Thursday, May 30, 2019

विज्ञापनों में पापा

आजकल स्मार्ट होने का जमाना है वो चाहे फोन हो या टीवी या फ्रिज सब स्मार्ट होने चाहिए. शरीर और चीजों को  तो स्मार्ट बनाया जा सकता है और बनाया जा भी रहा है लेकिन जब बात महिलाओं की आती है तब हमें  एक बार सोचना पड़ता है कि क्या हम वाकई एक स्मार्ट एज में जी रहे हैं.तकनीक जितनी तेजी से बदल रही है अगर उतनी तेजी से हमारी मानसिकता बदलती तो दुनिया ज्यादा खुबसूरत दिखती.
एक छोटा सा उदाहरण  है मेरी तरह आपके पास बहुत से प्रमोशनल एस एम् एस आते होंगे.मेरे पास अक्सर एक एस एम् एस आता है. मेरा नाम ए बी सी (लडकी का नाम) अकेले हो,बोर हो रहे हो तो मुझे इस नंबर पर फोन करो.हम इस एस  एम् एस को पढ़कर बस डीलीट कर देते हैं.मेरे दिमाग में ऐसे मेसेज को देखकर ख्याल आया कि आखिर इस तरह के विज्ञापन संदेशों की जरुरत क्यों है.मजेदार बात है कि ऐसे एस एम् एस लड़कियों को भी भेजे जाते हैं कायदे से तो उनके पास लड़कों के नाम से एस एम् एस भेजे जाने चाहिए और दूसरी बात क्या बातें करने के लिए लड़कियां ही फ्री बैठी रहती हैं.ये छोटा सा एस एम् एस हमारे समाज के लोगों के जेहन में क्या चल रहा है ,उसकी बानगी भर है क्योंकि ऐसे एस एम् एस विज्ञापन हवा में नहीं बनते कहीं न कहीं समाज में एक सोच है कि लड़कियों से रोमांटिक बात करना पुरुषों का जन्मसिद्ध अधिकार है.पर यही हरकत अगर कोई लडकी करना शुरू कर दे तो क्या होता है उसको बताने की जरुरत नहीं.लड़कियों को जितनी तेजी से हमारा समाज कैरक्टर सर्टिफिकेट देता है,उसकी आधी तेजी लड़कों के लिए आ जाए तो देश की लड़कियों का जीवन थोडा बेहतर हो जाए.
अच्छा आप मेरी बात यूँ न मान लीजिये चलिए जरा याद कीजिये अपने मोहल्लों के चौराहों से लेकर दुकानों तक सुबह शाम लड़के झुण्ड लगाये आती जाती लड़कियों को घूरते ,फब्तियां कसते  अपने स्मार्ट फोन के साथ  जीवन का आनंद उठाते दिखते हैं कि नहीं दिखते.इससे एक बात तो साबित होती है कि हमारे समाज में लड़कियां नहीं लड़के ज्यादा फ्री रहते हैं ,न तो  उन्हें घर के सामान्य काम काज करने होते हैं न ही उनके किसी काम पर समाज से तुरंत कैरक्टर सर्टिफिकेट मिलने का डर होता है. अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए लड़कियों को अकेले छोड़ दिया जाता है.यानि विज्ञापन भी जेंडर स्टीरियो टाइपिंग का शिकार हैं क्योंकि उनको बनाने वाले भी इसी समाज के लोग हैं और उनका पालन पोषण इसी तरह की चीजों को देखते हुआ है और उनकी मानसिकता भी वैसी बन गयी है.एस एम् एस विज्ञापन से आगे टीवी विज्ञापनों पर चलें तो वहां भी कहानी कुछ ऐसी ही है जहाँ लैंगिक असमानता साफ़ साफ़ दिखती है.
आप यूँ भी समझ सकते हैं कि मैं अकेली हूँ बोर हो रही हूँ जैसे एस एम् एस विज्ञापनों की सोच को टेलीविजन पर असीमित विस्तार मिल जाता है,जहाँ किसी भी कमोडिटी को महिलाओं के साथ दिखाया जाना जरुरी है.आप भी सोच रहे होंगे कि बात तो स्मार्ट वाच और गैजेट से शुरू हुई थी पर मामला इतना गंभीर होगा आपने सोचा न था.जी हैं स्मार्ट टेक्नोलॉजी  स्मार्ट सोच के साथ अच्छी लगती है नहीं तो ये बन्दर के हाथ में उस्तुरा’ जैसी बात हो जायेगी. जरा सोचिये कैसा हो जब किसी  सूप के ऐड मे छोटी छोटी भूख पापा शांत कराये और मेनी पोको पेंट्स में बच्चे  को पापा अच्छी नींद सुलायें.ह्रदय  को स्वस्थ रखने वाले विज्ञापन में पत्नी की सेहत का ख्याल पति भी करे.वाशिंग पाउडर से लेकर टॉयलेट सफाई  के विज्ञापन में महिलाओं के साथ साथ पुरुष भी कदम से कदम मिलाकर चलते दिखें.
प्रभात खबर में 30/05/2019 को प्रकाशित 

