधिकार दिए हैं.सरकार के इस आदेश के बाद काफी विवाद हो रहा है. इस मामले में विपक्षी दलों द्वारा विरोध दर्ज कराने पर राज्यसभा भी स्थगित कर दी गई. सोशल मीडिया पर भी सरकार के इस फ़ैसले का काफी विरोध हो रहा है. लोगों का मानना है कि यह उनकी निजता के अधिकार में हस्तक्षेप है. तकनीक के जरिए आपराधिक गतिविधियों को अंजाम नहीं दिया जा सके, इसको ध्यान में रखते हुए आज से करीब सौ साल पहले इंडियन टेलिग्राफ एक्ट बनाया गया था.जिसके मूल में अंग्रेजों की यह धारणा थी कि इस देश पर उनके शासन को किसी तरह की चुनौती न मिले .जिसके तहत सुरक्षा एजेंसियां उस समय टेलिफोन पर की गई बातचीत को टैप करती थी.संदिग्ध लोगों की बातचीत में अक्सर सुरक्षा एजेंसियों की निगरानी होती थी.उसके बाद जब तकनीक ने प्रगति की कंप्यूटर और मोबाईल का चलन बढ़ा और इसके जरिए अपराधिक गतिविधियों को अंजाम दिया जाने लगा, तो साल 2000 में भारतीय संसद ने आईटी कानून बनाया. देशहित राजनीतिक व आम चर्चाओं का मुद्दा हमेशा से रहा है. मौजूदा हालात में देशहित अब भावनात्मक मुद्दा भी बन गया है. और फिलहाल ताज़ा मसला देशहित का संविधान के मौलिक अधिकार से टकराव का है. वहीं सरकार का कहना है कि ये अधिकार एजेंसियों को पहले से ही प्राप्त थे. उसने सिर्फ़ इसे दोबारा जारी किया है.इन अधिकारों के तहत ये जाँच एजेंसियां देश भर में किसी भी व्यक्ति का भी डाटा खंगाल सकती हैं. चाहे वो आपका लैपटॉप हो, या मोबाइल या फिर किसी भी प्रकार का इलेक्ट्रॉनिक गैजेट. इससे पहले जाँच एजेंसियां केवल किसी के फ़ोन कॉल्स और ई-मेल का ब्योरा ही जुटा सकती थीं वो भी गृह मंत्रालय के आदेश के बाद . और यदि कोई भी नागरिक जाँच एजेंसियों को ऐसा करने से रोकता है तो उसे जेल भेजा जा सकता है साथ ही उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है. इन दस जाँच एजेंसियों में मुख्य रूप से सीबीआई , नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी, इंटेलिजेंस ब्यूरो और दिल्ली पुलिस शामिल हैं . इस आदेश के बाद से ही देश भर में चर्चाओं का दौर जारी है. विपक्ष का कहना है कि ये पूरी तरह से संविधान में प्रत्येक नागरिक को दिए गए निजता के अधिकार का पूरी तरह से हनन है. विप्लाश का आरोप है कि सरकार हाल ही में हुए चुनावों में मिली हार के बाद प्रत्येक नागरिक का ब्यौरा अपने फायदे के लिए जुटाना चाहती है. देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस इस आदेश के पुरज़ोर विरोध में है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का कहना है कि मोदी सरकार देश को “सर्विलांस देश” बनाना चाहती है. उल्लेखनीय ये है कि 2009 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने भी इसी तरह का एक अध्यादेश जारी किया था जिसमें जाँच एजेंसियों के अधिकारों को बढ़ाने की बात की गयी थी. सरकार ने स्पष्ट किया है कि कि जिन व्यक्तियों से देश की सुरक्षा, समग्रता को खतरा होगा केवल उन्हीं के डाटा को खंगाला जायेगा. निर्दोष नागरिकों को इससे कोई परेशानी नहीं होगी. अब यदि इस आदेश की सामान्य रूप से सामान्य नागरिक के तौर पर विवेचना की जाये तो एक तरफ जहाँ ये आदेश संविधान में मिले निजता के अधिकार को चुनौती देता प्रतीत होता है वहीँ एक और सवाल यहाँ ये उठता है कि जिनसे देश हित को खतरा है उन्हें सरकार कैसे चिन्हित करेगी? यदि आम नागरिक के तौर पर सोचा जाये तो सभी के डाटा खंगालने के बाद ही ये पता चल पायेगा कि कौन देशहित के खिलाफ़ कार्य कर रहा है. इस प्रकार सीधे-सीधे तौर पर हर आम नागरिक इसके दायरे में आ ही जाता है.जिससे निजता का अधिकार प्रभावित होता है .वैसेआईटी एक्ट के सेक्शन 69 के तहत अगर कोई भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ग़लत इस्तेमाल करता है और वो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए चुनौती है तो अधिकार प्राप्त एजेंसियां कार्रवाई कर सकती है.तथ्य यह भी है कि आईटी एक्ट के सेक्शन 69 के तहत कौन सी एजेंसियां जांच करेंगी, इसके आदेश कब दिए जा सकते हैं, ये अधिकार केस के आधार पर दिए जाते हैं और इसका फैसला जांच एजेंसियां करती हैं . सरकार ऐसे अधिकार सामान्य तौर पर नहीं दे सकती है. इस कानून के सेक्शन 69 में इस बात का जिक्र है कि अगर कोई राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती पेश कर रहा है और देश की अखंडता के ख़िलाफ़ काम कर रहा है तो सक्षम एजेंसियां उनके कंप्यूटर और डेटा की निगरानी कर सकती हैं.इस कानून के मुताबिक़ निगरानी के अधिकार किन एजेंसियों को दिए जाएंगे, यह सरकार तय करेगी.
वहीं सब-सेक्शन दो में अगर कोई अधिकार प्राप्त एजेंसी किसी व्यक्ति को सुरक्षा से जुड़े किसी मामले में बुलाया जाता है तो उसे एजेंसियों के साथ सहयोग करना होगा और सारी जानकारियां उपलब्ध करानी होंगी.इसी कानून में यह भी स्पष्ट किया गया है कि अगर बुलाया गया व्यक्ति एजेंसियों की मदद नहीं करता है तो वो सजा का अधिकारी होगा. जिसमें सात साल तक की जेल की सजा का भी प्रावधान है.
फिलहाल देश में देशहित बनाम मौलिक अधिकारों पर बहस जारी है. देशहित में कितने मौलिक अधिकार बचे रह जाते हैं या मौलिक अधिकारों में कितना देशहित बचा रह जाता है ये देखने वाली बात होगी.
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 24/12/2018 को प्रकाशित