Saturday, May 25, 2019

मन का नया रोग डिजिटल ईगो


आज हम डिजिटल युग में जी रहे हैं जहां हमारी एक वर्चुअल पहचान है। सोशल मीडिया शुरू में सिर्फ लोगों से मिलने-जुलने का साधन भर था, पर धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता में हुई वृद्धि ने इसे एक अपरिहार्य आवश्यकता वाले माध्यम में बदल दिया। धीरे-धीरे यह हमारे जीवन को नियंत्रित करने लगा है। सिर्फ बाहरी ही नहीं, हमारा आंतरिक जीवन भी इसी से संचालित हो रहा है। मतलब इसने हमारे मानस को बदल दिया है। इससे हमारा चेतन और अचेतन दोनों प्रभावित हो रहे हैं। हमारी सोच, हमारा मनोविज्ञान भी इसी के अनुरूप ढल गया है। इसलिए आज वर्चुअल वर्ल्ड के संदर्भ में डिजिटल इगोऔर ई डाउटजैसी अवधारणाएं सामने आ रही हैं।कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के सहायक प्रफेसर जैकब वैन कॉक्सविज ने अपनी किताब डिजिटल इगो : वर्चुअल आइडेंटिटी के सामाजिक और कानूनी पहलूमें इसको पारिभाषित करते हुए लिखा है कि वर्चुअल पहचान किसी इंसान की महज ऑनलाइन पहचान नहीं है, बल्कि यह एक नई तकनीकी और सामाजिक घटना है।हमारी दुनिया में डिजिटल इगो पनपता कैसे है? दरअसल लोगों की वर्चुअल स्पेस पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। सोशल मीडिया के जरिए ही हम संबंधों को आंकने लगे हैं। जब हम किसी को या कोई हमें इस मंच पर नकारता है तो वहीं से इस डिजिटल इगो का जन्म होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि सोशल नेटवर्क पर अस्वीकृति आमने-सामने के टकराव से भी बदतर हो सकती है क्योंकि लोग आमतौर पर ऑनलाइन होने की तुलना में आमने-सामने होने पर ज्यादा विनम्र होते हैं।हम कोई स्टेटस किसी सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर डालते हैं और देखते हैं कि अचानक उसमें कुछ ऐसे लोग स्टेटस के सही मंतव्य को समझे बगैर टिप्पणियां करने लगते हैं, जिनसे हमारी किसी तरह की कोई जान-पहचान नहीं होती। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया होती है जिसमें इगो का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। यह स्थिति घातक भी हो सकती है।डिजिटल इगो को पहचान पाना आसान नहीं है। हम आसानी से नहीं समझ सकते कि इंटरनेट और सोशल मीडिया पर दिखने वाली अवहेलना क्या वास्तविक है, या इसके पीछे और कोई और वजह छिपी है? इसे हम यहां परत दर परत समझने की कोशिश करते हैं।मान लीजिए, मैंने अपने एक मित्र को फेसबुक पर मैसेज किया। मुझे दिख रहा है कि वो मैसेज देखा जा चुका है। लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं आ रहा है। तो मैं यह मान लेता हूं कि मेरा वह मित्र मुझे नजरंदाज कर रहा है। जबकि हकीकत में ऐसा नहीं भी हो सकता है। मुमकिन है कि उसके पास जवाब देने का वक्त न हो। या फिर उसका अकाउंट कोई और ऑपरेट कर रहा हो। बिना इन बिंदुओं पर विचार किए मेरा किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना अनुचित है।ऑनलाइन प्लैटफॉर्म पर हमारे चेहरे के भाव नहीं दिखते, आवाज का कोई लहजा नहीं होता। ऐसे में किसी किसी ई-मेल की गलत व्याख्या हो जाना स्वाभाविक है। इसलिए यहां किसी से भी जुड़ते समय शब्दों के चुनाव में और भाव-भंगिमाओं के संकेत देने में बहुत स्पष्ट रहना चाहिए। ई-डाउट की शुरुआत यहीं से होती है। यानी ऐसा शक जो हमारी वर्चुअल गतिविधियों से पैदा होता है और जिसका हमारे वास्तविक जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता।