Monday, May 27, 2019

सोशल मीडिया बना एक अहम् किरदार


लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजे आ चुके हैं और एक बार फिर भाजपा सरकार नरेन्द्र मोदी के नेतृतव में देश की बागडोर सम्हालने जा रही है |इसी के साथ दो महीने से चल रहा ये लोकतंत्र का त्यौहार अपनी चरम परिणिति को प्राप्त हुआ पर ये लोकसभा चुनाव कई मायने में अनूठा रहा |वैसे तो देश में इंटरनेट और तकनीक का जादू पहले से ही सर चढ़कर बोल रहा था पर इस बार देश के चुनावों में उसकी अहम भूमिका सामने आई जिसकी शुरुआत  2014 के लोकसभा चुनाव वक्त हो गयी थी | जब पहली बार प्रचार के लिए सोशल नेटवर्किंग साईट्स का इस्तेमाल किया गया और चुनाव में “नेटीजन“ ने अहम् भूमिका निभायी |राजनैतिक पार्टियों ने अपने मतदाताओं को लुभाने के लिए फेसबुक पर वादे करने के साथ-साथ व्हाट्सएप का भी सहारा लेना शुरू किया था |देश के हर गांव में बिजलीसड़कअस्पताल या स्कूल जैसी मूलभूत सुविधाएं भले ही न  हो पर इंटरनेट और  स्मार्टफोन जरूर पहुंच गया है| व्हाट्सऐप लगभग हर फोन में मौजूद  है|इस बार 8.4 करोड़ नए मतदाता  जुड़े हैंजिनमें करीब 1.5 करोड़ 18-19 साल के युवा  हैं. सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा इस्तेमाल युवा  ही कर रहे  हैं. इस बार चुनाव में सोशल मीडिया की भूमिका पिछले  चुनाव के  मुकाबले कहीं ज्यादा रही है .तथ्य यह भी है कि देश ने ई वी एम् का प्रयोग करके देश के लोकतंत्र को ई लोकतंत्र में पहले ही बदलना शुरू कर दिया था पहली बार नवम्बर 1998 में आयोजित 16 विधान सभाओं के साधारण निर्वाचनों में इस्तेमाल किया गया. इन 16 विधान सभा निर्वाचन-क्षेत्रों में से मध्य प्रदेश की 5राजस्थान की 5राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रदिल्ली की 6 सीट शामिल थीं. ईवीएम के इतिहास में साल 2004 क्रांतिकारी साल रहा है। देश भर के सभी मतदान केंद्रों पर 17.5 लाख ईवीएम का इस्तेमाल हुआ। उसके बाद से सारे चुनाव ईवीएम से होने लगे। आंकड़ों के मुताबिक भारत में औसतन हर नागरिक हफ्ते में 17 घंटे सोशल मीडिया पर बिताता है। आलम ये है कि सोशल मीडिया इस्तेमाल के मामले में भारतीयों ने चीन और अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है। भारत में कुल56 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता  हैं। इनमें युवाओं की संख्या  सबसे ज्यादा है और उन युवाओं में ज्यादातर पहली बार वोट करने वाले नागरिक भी रहे हैं।इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए देश में राजनीतिक दलों ने इस साल फरवरी से अब तक फेसबुक और गूगल जैसे  डिजिटल मंचों और सोशल नेटवर्किंग साईट्स  पर प्रचार के मद में 53 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए. इसमें सत्तारूढ़ भाजपा की हिस्सेदारी सर्वाधिक रही |फेसबुक की विज्ञापन से जुड़ी रिपोर्ट के मुताबिकइस साल फरवरी की शुरुआत से 15 मई तक उसके प्लेटफॉर्म पर 1.21 लाख राजनीतिक विज्ञापनों का प्रसारण हुआ. इन विज्ञापनों पर राजनीतिक दलों ने 26.5 करोड़ रुपये खर्च किए गए |इसी तरह गूगलयूट्यूब और अन्य  कंपनियों पर 19 फरवरी से अब तक14,837 विज्ञापनों पर 27.36 करोड़ रुपये खर्च किए|भाजपा ने फेसबुक पर 2,500 से अधिक विज्ञापनों पर 4.23 करोड़ रुपये खर्च किए. ‘माय फर्स्ट वोट फॉर मोदी’, ‘भारत के मन की बात’ और ‘नेशन विद नमो’ जैसे पेजों के जरिये सोशल नेटवर्किंग साइट पर चार करोड़ से अधिक खर्च किए गए|गूगल के प्लेटफॉर्म पर भाजपा ने 17 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए. कांग्रेस ने फेसबुक पर 3,686 विज्ञापनों पर 1.46 करोड़ रुपये खर्च किएकांग्रेस ने गूगल पर 425 विज्ञापनों पर 2.71करोड़ रुपये खर्च किए|फेसबुक के आंकड़ों के मुताबिकतृणमूल कांग्रेस ने उसके प्लेटफॉर्म पर विज्ञापनों पर 29.28 लाख रुपये खर्च किए|आम आदमी पार्टी ने फेसबुक पर 176 विज्ञापन चलाए और इसके लिए उसने 13.62 लाख रुपये का भुगतान किया|
2019 में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कंटेंट को वायरल करने या ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए करीब 1,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है| इसमें राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की ओर से सरकारी खर्च पर किया गया विज्ञापन पर खर्च शामिल नहीं है |सोशल मीडिया के बाजार में अभी भी फेसबुक के पास सबसे बड़ी हिस्सेदारी है. अस्सी प्रतिशत खर्च फेसबुकदस प्रतिशत  गूगल और बाकी दस प्रतिशत  में अन्य डिजीटल प्लेटफॉर्म शामिल होंगे. सभी राजनैतिक दलों  की ओर से चुनाव प्रचार पर कुल 5,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अंदाजा  है| जिसमें डिजीटल   मीडिया पर करीब बीस प्रतिशत  खर्च होने जा रहा है |विज्ञापन के मामले में फेसबुक अन्य कंपनियों की तुलना में इसलिए काफी आगे है क्योंकि  2014 में इंटरनेट तक कुल 25 करोड़ लोगों की ही पहुंच थीजबकि इस समय इसके उपभोक्ताओं की संख्या  करीब 56 करोड़ है| गूगल की ऐड ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट के मुताबिक, (इस साल 19 फरवरी से) 11 अप्रैल तक पार्टी तीन निजी कंपनियों के जरिए करीब करोड़ रु. से ज्यादा खर्च कर चुकी है. वहींभाजपा 1.2 करोड़ रु. खर्च करके दूसरे स्थान पर है. फेसबुक पर खर्च करने के मामले में भाजपा पहले पायदान पर है जबकि दूसरे स्थान पर जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाइएसआर कांग्रेस है|तेजी से बदलते ई लोकतंत्र को लेकर कुछ चिंताएं भी उभरी हैं जिसमें सोशल मीडिया का गलत इस्तेमाल ,फेक न्यूजभड़काऊ सामग्री और चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश शामिल हैं |
राजनैतिक  दल अपने आधिकारिक एकाउंट और पेज को साफ-सुधरा रखते हैं पर समर्थकों के पेज को पैसा देकर प्रोपगैंडा और फेक न्यूज चलाते हैं|आधिकारिक पेज न होने के कारण न तो उन पर होने वाला खर्च किसी दल या प्रत्याशी के आधिकारिक खाते में जुड़ता है और न ही इनके ब्लॉक या बंद होने से उन पर कोई सवाल उठते  हैं|फेक न्यूज प्रोपगैंडा फैलाने के लिए कई  निजी कंपनियों की भी मदद ली जाती है जो बॉट और फेक अकाउंट के जरिए कंटेंट को वायरल करते हैं. इन  डिजीटल प्लेटफॉर्म ने अपनी तरफ से सोशल मीडिया को साफ़ सुथरा रखने के लिए  कई कदम उठायें है  पर ऐसा कोई ठोस तंत्र स्थापित नहीं हो सका है जो निश्चित कर सके कि सोशल मीडिया पर फेक कंटेट प्रसारित नहीं होगा और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इस्तेमाल करने वाले उपभोक्ताओं का डाटा  चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल नहीं होगा|
भारतीय राजनीति में सिर्फ चुनाव प्रचार के तरीके बदलते रहे हैं अखबार ,रेडिओ और टीवी के रास्ते शुरू हुआ यह सफर आज सोशल मीडिया तक पहुँच गया है |चेहरे बदले पार्टियाँ बदलीं पर राजनीति का चरित्र नहीं बदला |हर चुनाव के बाद मतदाता को अपने ठगे जाने का एहसास होता है और उसे  को बुरे और अधिक बुरे में चुनाव करना  पड़ता हैं और यही भारतीय लोकतंत्र की विडंबना  हैसोशल मीडिया पर किये जाने वाले वायदे क्या हकीकत का मुंह देखंगे | क्या लोकसभा  चुनाव इससे अलग  कुछ देश को दे पायेगा या हर बार की तरह पुरानी  कहानी फिर दोहराई जायेगी इसका इन्तजार देशवासियों को है |
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय  संस्करण में 27/05/2019 को प्रकाशित 

