Tuesday, May 7, 2019

धरातल पर बहुत काम करने की है जरुरत

ख्यात बाल लेखक जैनज़ कोरज़ाक ने कहा  था कि- 'बच्चे और किशोर, मानवता का एक-तिहाई हिस्सा हैं। इंसान अपनी जिंदगी का एक-तिहाई हिस्सा बच्चे के तौर पर जीता है। बच्चे...बड़े होकर इंसान नहीं बनते, वे पहले से ही होते हैं,हमें बच्चों के अंदर के इंसान को जिन्दा रखना होगा .यदि बच्चे कुपोषित होंगे तो इस बात की उम्मीद कम है कि वे बेहतर इंसान बन पायें |देश में भले ही खाद्य सुरक्षा कानून लागू है और बच्चों को पढ़ाने के साथ –साथ उनके पोषण पर भी ध्यान दिया जा रहा है पर अभी धरातल पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है . इकोनोमिक्स ऑफ़ एजयूकेशन रिव्यू में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार बच्चों में खाद्य असुरक्षा और उनकी सीखने की क्षमता में सम्बन्ध स्थापित करता है | सीखने की क्षमता ही किसी भी देश के नागरिकों को एक बेहतर ह्यूमन रिसोर्स में तब्दील कर सकती है और इसका रास्ता बच्चों के उचित विकास से ही होकर जाता है .किसी भी देश के बच्चों की स्थिति से ही हम किसी भी देश के आने वाले कल का अंदाजा लगा सकते हैं .जब घर में खाद्य असुरक्षा होती है, तब परिवार को पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए कठिन निर्णय लेने पड़ सकते हैं. मिसाल के लिए, जिन परिवारों को भोजन के लिए धन की आवश्यकता होती है, वे स्कूल की फीस और सामग्रियों पर कम खर्च करते हैं. जिससे बच्चों का  स्कूल छुड्वाया जा सकता  है, उनके पास पढ़ाई के लिए कम समय हो सकता है. या उन्हें पूरी तरह शिक्षा से मुक्त कर दिया जाता है ताकि वे नौकरी कर के घरेलु वितीय जरूरतों में अपना योगदान कर सकें. बाल श्रम कानून होने के बावजूद भी हम गली मोह्हले की दुकानों और छोटी मोटी फैक्ट्रीयों में बच्चों को काम करते देख सकते हैं |  यूनिसेफ कहता है कि भारत में 61.7 मिलियन बच्चे नाटे हैं, जो दुनियाभर में सबसे ज्यादा है। सरकारी आंकड़ों  के हिसाब से पांच वर्ष से कम आयु के करीब 20 फीसदी बच्चे अपने कद के हिसाब से कमज़ोर अथवा काफी पतले हैं।

पिछले एक दशक में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है पर इसके बावजूद देश सीखने में  संकट के दौर से गुजर रहा है परिणामस्वरूप स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि के बावजूद वे सीखने में पिछड़ रहे हैं .इसका मुख्य कारण कुपोषण है साल 2006 से 2016 के बीच कुपोषित बच्चों की संख्या अडतालीस से घटकर अडतीस प्रतिशत हो गयी है |फिर भी भारत कुपोषण दर जो बच्चों के विकास और स्वास्थ्य से जुडी हुई है दुनिया में भारत सबसे बड़ी कुपोषित आबादी का घर है.

खाद्य असुरक्षा कुपोषण का सबसे बड़ा कारण है. एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जिसकी खाद्य पदार्थों तक पहुंच नहीं है. इसमें होने वाले बच्चे कुपोषित रह जाते हैं. उनका शारीरिक और मानसिक विकास रुक जाता है. जिससे उनके सोचने समझने और सीखने की क्षमता कम होती रहती है.खाद्य और कृषि संगठन की खाद्य सुरक्षा और पोषण रिपोर्ट 2018 कहती है भारत में पाँच वर्ष से कम आयु के 38.4 प्रतिशत बच्चों का वज़न जरूरत से भी कम है, जबकि 21 प्रतिशत बच्चों का वजन उनके कद के लिहाज से बहुत कम है.

कुपोषण के शिकार बच्चों को एकाग्रता और याद्दाश्त की समस्या होती है. यह उनके संज्ञानात्मक विकास को भी बाधित करता है. वे चिडचिडे हो जाते हैं और शर्म महसूस करने लगते हैं. इसके चलते उनके संवाद में नकारात्मकता दिख सकती है. इकॉनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकशित एक  पेपर में यूनिवर्सिटी ऑफ सूसेक्स और यूनिसेफ के ग्रेगोर वॉन मेडीज़ा ने कहा कि स्वच्छता और कम पोषण के बीच संबंध को व्यापक तौर पर अनदेखा किया जाता है, उन्होंने इसे ‘अंधा बिन्दु’ कहा है जिसको व्यापक संदर्भ में नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए|स्वच्छता के बारे में ना तो जागरूकता है और ना ही ये हमारी प्राथमिकता में है|वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर गगनदीप कांग, का  अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि रोगाणु बच्चों की अंतड़ियों को कैसे नुकसान पहुंचाते हैं, जो फलत: कुपोषण की तरफ ले जाता है यानि सफाई और कुपोषण के बीच संबंध है हम कुपोषण की समस्या से सिर्फ खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित करा कर नहीं लड़ सकते. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत  कि पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों के कुपोषित होने की मुख्य वजह दस्त है। विश्व में प्रत्येक वर्ष इस उम्र वर्ग के 800,000 से ज्यादा बच्चों की दस्त से मृत्यु होती है,और  इनमें से एक चौथाई मौतें भारत में होती हैं| कुपोषण और मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मिलकर एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं जिनका शिकार ज्यादातर बच्चे बनते हैंइसका सीधा सा मतलब  है कि स्वच्छता योजनाओं और खाद्य सुरक्षा पर संतुलित निवेश किया जाए और इस दोतरफा निवेशन से ही भारत का मानव संसाधन बेहतर हो पायेगा| 

गरीबी, खाद्य असुरक्षा और सीखने की क्षमता दोनों को प्रभावित करती है. इसलिए कहा जा सकता है कि ये दोनों ही घटक गरीबी के परिणाम है. यदि बच्चों के सीखने की क्षमता में सुधार लाना है तो गरीबी और खाद्य असुरक्षा दोनों चुनौतियों से एक साथ निपटना  जरूरी है.

इन बच्चों को किशोरावस्था में कदम रखने से पहले आर्थिक जरूरतों के चलते काम करना पड़ता है. जहां सामाजिक सुरक्षा बच्चों को काम करने से रोकने के लिए अपर्याप्त है, वहां बाल मजदूरी स्वाभाविक हो जाती है. ये बच्चे मजबूरी की आड़ में अवसरों से महरूम रह जाते हैं. समाज के ऐसे बच्चों को खाद्य   सुरक्षा देते हुए शिक्षा के साथ अवसरों के दरवाजे खोलने से ही इनमें सीखने की क्षमता को बढ़ावा देने का रास्ता निकल सकता है.
दैनिक जागरण /आईनेक्स्ट में 07/05/2019 को प्रकाशित 

6 comments:

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन श्री परशुराम जयंती, अक्षय तृतीया, गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर, विश्व अस्थमा दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

HARSHVARDHAN said...

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