यही चीज हमें मशीन से अलग करती है। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस की तकनीक पूरी तरह से मशीन पर निर्भर है। एक बार जो कमांड दे दिया गया, उसी के अनुरूप हर स्थिति की व्याख्या की जाएगी। अब जब यह दुनिया इसी तकनीक पर चलने वाली है तो समय आ गया है कि हम मानव व्यवहार की हर स्थिति की पुनर्व्याख्या करें।आर्टिफिशल इंटेलिजेंस हमें मानव स्वभाव का और गहराई से अध्ययन करने के लिए प्रेरित करती है। हमारा इगो डिजिटल युग को पसंद करता है क्योंकि यह व्यक्तिवाद को बढ़ावा देता है, जिसमें शामिल है- आई’, ‘मी’ और माई। सेलफोन का नाम क्या है- आई-फोनयानी सामूहिकता की कहीं कोई जगह नहीं है। शायद इसीलिए लोग ज्यादा से ज्यादा लाइक्स, शेयर और दोस्त वर्चुअल दुनिया में पाना चाहते हैं। यह एक और संकट को जन्म दे रहा है जिससे लोग अपने वर्तमान का लुत्फ न उठाकर अपने अतीत और भविष्य के बीच झूलते रहते हैं। अपनी पसंदीदा धुन के साथ हम मानसिक रूप से अपनी वर्तमान स्थिति को छोड़ सकते हैं और अपने अस्तित्व को अलग डिजिटल वास्तविकता में परिवर्तित कर सकते हैं।वैसे भी इगो के लिए वर्तमान के कोई मायने नहीं होते। डिजिटल इगो से ग्रस्त मन अतीत के लिए तरसता है, क्योंकि यह आपको परिभाषित करता है। ऐसे ही इगो अपनी किसी आपूर्ति के लिए भविष्य की तलाश में रहता है। कुल मिलाकर हमारे डिजिटल उपकरण वर्तमान से बचने का बहाना देते हैं।फेसबुक जैसी तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स की सफलता के पीछे हमारे दिमाग की यही प्रवृत्ति जिम्मेदार है। जब हम कहीं घूमने जाते हैं तो प्राकृतिक दृश्यों की सुंदरता निहारने के बजाय तस्वीरें खींचने-खिंचाने में ज्यादा मशगूल हो जाते हैं और अपने वर्तमान को पीछे छोड़कर भविष्य में उस फोटो के ऊपर आने वाले कमेंट्स और लाइक्स के बारे में सोचने लग जाते हैं।डिजिटल इगो जब हमारे रोजमर्रा का हिस्सा हो जाएगा तब हम पूरी तरह वर्चुअल हो चुके होंगे। स्मार्टफोन कल्चर आने से आज परिवार में संवाद बहुत कम हो रहा है। तकनीकी विकास से हम पूरी दुनिया से तो जुड़े हैं लेकिन पड़ोस की खबर नहीं रख रहे। हमारा सामाजिक दायरा तेजी से सिमट रहा है और आपसी संबंध जिस तेजी से बन रहे हैं उसी तेजी से टूट भी रहे हैं। हमारी पूरी दुनिया वर्चुअल होती जा रही है। ऐसे में हमें मानव स्वभाव का पूरा अध्ययन करके डिजिटल इगो का निवारण करना पड़ेगा ताकि डिजिटल संचार के सर्वोपरि हो जाने पर हम संदेशों की गलत व्याख्या करने से बच सकें।


 नवभारत टाईम्स में 25/05/19 को प्रकाशित 



2 comments:

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन तीसरा शहादत दिवस - हवलदार हंगपन दादा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

संजय भास्‍कर said...

बहुत खूब....., सादर नमस्कार

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