Saturday, May 25, 2019

मन का नया रोग डिजिटल ईगो


आज हम डिजिटल युग में जी रहे हैं जहां हमारी एक वर्चुअल पहचान है। सोशल मीडिया शुरू में सिर्फ लोगों से मिलने-जुलने का साधन भर था, पर धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता में हुई वृद्धि ने इसे एक अपरिहार्य आवश्यकता वाले माध्यम में बदल दिया। धीरे-धीरे यह हमारे जीवन को नियंत्रित करने लगा है। सिर्फ बाहरी ही नहीं, हमारा आंतरिक जीवन भी इसी से संचालित हो रहा है। मतलब इसने हमारे मानस को बदल दिया है। इससे हमारा चेतन और अचेतन दोनों प्रभावित हो रहे हैं। हमारी सोच, हमारा मनोविज्ञान भी इसी के अनुरूप ढल गया है। इसलिए आज वर्चुअल वर्ल्ड के संदर्भ में डिजिटल इगोऔर ई डाउटजैसी अवधारणाएं सामने आ रही हैं।कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के सहायक प्रफेसर जैकब वैन कॉक्सविज ने अपनी किताब डिजिटल इगो : वर्चुअल आइडेंटिटी के सामाजिक और कानूनी पहलूमें इसको पारिभाषित करते हुए लिखा है कि वर्चुअल पहचान किसी इंसान की महज ऑनलाइन पहचान नहीं है, बल्कि यह एक नई तकनीकी और सामाजिक घटना है।हमारी दुनिया में डिजिटल इगो पनपता कैसे है? दरअसल लोगों की वर्चुअल स्पेस पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। सोशल मीडिया के जरिए ही हम संबंधों को आंकने लगे हैं। जब हम किसी को या कोई हमें इस मंच पर नकारता है तो वहीं से इस डिजिटल इगो का जन्म होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि सोशल नेटवर्क पर अस्वीकृति आमने-सामने के टकराव से भी बदतर हो सकती है क्योंकि लोग आमतौर पर ऑनलाइन होने की तुलना में आमने-सामने होने पर ज्यादा विनम्र होते हैं।हम कोई स्टेटस किसी सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर डालते हैं और देखते हैं कि अचानक उसमें कुछ ऐसे लोग स्टेटस के सही मंतव्य को समझे बगैर टिप्पणियां करने लगते हैं, जिनसे हमारी किसी तरह की कोई जान-पहचान नहीं होती। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया होती है जिसमें इगो का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। यह स्थिति घातक भी हो सकती है।डिजिटल इगो को पहचान पाना आसान नहीं है। हम आसानी से नहीं समझ सकते कि इंटरनेट और सोशल मीडिया पर दिखने वाली अवहेलना क्या वास्तविक है, या इसके पीछे और कोई और वजह छिपी है? इसे हम यहां परत दर परत समझने की कोशिश करते हैं।मान लीजिए, मैंने अपने एक मित्र को फेसबुक पर मैसेज किया। मुझे दिख रहा है कि वो मैसेज देखा जा चुका है। लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं आ रहा है। तो मैं यह मान लेता हूं कि मेरा वह मित्र मुझे नजरंदाज कर रहा है। जबकि हकीकत में ऐसा नहीं भी हो सकता है। मुमकिन है कि उसके पास जवाब देने का वक्त न हो। या फिर उसका अकाउंट कोई और ऑपरेट कर रहा हो। बिना इन बिंदुओं पर विचार किए मेरा किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना अनुचित है।ऑनलाइन प्लैटफॉर्म पर हमारे चेहरे के भाव नहीं दिखते, आवाज का कोई लहजा नहीं होता। ऐसे में किसी किसी ई-मेल की गलत व्याख्या हो जाना स्वाभाविक है। इसलिए यहां किसी से भी जुड़ते समय शब्दों के चुनाव में और भाव-भंगिमाओं के संकेत देने में बहुत स्पष्ट रहना चाहिए। ई-डाउट की शुरुआत यहीं से होती है। यानी ऐसा शक जो हमारी वर्चुअल गतिविधियों से पैदा होता है और जिसका हमारे वास्तविक जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता।
यही चीज हमें मशीन से अलग करती है। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस की तकनीक पूरी तरह से मशीन पर निर्भर है। एक बार जो कमांड दे दिया गया, उसी के अनुरूप हर स्थिति की व्याख्या की जाएगी। अब जब यह दुनिया इसी तकनीक पर चलने वाली है तो समय आ गया है कि हम मानव व्यवहार की हर स्थिति की पुनर्व्याख्या करें।आर्टिफिशल इंटेलिजेंस हमें मानव स्वभाव का और गहराई से अध्ययन करने के लिए प्रेरित करती है। हमारा इगो डिजिटल युग को पसंद करता है क्योंकि यह व्यक्तिवाद को बढ़ावा देता है, जिसमें शामिल है- आई’, ‘मी’ और माई। सेलफोन का नाम क्या है- आई-फोनयानी सामूहिकता की कहीं कोई जगह नहीं है। शायद इसीलिए लोग ज्यादा से ज्यादा लाइक्स, शेयर और दोस्त वर्चुअल दुनिया में पाना चाहते हैं। यह एक और संकट को जन्म दे रहा है जिससे लोग अपने वर्तमान का लुत्फ न उठाकर अपने अतीत और भविष्य के बीच झूलते रहते हैं। अपनी पसंदीदा धुन के साथ हम मानसिक रूप से अपनी वर्तमान स्थिति को छोड़ सकते हैं और अपने अस्तित्व को अलग डिजिटल वास्तविकता में परिवर्तित कर सकते हैं।वैसे भी इगो के लिए वर्तमान के कोई मायने नहीं होते। डिजिटल इगो से ग्रस्त मन अतीत के लिए तरसता है, क्योंकि यह आपको परिभाषित करता है। ऐसे ही इगो अपनी किसी आपूर्ति के लिए भविष्य की तलाश में रहता है। कुल मिलाकर हमारे डिजिटल उपकरण वर्तमान से बचने का बहाना देते हैं।फेसबुक जैसी तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स की सफलता के पीछे हमारे दिमाग की यही प्रवृत्ति जिम्मेदार है। जब हम कहीं घूमने जाते हैं तो प्राकृतिक दृश्यों की सुंदरता निहारने के बजाय तस्वीरें खींचने-खिंचाने में ज्यादा मशगूल हो जाते हैं और अपने वर्तमान को पीछे छोड़कर भविष्य में उस फोटो के ऊपर आने वाले कमेंट्स और लाइक्स के बारे में सोचने लग जाते हैं।डिजिटल इगो जब हमारे रोजमर्रा का हिस्सा हो जाएगा तब हम पूरी तरह वर्चुअल हो चुके होंगे। स्मार्टफोन कल्चर आने से आज परिवार में संवाद बहुत कम हो रहा है। तकनीकी विकास से हम पूरी दुनिया से तो जुड़े हैं लेकिन पड़ोस की खबर नहीं रख रहे। हमारा सामाजिक दायरा तेजी से सिमट रहा है और आपसी संबंध जिस तेजी से बन रहे हैं उसी तेजी से टूट भी रहे हैं। हमारी पूरी दुनिया वर्चुअल होती जा रही है। ऐसे में हमें मानव स्वभाव का पूरा अध्ययन करके डिजिटल इगो का निवारण करना पड़ेगा ताकि डिजिटल संचार के सर्वोपरि हो जाने पर हम संदेशों की गलत व्याख्या करने से बच सकें।


