Thursday, May 30, 2019

विज्ञापनों में पापा

आजकल स्मार्ट होने का जमाना है वो चाहे फोन हो या टीवी या फ्रिज सब स्मार्ट होने चाहिए. शरीर और चीजों को  तो स्मार्ट बनाया जा सकता है और बनाया जा भी रहा है लेकिन जब बात महिलाओं की आती है तब हमें  एक बार सोचना पड़ता है कि क्या हम वाकई एक स्मार्ट एज में जी रहे हैं.तकनीक जितनी तेजी से बदल रही है अगर उतनी तेजी से हमारी मानसिकता बदलती तो दुनिया ज्यादा खुबसूरत दिखती.
एक छोटा सा उदाहरण  है मेरी तरह आपके पास बहुत से प्रमोशनल एस एम् एस आते होंगे.मेरे पास अक्सर एक एस एम् एस आता है. मेरा नाम ए बी सी (लडकी का नाम) अकेले हो,बोर हो रहे हो तो मुझे इस नंबर पर फोन करो.हम इस एस  एम् एस को पढ़कर बस डीलीट कर देते हैं.मेरे दिमाग में ऐसे मेसेज को देखकर ख्याल आया कि आखिर इस तरह के विज्ञापन संदेशों की जरुरत क्यों है.मजेदार बात है कि ऐसे एस एम् एस लड़कियों को भी भेजे जाते हैं कायदे से तो उनके पास लड़कों के नाम से एस एम् एस भेजे जाने चाहिए और दूसरी बात क्या बातें करने के लिए लड़कियां ही फ्री बैठी रहती हैं.ये छोटा सा एस एम् एस हमारे समाज के लोगों के जेहन में क्या चल रहा है ,उसकी बानगी भर है क्योंकि ऐसे एस एम् एस विज्ञापन हवा में नहीं बनते कहीं न कहीं समाज में एक सोच है कि लड़कियों से रोमांटिक बात करना पुरुषों का जन्मसिद्ध अधिकार है.पर यही हरकत अगर कोई लडकी करना शुरू कर दे तो क्या होता है उसको बताने की जरुरत नहीं.लड़कियों को जितनी तेजी से हमारा समाज कैरक्टर सर्टिफिकेट देता है,उसकी आधी तेजी लड़कों के लिए आ जाए तो देश की लड़कियों का जीवन थोडा बेहतर हो जाए.
अच्छा आप मेरी बात यूँ न मान लीजिये चलिए जरा याद कीजिये अपने मोहल्लों के चौराहों से लेकर दुकानों तक सुबह शाम लड़के झुण्ड लगाये आती जाती लड़कियों को घूरते ,फब्तियां कसते  अपने स्मार्ट फोन के साथ  जीवन का आनंद उठाते दिखते हैं कि नहीं दिखते.इससे एक बात तो साबित होती है कि हमारे समाज में लड़कियां नहीं लड़के ज्यादा फ्री रहते हैं ,न तो  उन्हें घर के सामान्य काम काज करने होते हैं न ही उनके किसी काम पर समाज से तुरंत कैरक्टर सर्टिफिकेट मिलने का डर होता है. अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए लड़कियों को अकेले छोड़ दिया जाता है.यानि विज्ञापन भी जेंडर स्टीरियो टाइपिंग का शिकार हैं क्योंकि उनको बनाने वाले भी इसी समाज के लोग हैं और उनका पालन पोषण इसी तरह की चीजों को देखते हुआ है और उनकी मानसिकता भी वैसी बन गयी है.एस एम् एस विज्ञापन से आगे टीवी विज्ञापनों पर चलें तो वहां भी कहानी कुछ ऐसी ही है जहाँ लैंगिक असमानता साफ़ साफ़ दिखती है.
आप यूँ भी समझ सकते हैं कि मैं अकेली हूँ बोर हो रही हूँ जैसे एस एम् एस विज्ञापनों की सोच को टेलीविजन पर असीमित विस्तार मिल जाता है,जहाँ किसी भी कमोडिटी को महिलाओं के साथ दिखाया जाना जरुरी है.आप भी सोच रहे होंगे कि बात तो स्मार्ट वाच और गैजेट से शुरू हुई थी पर मामला इतना गंभीर होगा आपने सोचा न था.जी हैं स्मार्ट टेक्नोलॉजी  स्मार्ट सोच के साथ अच्छी लगती है नहीं तो ये बन्दर के हाथ में उस्तुरा’ जैसी बात हो जायेगी. जरा सोचिये कैसा हो जब किसी  सूप के ऐड मे छोटी छोटी भूख पापा शांत कराये और मेनी पोको पेंट्स में बच्चे  को पापा अच्छी नींद सुलायें.ह्रदय  को स्वस्थ रखने वाले विज्ञापन में पत्नी की सेहत का ख्याल पति भी करे.वाशिंग पाउडर से लेकर टॉयलेट सफाई  के विज्ञापन में महिलाओं के साथ साथ पुरुष भी कदम से कदम मिलाकर चलते दिखें.
प्रभात खबर में 30/05/2019 को प्रकाशित 

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