 नवभारत टाईम्स में 25/05/19 को प्रकाशित 



Tuesday, May 14, 2019

बोर्ड के मार्क्स से नहीं होती हमारी पहचान


प्रिय प्रति,

तुम्हारा गुस्से भरा ई मेल मिला,जिसमें तुमने इस बात पर नाराजगी जताई कि जब सारे पास हुए बच्चों के पेरेंट्स अपने बच्चों के मार्क्स के साथ उनके फोटो सोशल मीडिया पर डाल कर  अपनी खुशी  जाहिर कर रहे हैं .मैंने इसलिए तुम्हारी फोटो सोशल मीडिया पर नहीं डाली क्योंकि तुम्हारे नब्बे परसेंट मार्क्स नहीं आये .सच कहूँ तो तुम्हारे जो अस्सी परसेंट मार्क्स आये हैं उसकी भी उम्मीद नहीं की थी .तुम जानते हो मैंने तुम्हें नम्बर गेम से हमेशा बचने की सलाह दी है मैं तुमसे हमेशा कहता था एक सम्मानजनक तरीके से पास हो जाओ  ,तुम्हें याद होगा नाईन्थ में तुम्हारे कितने खराब नम्बर आये थे और तुमने कभी रिपोर्ट कार्ड मुझे नहीं दिखाया .मुझे बस तुम्हारी मम्मी ने इतना बताया था कि बहुत ही खराब नम्बर हैं बताने लायक नहीं पर दसवीं में तुमने सबकी बोलती बंद कर दी .बेटे मेरे लिए पढ़ाई के एक्जाम में पास होना उतना मायने नहीं रहता जितना जिन्दगी के इम्तिहान में पास होना .चूँकि अब तुम बड़े हो गए हो तो सोचा अपनी लाईफ के कुछ एक्सपीरियंस शेयर कर लूँ .तुम्हे याद होगा जब तुम छोटे थे और अक्सर चोट लगाकर रोते हुए घर आ जाया करते थे तो मैं तुमसे एक ही बात कहता था बेटा चोट तुम्हे लगी है और इसका दर्द तो तुम्हे ही झेलना पड़ेगा. हम ज्यादा से ज्यादा  इसको कम करने की कोशिश कर सकते हैं और जिन्दगी भी ऐसी ही है , मैंने कभी भी तुमसे ये नहीं कहा कि बेटा क्लास में टॉप करो हाँ ये जरूर कहा कि बेटा एक अच्छे इंसान बनो इस पर मुझे ज्यादा फख्र होगा एक पिता की हैसियत से मेरा काम तुम्हे सही गलत में फर्क करना सिखाना रहा है और फैसला मैंने हमेशा तुम्हारे ऊपर छोड़ा है क्योंकि चोट का दर्द तुम्हीं को झेलना है .मैंने कभी भी तुम्हारे ऊपर ज्यादा नंबर लाने का दबाव नहीं डाला हाँ ये जरूर कहता रहा कि अपना हंड्रेड  परसेंट दो. जिससे जिन्दगी में अगर कभी असफलता हाथ लगे भी तो उससे लड़ने का हौसला बना रहे .अब तुम ही सोचो तुम्हारे सोशल स्टडीज में नब्बे नम्बर आये हैं पर क्या तुम विषय की नब्बे प्रतिशत चीजें जानते हो ?नहीं न अभी भी कितना कुछ जानने को बचा है अब सोचो अगर कहीं उसमें सौ नम्बर आ जाते तो इसका मतलब ये हुए तुम दुनिया के उस विषय में अपने स्तर के सबसे बड़े ज्ञानी हो गए पर वास्तव में ऐसा होता है क्या ?
हमारे ज़माने में हिन्दी के पेपर में किसी के सिक्सटी परसेंट से ऊपर नम्बर आ जाते थे तो हम सब उसे सम्मान की नजर से देखते थे पर आज देखो हिन्दी में भी सौ में सौ नम्बर मिल रहे हैं .बेटे जिन्दगी में कुछ चीजों की कसक हमेशा बनी रहनी चाहिए तभी हम आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं.तुमने वो कहावत तो पढी ही होगी “इफ यू रीच देयर देयर इज नो देयर”.मंजिल पर पहुँचने से ज्यादा सफ़र का मजा रहता है .मुझे आज भी याद है दसवीं से पहले तक तुम्हारे कभी भी सिक्सटी परसेंट से उपर नम्बर नहीं आये .मैं ये भी मानता हूँ कभी –कभी मैं भी थोड़ा दुखी हो जाता था पर एक चीज मुझे हमेशा हौसला देती थी .तुम हमेशा एक अच्छे बेटे की तरह बढ़ते रहे ,दादी –बाबा का ख्याल रखने वाले .भले कितनी परेशानी मन में हो हमेशा खुश रहने वाले और सबको हंसाने वाले .तुम्हारी सम्वेदनशीलता देख कर लगता है कितुम अपने आस –पास के लोगों से जुड़े रहोगे क्योंकि रोड पर अगर कोई आवारा जानवर बीमार दिखता है तो तुम मुझे फोन कर के तंग करते रहे , अपनी पॉकेट मनी से रोड पर पैदा हुए कुत्ते के बच्चों को दूध चुपचाप पिलाना और कई दिन बाद धीरे से मम्मी को बता देना .तुमने कभी कोई बात नहीं छिपाई .
तुम बिलकुल भी इसलिए  निराश न हो कि तुम्हारे अस्सी परसेंट नम्बर आये हैं तुम ये सोचो कि इतने नम्बर लाने के बाद भी तुमने अभी तक की जिन्दगी का लुत्फ़ उठाया है.पढ़ना और अच्छे नम्बर लाना अच्छी बात है पर सिर्फ पढ़ाई और मार्क्स के नाम पर जिन्दगी का लुत्फ़ उठाना छोड़ देना ठीक नहीं है .तुम खुशनसीब हो , कड़ी धूप में पतंग उड़ाने का लुत्फ़ क्या होता है ये जानते हो ,बारिश में छत पर घंटों नहाने  का क्या मतलब होता ये तुमसे बेहतर कौन जानता है .गर्मी की शाम छत को स्वीमिंग पूल बनाने की नासमझ कोशिश तुमने न जाने कितनी बार की है .यहाँ तक कि मोबाईल पर वीडियो एडिट करके आठवीं क्लास में ही तुमने अपना यूट्यूब चैनल भी बना डाला था. मेरे मना करने बावजूद कमरे के अंदर क्रिकेट खेलना और अपनी बाल से टीवी तोड़ देने का दुःख भी झेला है .तुम हारना क्या होता है ये बेहतर तरीके से जानते हो तो कभी जिन्दगी में जीतोगे तो तुम्हारे पैर हमेशा जमीन पर रहेंगे .सफलता तुम्हारा दिमाग खराब नहीं करेगी.जिन्दगी बैलेंस का नाम है.एक्सेस किसी भी चीज की बुरी है .बोर्ड के एक्जाम में तुमने उसमें बेलेंस बनाया .मैं इसी में खुश हूँ कि मेरा बेटा बेलेंस बनाना सीख गया है .ये बेलेंस ही तुम्हें मुश्किलों में सम्हाल लेगा . तुम्हारी हमेशा शिकायत रहती थी कि पापा आप मेरी पेरेंट टीचर मीटिंग में क्यों नहीं आते ?मैं हमेशा थोडा ऐंठ कर कहता पहले कुछ ऐसा काम करो कि मुझे तुम पर फख्र हो ,सच तो ये है मैं तुम पर हमेशा फख्र करता था पर कहता नहीं था .
बेटा पढाई के एक्जाम  से ज्यादा मुश्किल है जिन्दगी का इम्तिहान जिसकी अभी शुरुवात हो रही है .मैं चाहता हूँ तुम जिन्दगी के एक्जाम  में टॉप करो मैंने कभी नहीं चाहा कि तुम क्लास में टॉप करो जरा सोचो एक्साम्स के टॉपर्स को हम लोग कितनी जल्दी भूलते हैं जिन्दगी में एक वक्त के बाद हम लोगों को उनके काम और उनकी पर्सनाल्टी  की वजह से याद करते हैं न कि उनके मार्क्स की वजह से .जिन्दगी के टॉपर्स हिस्ट्री  बनाते हैं. तुम्हे फिल्म और क्रिकेट का बहुत शौक है. विराट  एक महान खिलाड़ी है क्या वो कभी जीरो पर नहीं आउट हुआ हर मैच उसके लिए एक एक्जाम  ही होता है . कई बार हमारी टीम बहुत अच्छा खेलती है फिर भी हार जाते है तो इसका क्या मतलब निकला जाए कि वो टीम बेकार है. अमिताभ बच्चन क्या बगैर फ्लॉप फ़िल्में दिए बगैर सदी के सितारे बन गए. सफल होने के लिए असफल होना ही पड़ता है.ये बात सही है बेटा कि सफलता सबको अच्छी  लगती है, लेकिन जिन्दगी में आप लगातार सफल नहीं हो सकते ये निश्चित है तो सफल होने के लिए असफल होना बहुत जरुरी है और असफलता का स्वाद जिन्दगी में जितनी जल्दी मिल जाए उतना अच्छा है.उम्मीद है अब तुम्हारा गुस्सा ठंडा हो गया होगा ,तुम अस्सी परसेंट लाओ या नब्बे मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता पर जिन्दगी में कुछ अच्छा करो तुमसे इतना ही चाहता हूँ .
हम सब बेसब्री से तुम्हारे घर लौटने का इन्तिज़ार कर रहे हैं ,ताकि तुम्हारे नए स्कूल के अनुभव सुन सकें .फोन पर बात करने से वो मजा नहीं आता है जो तुम्हारी आत्मविश्वास से भरी आँखों में झांकते हुए बात करने में आता है .मैंने उन फिल्मों की लिस्ट बना ली हैं जो मुझे तुम्हारे साथ देखनी हैं आखिर तुमको देखकर ही मुझे अपनी जवानी के दिनों को दुबारा जीने की चाह होती है मां तुमको अपना प्यार दे रही है .
प्यार
तुम्हारा
पोप्स
14/05/2019  को दैनिक जागरण/आइनेक्स्ट में प्रकाशित

Thursday, May 9, 2019

शब्दों नहीं ध्वनियों का होगा इंटरनेट पर राज

तकनीक भले ही हमें अंग्रेजी बोलने के लिए मजबूर करती है पर अब वही तकनीक हमें नयी भाषाएँ सीखने में मदद कर रही है |दुनिया की आधी से अधिक आबादी द्विभाषी हैजिसका अर्थ है कि हर दिन 3.5 बिलियन लोग एक से अधिक भाषा बोलते हैं। भले ही आप जन्म के बाद से दो (या अधिक) भाषाएं बोल चुके हों पर हमारा  फ़ोन और लैपटॉप एक समय में केवल एक भाषा सेटिंग के लिए ही  प्रोग्राम किए जा सकते हैं। इसका मतलब है कि हर बार जब हमें  भाषाओं को बदलना होता है  - जैसे कि हिन्दी  में अपनी माँ से एक संदेश का जवाब देना और फिर तेलगु  में अपने सहयोगी से अगला तो हमें मैन्युअल रूप से एक सेटिंग से दूसरी में स्विच करना होता है । इन सबका परिणाम यह होता है कि लोग को अपने संदेशों की सामग्री को सरल बनाने या सबसे सामान्य वैश्विक भाषा: अंग्रेजी का उपयोग करते हुए संचार को मानकीकृत करने के लिए मजबूर हो जाते हैं |कई अध्ययनों के अनुसारबहुभाषी होने के बहुत सारे लाभ हैं। इनमें सामाजिक और पेशेवर शामिल हैंजैसे कि आपको लोगों के एक पूरे अलग समूह  के साथ संवाद करने और नए विचारों को समझने का अवसर मिलता है। गैर-अंग्रेजी बोलने वाले स्वाभाविक रूप से विकलांग होते हैं जब आधुनिक पाठ्य संचार की बात आती है। QWERTY की बोर्ड की टाइपिंग की कार्यक्षमता शुरू में अंग्रेजी भाषा  के समर्थन के लिए बनाई गई प्रणाली से ही ली गई थी: छब्बीस  अक्षरस्माल और कैपिटल  कोई मात्रा ,बिंदी ,पाई  नहीं। लेकिन अगर आप ऐसी भाषा में लिखना चाहते हैंजिसमें ध्वनि  अक्षरों का उपयोग किया गया हो - जैसे कि हिन्दी या तेलुगु -या अन्य भाषा में हमारी टाइपिंग धीमी हो जाते है  क्योंकि ध्वनियों के लिए शब्द मानक की बोर्ड का सीधा हिस्सा नहीं होते हैं  हैं। और एक अलग वर्णमाला की बोर्ड पर स्विच करने की मजबूरी भी होती है जिसका सरल तरीका यह है कि आप अंग्रेज़ी की बोर्ड का इस्तेमाल करते हुए अपनी भाषा के शब्दों में संचार करें और इस तरह अंग्रेजी फिर जबरदस्ती हमारे जीवन में आ जाती है |इस तरह हम अक्सर अंग्रेजी भाषा को  डिफ़ॉल्ट भाषा बनाये रखने का निर्णय लेते हैं।
QWERTY टाइपराइटर ले आउट अमेरिकी समाचार पत्र के संपादक क्रिस्टोफर लैथम शोल्स द्वारा बनाया गया थाऔर इस  सॉफ्टवेयर को निश्चित रूप से ऐसे किसी व्यक्ति द्वारा कोड किया गया होगा जिसकी मात्र भाषा अंग्रेजी नहीं होगी |क्योंकि  ज्यादातर सोफ्टवेयर  कंपनियों के कोडर्स गैर अंग्रेजी प्रष्ठभूमि से आते हैं | अमेरिका के जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2018 की रिपोर्ट में पाया गया कि 71% सिलिकॉन वैली के कार्यकर्ता विदेशी हैं।यनि इस तकनीक को बनाने वाले बहुत सारे लोग खुद बहुभाषी हैंतो ऐसी समस्याएं क्यों बनी रहती हैं?ऐसा इसलिए क्योंकि सूचना-प्रौद्योगिकी उद्योग और इंटरनेट पर एक आभासी अंग्रेजी भाषा का साम्राज्य है। गूगल के आंकड़ों के मुताबिकअभी देश में अंग्रेजी भाषा समझने वालों की संख्या 19.8 करोड़ हैऔर इसमें से ज्यादातर लोग इंटरनेट से जुड़े हुए हैं। तथ्य यह भी है कि भारत में इंटरनेट बाजार का विस्तार इसलिए ठहर-सा गया हैक्योंकि सामग्रियां अंग्रेजी में हैं। आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर 55.8 प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में हैजबकि दुनिया की पांच प्रतिशत से कम आबादी अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती हैऔर दुनिया के मात्र 21 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी की समझ रखते हैं। इसके बरक्स अरबी या हिंदी जैसी भाषाओं मेंजो दुनिया में बड़े पैमाने पर बोली जाती हैंइंटरनेट सामग्री क्रमशः 0.8 और 0.1 प्रतिशत ही उपलब्ध है। बीते कुछ वर्षों में इंटरनेट और विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइट्स जिस तरह लोगों की अभिव्यक्तिआशाओं और अपेक्षाओं का माध्यम बनकर उभरी हैंवह उल्लेखनीय जरूर हैमगर भारत की भाषाओं में जैसी विविधता हैवह इंटरनेट में नहीं दिखती।आज 400 मिलियन भारतीय अंग्रेजी भाषा की बजाय हिंदी भाषा की ज्यादा समझ रखते हैं लिहाजा भारत में इंटरनेट को तभी गति दी जा सकती हैजब इसकी अधिकतर सामग्री हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हो.आज जानकारी का उत्तम स्रोत कहे जाने वाले प्रोजेक्ट विकीपिडिया पर तकरीबन पेज 22000 हिंदी भाषा में हैं ताकि भारतीय यूजर्स इसका उपयोग कर सकें। भारत में लोगों को इंटरनेट पर लाने का सबसे अच्छा तरीका है उनकी पसंद का कंटेंट बनाना यानि कि भारतीय भाषाओं को इंटरनेट के मानचित्र पर  लाना.  इंटरनेट उपभोक्ताओं की यह रफ्तार तभी बरकरार रहेगीजब इंटरनेट सर्च और सुगम बनेगा। यानी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर बढ़ावा देना होगातभी गैर अंग्रेजी भाषी लोग इंटरनेट से ज्यादा जुड़ेंगे।उपयोगकर्ता तेजी से कीबोर्ड का उपयोग करने के बजाय वॉयस इनपुट का उपयोग करना शुरू कर रहे हैं। के पी सी बी इंटरनेट ट्रेंडस रिपोर्ट के अनुसार साल 2020 तक गूगल पर सर्च किये जाने वाले परिणाम का पचास प्रतिशत वायस सर्च से किया जायेगा जहाँ अंग्रेजी भाषा की जरुरत नहीं रहेगी |
साल 2013 में गूगल के प्लेटफोर्म पर वायस सर्च की शुद्धता का प्रतिशत अस्सी से कम था लेकिन आज वह नब्बे प्रतिशत के ऊपर चला गया है |चायनीज सर्च इंजन बायडू की शुद्धता का प्रतिशत पंचानबे है जिस दिन यह नियानाबे से ऊपर हो जायेगा उस दिन इंटरनेट पर शब्दों की बजाय ध्वनी का राज होगा |गूगल और अमेजन के वायस सर्च स्पीकर पहले से ही बाजार में आ चुके हैं |सर्चइंजनलैंड वेबसाईट के मुताबिक़ साल 2008 के मुकाबले साल 2018 में वायस सर्च में पैंतीस गुना वृद्धि हुई है |साल 2008 में पहली बार व्यास सर्च दुनिया के सामने आई थी |इससे बहुभाषी अंग्रेजी-केंद्रित की बोर्ड को सीमित करने और अधिक स्वाभाविक रूप से बोलने की सुविधा मिलेगी ।इसका सबसे सरल संस्करण स्पीच-टू-टेक्स्ट फ़ंक्शंस है कई फ़ोन अब आपकी आवाज़ को टेक्स्टवर्ड द्वारा शब्द में अनुवाद करने के लिए उपयोग करते हैं। मशीन लर्निंग कंप्यूटिंग पावर और नेचुरल लेंगुआज प्रोसेसिंग  (एनएलपी) का उपयोग करते हुएइनमें से कई प्रौद्योगिकियां यह पता लगाने में सक्षम हैं कि आप किस भाषा में संवाद कर रहे हैं |ये नए एनएलपी एल्गोरिदम एक विशिष्ट भाषा से स्वतंत्र हैंवे स्वयं किसी भाषा को जाने  बिना विभिन्न मानव  भाषा से विश्लेषणसमझ और अर्थ प्राप्त करते हैं। एल्गोरिथ्म जल्दी से यह बता सकता है कि आप किस भाषा में बात कर रहे हैंजिसका अर्थ है कि आप किसी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस की  सेटिंग्स बदलने के लिए स्पष्ट रूप से पूछने की आवश्यकता के बिना एक से दूसरी भाषा में स्विच कर सकते हैं।गूगल ने हाल ही में अपने गूगल असिस्टेंट का एक नया संस्करण जारी किया जो एक ही समय में दो भाषा का प्रबंधन करने में सक्षम है। उपयोगकर्ता इन छ: भाषाओं से चुनाव  सकते हैं- जिनमें अंग्रेजीस्पेनिशफ्रेंचजर्मनइटेलियन और जापानी— शामिल है |गूगल भविष्य में और भाषाओं को जोड़ने का वादा करता  हैजिनमें एक साथ ही साथ तीन भाषाओं को प्रबंधित करने की क्षमता रहेगी । अमेज़न जैसी अन्य कंपनियों भी अपने नए उत्पादों के लिए ऐसी बहुभाषी सुविधाओं को जारी करने की बात कही  है।
ध्वनि  तकनीकों का आगमन डिजिटल भाषा को कम करने और बहुभाषी लोगों को लाभ पहुंचाना शुरू करेगा यहां तक कि प्रसिद्ध टीवी सीरियल स्टार ट्रेक के युनिवर्सल ट्रांसलेटर  जैसे उपकरणों के की अवधारणा अब विज्ञान कथा नहीं रही सॉर्केनेक्स्ट का  पॉकेटॉक चौहत्तर भाषाओं का अनुवाद करने में सक्षम होने का दावा करता है | वीवर्सली लैब्स का पायलट बयालीस विभिन्न बोलियों में पंद्रह  भाषाओं का प्रबंधन कर सकता हैऔर चीनी फर्म आई फ्लाय्तेक ( iFlytek )ने अपने अनुवादक के दूसरे संस्करण की घोषणा की हैजो 63 भाषाओं से अनुवाद करने में सक्षम है। आज 6,500 बोली जाने वाली भाषाओं के साथहम अभी भी एक सार्वभौमिक अनुवादक से थोड़ी ही दूर हैं ये रुझान दर्शाते हैं कि भारत नेट युग की अगली पीढ़ी में प्रवेश करने वाला है जहाँ सर्च इंजन भारत की स्थानीयता को ध्यान में रखकर खोज प्रोग्राम विकसित करेंगे और गूगल ने स्पीच रेकग्नीशन टेक्नीक पर आधारित वायस सर्च की शुरुवात की है जो भारत में सर्च के पूरे परिद्रश्य को बदल देगी.स्पीच रेकग्नीशन तकनीक  लोगों को इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए किसी भाषा को जानने की अनिवार्यता खत्म कर देगी वहीं बढते स्मार्ट फोन हर हाथ में इंटरनेट पहले ही पहुंचा रहे हैं |
दैनिक जागरण में 09/05/2019 को प्रकाशित 

Tuesday, May 7, 2019

अल्लाह के बंदे हंस दे

मैं कभी कभी ही खुश होता हूँ और जब खुश होता हूँ तो गाने सुनता हूँ  और जब दुखी होता हूँ तो भी गाने सुनता हूँ आप भी सोच रहे होंगे की ये क्या गड़बड़झाला है? मित्रों जिन्दगी में कोई भी समस्या  हो संगीत  एक ऐसी दवा है .जो सारे अवसाद  और तनाव को भगाने के लिए काफी है. पर कभी कभी ऐसा होता है .जब स्थितियों   पर हमारा जोर नहीं रहता और कुछ भी अच्छा नहीं होता तब एक और बस एक ही चीज़ याद आती है भगवान् गॉड,अल्लाह आप कुछ भी नाम लें .मतलब एक है एक सुपर नेचुरल पवार जो हमारा आखिरी सहारा है. अब सोचिये अगर संगीत  और भगवान  को जोड़ दिया जाए तो एक ऐसी दवा तैयार होगी. जिसका कोई मुकाबला नहीं होगा बात. सीधी सी  है पर है थोड़ी टेढ़ी कहते हैं संगीत कि कोई भाषा नहीं होती और आप उसे किसी  भाषा में बाँध भी नहीं सकते अब आप "वाका वाका" को ही ले लीजिये इस शब्द का मतलब भले ही हम न समझें पर गुनगुनाया  तो सारी दुनिया ने ही . जब आप बहुत परेशान और निराश हों.

तब एक ही गाना याद आता है मुझे “जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारों” (लावारिस ) ,निराशा भी अक्सर एक मोटिवेटर का काम करती है. जब उसे ऊपर वाले यानि गॉड, भगवान् या अल्लाह का सहारा मिल जाता है तो बात ये है कि हमारे फ़िल्मी गाने भी एक बड़ा जरिया हैं , भगवान् से हमारा सम्बन्ध स्थापित करने का आप न या माने पर ये सच है, जैसे धर्म भले ही अलग -अलग हों सबका सन्देश एक ही है प्यार , मानवता , भाईचारा.

वैसे ही हमारे  फ़िल्में गाने किसी एक मज़हब या धर्म की बात नहीं करते नहीं भरोसा हो रहा हो तो बानगी देख लीजिये "अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम” (हमदोनों ),जय रघुनन्दन जय सिया राम (घराना), वो मसीहा आया है (क्रोधी ) या फिर एक ओंकार सतनाम (रंग दे बसन्ती ).गाने की नज़र से देखें तो ये सिर्फ गाने हैं ख़ास बात ये है कि ये भारत के हर धर्म  की बात कर रहे हैं न कोई छोटा है न कोई बड़ा.थोडा और आगे बढ़ें तो ये गाने उसी फ़िल्मी गाने को आगे बढ़ाते हैं “तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा.(धुल का फूल )       वैसे एक बात और बताते चलूँ सूफी संगीत का जन्म ही संगीत और उस रूहानी ताकत के मिलन से हुआ जिसे हम भगवान कहते हैं और जब आप इसको सुनते हैं लगता है ऊपर वाला हमारे सामने है अगर भरोसा न हो रहा तो  ये गाना सुनियेगा “अल्लाह के बन्दे हंस दे जो हो कल फिर आएगा”. हिंदी फिल्म उद्योग के संगीतकार अपने गीतों में सूफी संगीत की मधुरता बुन रहे हैं. अल्लाह के बंदे, पिया हाजी अली, ख्वाजा मेरे ख्वाजा, अर्जियां.. जैसे सूफी संगीत में पगे गीतों की सूची बहुत लंबी है.

तो जीवन की इन राहों पर अगर आप चलते चलते थक जाएँ तो  थोडा रुक कर अगर इन गानों का साथी बन जाया जाए तो मंजिल कुछ करीब दिखने लगेगी और सफ़र की थकन कम होगी. लेकिन एक बात मत भूलियेगा जब भी प्रार्थना कीजिये पूरेविश्वास  से कीजिये.  तो प्यार बाँटते चलिए और निराशाओं को  अपने ऊपर हावी  मत होने दीजिये .कल तो बिलकुल आएगा आशाओं  का उम्मीदों का इसलिए अगर आज थोड़ी मुश्किल है.थोडा धीरज रख लीजिये क्योंकि कोई है जो आपके साथ है आप उसे किसी भी नाम से बुला सकते हैं.
प्रभात खबर में 07/05/2019 को प्रकाशित 


धरातल पर बहुत काम करने की है जरुरत

ख्यात बाल लेखक जैनज़ कोरज़ाक ने कहा  था कि- 'बच्चे और किशोर, मानवता का एक-तिहाई हिस्सा हैं। इंसान अपनी जिंदगी का एक-तिहाई हिस्सा बच्चे के तौर पर जीता है। बच्चे...बड़े होकर इंसान नहीं बनते, वे पहले से ही होते हैं,हमें बच्चों के अंदर के इंसान को जिन्दा रखना होगा .यदि बच्चे कुपोषित होंगे तो इस बात की उम्मीद कम है कि वे बेहतर इंसान बन पायें |देश में भले ही खाद्य सुरक्षा कानून लागू है और बच्चों को पढ़ाने के साथ –साथ उनके पोषण पर भी ध्यान दिया जा रहा है पर अभी धरातल पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है . इकोनोमिक्स ऑफ़ एजयूकेशन रिव्यू में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार बच्चों में खाद्य असुरक्षा और उनकी सीखने की क्षमता में सम्बन्ध स्थापित करता है | सीखने की क्षमता ही किसी भी देश के नागरिकों को एक बेहतर ह्यूमन रिसोर्स में तब्दील कर सकती है और इसका रास्ता बच्चों के उचित विकास से ही होकर जाता है .किसी भी देश के बच्चों की स्थिति से ही हम किसी भी देश के आने वाले कल का अंदाजा लगा सकते हैं .जब घर में खाद्य असुरक्षा होती है, तब परिवार को पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए कठिन निर्णय लेने पड़ सकते हैं. मिसाल के लिए, जिन परिवारों को भोजन के लिए धन की आवश्यकता होती है, वे स्कूल की फीस और सामग्रियों पर कम खर्च करते हैं. जिससे बच्चों का  स्कूल छुड्वाया जा सकता  है, उनके पास पढ़ाई के लिए कम समय हो सकता है. या उन्हें पूरी तरह शिक्षा से मुक्त कर दिया जाता है ताकि वे नौकरी कर के घरेलु वितीय जरूरतों में अपना योगदान कर सकें. बाल श्रम कानून होने के बावजूद भी हम गली मोह्हले की दुकानों और छोटी मोटी फैक्ट्रीयों में बच्चों को काम करते देख सकते हैं |  यूनिसेफ कहता है कि भारत में 61.7 मिलियन बच्चे नाटे हैं, जो दुनियाभर में सबसे ज्यादा है। सरकारी आंकड़ों  के हिसाब से पांच वर्ष से कम आयु के करीब 20 फीसदी बच्चे अपने कद के हिसाब से कमज़ोर अथवा काफी पतले हैं।

पिछले एक दशक में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है पर इसके बावजूद देश सीखने में  संकट के दौर से गुजर रहा है परिणामस्वरूप स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि के बावजूद वे सीखने में पिछड़ रहे हैं .इसका मुख्य कारण कुपोषण है साल 2006 से 2016 के बीच कुपोषित बच्चों की संख्या अडतालीस से घटकर अडतीस प्रतिशत हो गयी है |फिर भी भारत कुपोषण दर जो बच्चों के विकास और स्वास्थ्य से जुडी हुई है दुनिया में भारत सबसे बड़ी कुपोषित आबादी का घर है.

खाद्य असुरक्षा कुपोषण का सबसे बड़ा कारण है. एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जिसकी खाद्य पदार्थों तक पहुंच नहीं है. इसमें होने वाले बच्चे कुपोषित रह जाते हैं. उनका शारीरिक और मानसिक विकास रुक जाता है. जिससे उनके सोचने समझने और सीखने की क्षमता कम होती रहती है.खाद्य और कृषि संगठन की खाद्य सुरक्षा और पोषण रिपोर्ट 2018 कहती है भारत में पाँच वर्ष से कम आयु के 38.4 प्रतिशत बच्चों का वज़न जरूरत से भी कम है, जबकि 21 प्रतिशत बच्चों का वजन उनके कद के लिहाज से बहुत कम है.

कुपोषण के शिकार बच्चों को एकाग्रता और याद्दाश्त की समस्या होती है. यह उनके संज्ञानात्मक विकास को भी बाधित करता है. वे चिडचिडे हो जाते हैं और शर्म महसूस करने लगते हैं. इसके चलते उनके संवाद में नकारात्मकता दिख सकती है. इकॉनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकशित एक  पेपर में यूनिवर्सिटी ऑफ सूसेक्स और यूनिसेफ के ग्रेगोर वॉन मेडीज़ा ने कहा कि स्वच्छता और कम पोषण के बीच संबंध को व्यापक तौर पर अनदेखा किया जाता है, उन्होंने इसे ‘अंधा बिन्दु’ कहा है जिसको व्यापक संदर्भ में नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए|स्वच्छता के बारे में ना तो जागरूकता है और ना ही ये हमारी प्राथमिकता में है|वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर गगनदीप कांग, का  अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि रोगाणु बच्चों की अंतड़ियों को कैसे नुकसान पहुंचाते हैं, जो फलत: कुपोषण की तरफ ले जाता है यानि सफाई और कुपोषण के बीच संबंध है हम कुपोषण की समस्या से सिर्फ खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित करा कर नहीं लड़ सकते. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत  कि पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों के कुपोषित होने की मुख्य वजह दस्त है। विश्व में प्रत्येक वर्ष इस उम्र वर्ग के 800,000 से ज्यादा बच्चों की दस्त से मृत्यु होती है,और  इनमें से एक चौथाई मौतें भारत में होती हैं| कुपोषण और मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मिलकर एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं जिनका शिकार ज्यादातर बच्चे बनते हैंइसका सीधा सा मतलब  है कि स्वच्छता योजनाओं और खाद्य सुरक्षा पर संतुलित निवेश किया जाए और इस दोतरफा निवेशन से ही भारत का मानव संसाधन बेहतर हो पायेगा| 

गरीबी, खाद्य असुरक्षा और सीखने की क्षमता दोनों को प्रभावित करती है. इसलिए कहा जा सकता है कि ये दोनों ही घटक गरीबी के परिणाम है. यदि बच्चों के सीखने की क्षमता में सुधार लाना है तो गरीबी और खाद्य असुरक्षा दोनों चुनौतियों से एक साथ निपटना  जरूरी है.

इन बच्चों को किशोरावस्था में कदम रखने से पहले आर्थिक जरूरतों के चलते काम करना पड़ता है. जहां सामाजिक सुरक्षा बच्चों को काम करने से रोकने के लिए अपर्याप्त है, वहां बाल मजदूरी स्वाभाविक हो जाती है. ये बच्चे मजबूरी की आड़ में अवसरों से महरूम रह जाते हैं. समाज के ऐसे बच्चों को खाद्य   सुरक्षा देते हुए शिक्षा के साथ अवसरों के दरवाजे खोलने से ही इनमें सीखने की क्षमता को बढ़ावा देने का रास्ता निकल सकता है.
दैनिक जागरण /आईनेक्स्ट में 07/05/2019 को प्रकाशित 

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